क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा का जन्म 1870 के दशक में (1875) में छोटा नागपुर में मुंडा परिवार में हुआ था । मुंडा एक जनजातीय समूह था जो छोटा नागपुर पठार में निवास कारते थे । बिरसा को 1895 में आदिवासी लोगो को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 2 साल की सजा हो गई । और अंततः 1900 मे हैजे के कारण उनकी मौत हो गई। सफेद झंडा बिरसा राज का प्रतीक था। बिरसा मुंडा का जिक्र अचानक करने का कारण उनके जीवन पर आधारित नाटक है जिसकी प्रस्तुति गत 15 अप्रैल को कोलकाता के गिरीश मंच पर की गयी। ‘ उलगुलान ‘ नाटक महाश्वेता देवी के ‘ अरण्य – एर दाबी ‘ बांग्ला उपन्यास से प्रेरित है। भारत सरकार के संस्कृति विभाग की आर्थिक सहायता से गंगारिडी संस्था की प्रस्तुति को अभिजीत सरकार ने निर्देशित किया। लगभग ढाई दर्जन युवा कलाकारों ने ढाई घंटे में बिरसा के जीवन को दर्शकों तक संप्रेषित करने में सब झोक दिया। बिरसा मुण्डा नायक है, जो बचपन से ही विद्रोही प्रकृति का है। वह स्वीकारता है कि जंगल उसकी पालक माँ है, परन्तु अंग्रेजों ने जंगल छीना, अपनी आजादी हड़प ली परिणाम उसका विद्रोह नये स्वर में प्रकट होता है। बिरसा मुण्डा की संघर्ष गाथा नाटककार की प्रतिभूर्ति दर्शाती है। वे आदिवासी समाज का सच हमारे सामने रखना चाहती है कि किस प्रकार गैर-आदिवासियों (दिकू)ने इनके घर नष्ट किये। इन वनवासियों को बेधर किया और इसके विरूद्ध आवाज उठाई तो दिकू लोगों ने अंग्रेज साम्राज्यवादी ताकत से मिलकर इस ‘कौम’ को नेस्तनाबुद किया। होरी का सपना है ‘गाय’, चेप्पन का सपना है ‘नाव’, बिरसा का सपना है ‘भात’। ये छोटे छोटे सपने उनके लिए काल बन जाते है। मुण्डा लोगों के जीवन में भात स्वप्न ही बना रहता है। उनका नित्य भोजन घाटा पीना था, परन्तु बिरसा की माँ करमी को तो घाटा में नमक भी नहीं मिलता था। ऐसी परिस्थिति में भी वे लोग शरीर से तंदुरस्त और स्वस्थ थे। परंतु भीतर से अंधविश्वास और अज्ञानता में डूबे हुए थे। उनकी इस अज्ञानता का लाभ लेकर गाँव के जमींदार, महाजन उनकी जमीन लेते रहते थे। गाँव में अकाल या अतिवृष्टि का ऐलान करके महाजन उनसे कर्ज करने के लिए समजाता रहता था, और वे सहज आस्था के साथ रूपये उधार करते जाते थे।
परिणाम न भरपाई होने पर जमीन का पट्टा उनका हो जाता था। वैसे ही सुगाना मुण्डा जिनके पितृओं के नाम से छोटा नागपुर गाँव बना था, आज वह भिखारी से भी अधम। जिस के पेट में घाटा भी नहीं पड़ता, फटा कपड़ा पहने बिना किसी मकान के घूम रहा है। उसने भी अपनी दो लड़कियों-चम्पा और दासकिर की शादी भी महाजन से सूद देकर पैसे लेकर की। मुण्डाओं का कर्ज प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है। महाजन चाहता है कि मुण्डा पट्टा लिख दे, खेत में काम करे, पालकी उठाये, नासमझ बच्चे खेत पर पहरे देंगे, एक दाना भी चोरी न करेंगे और ठाकुर एवम् पूजापाठ से ज्यादा गभराते हैं। अपनी ही जमीन पर यह आदिवासी गुलाम है। अपने भाइयों को गुलामी से आजादी दिलाने के लिए बिरसा ने ‘उलगुलान’ की अलख जगाई। नाटक की कोई भाषा नहीं होती। उक्त नाटक की प्राथमिक भाषा चाहे बांग्ला हो लेकिन बिरसा मुंडा की क्रांतिकारी पुकार सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही है ‘ उलगुलान ‘ । नाटक के अपने तत्व होते हैं और उपन्यास के अपने। इसलिए उपन्यास को हूबहू मंच पर उतार देने से प्रस्तुति के लचर होने की सम्भावना सदैव रहती है। अतः नाट्य लेख प्रस्तुति के अनुरूप होना अनिवार्य है। साथ ही ये भी ध्यान देना चाहिए कि जब कोई लेखक हाथों में कलम थामे लिखने को होता है तब रचना खुद ब खुद अपना रूप कविता कहानी उपन्यास नाटक के रूप में ले लेती है। ऐसे में जब लेखक ने उपन्यास के रूप में रचा है तो फिर उसी रूप को नाटक में कैसे थोपें। यदि वही विषय अनिवार्य हो तो नया नाटक लिखना ही बेहतर।
नाट्य समीक्षा
जयदेव दास
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