Thursday, September 18, 2025
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बड़ों की महत्वाकांक्षा और संवेदनहीनता के बीच पिस रहा बचपन

अपराजिता फीचर्स डेस्क

जब हम बच्चे थे तो बड़ों की हर बात बुरी लगती थी और आज जब हम बड़े हो चुके हैं तो हम बच्चों को समझना नहीं चाहते। हम उनकी हर बात को वैसे ही समझना चाहते हैं, जैसे हम समझना चाहते हैं…हमने बच्चों के लिए ऐसी दुनिया तैयार कर दी है जहाँ हम कभी खुद नहीं रहना चाहेंगी..बच्चे घृणा झेल रहे हैं और हम अपनी नफरतों को उन पर थोप रहे हैं। बच्चों की दुनिया में हम बड़ों ने अपनी नफरत और महत्वाकांक्षा का जहर घोल रखा है। वे बच्चे भी खुश नहीं हैं जो समृद्ध हैं और जो महंगे स्कूलों में जाते हैं। प्रद्युम्न की हत्या के मामले में ग्यारहवीं कक्षा के छात्र का नाम आता है और वजह यह है कि वह परीक्षा को टालना चाहता था इसलिए उसे हत्या ही एकमात्र विकल्प सूझा….अब जरा सोचिए क्या ये इस अभियुक्त छात्र का दोष है….? ये दोष हमारा है…हमारी शिक्षा प्रणाली का है…हमने क्या हाल कर रखा है और परीक्षा कितनी बड़ी दहशत बन गयी है जो एक सामान्य बात है…मगर इसके पीछे अभिभावकों की महत्वाकांक्षा और बच्चे पर अत्यधिक दबाव डालने वाली प्रवृति है जिसने एक मासूम को अपराधी बनाकर छोड़ दिया है। अच्छा…जरा सोचिए तो हम सिखा क्या रहे हैं…मुफ्त में सामान बटोरना….मेहनत और सच बोलने को बेवकूफी समझना….रिश्वत देना और तलवे चाटना….हर बुरी चीज हमें अच्छी लगने लगी है इसलिए संजय दत्त और सलमान खान जैसे लोग आदर्श बन जाते हैं जो कानून को अपने हाथ में लिए घूमते हैं…आप जब झूठ बोलते हैं, हिंसा करते हैं तो वह सब आपके बच्चे देख रहे हैं होते हैं। आप घर में शराब की पार्टी करेंगे तो आपको आवेश जैसे बच्चों से कैसे बात करेंगे….जो शराब को आम सी चीज समझते हैं…हर मां – बाप चाहता है कि उसका बच्चा एक अच्छा  इंसान बने…उसकी इज्जत करे मगर क्या हर मां – बाप अपनी जिन्दगी में ये सारे सिद्धांत लेकर चलता है….? मॉल कल्चर में आप प्रकृति को खत्म किए जा रहे हैं तो बच्चा पेड़ लगाना कैसे सीखेगा? बच्चा सिर्फ मां – बाप से नहीं सीखता…उसके भाई –बहन, बुआ..मासी..नानी…..चाचा…सब उसकी जिन्दगी का हिस्सा है..बच्चा अगर गालियां देता है…चोरी करता है….तो उसे पीटने से पहले एक बार अपनी जिंदगी पर नजर डालिए। सीरिया और पाकिस्तान जैैसे आतंकपोषित देश में बच्चों की स्थिति कैसी है…यह बताने की जरूरत नहीं है और यह तोहफा हम बड़ों ने ही दिया है।

कुपोषण, अवसाद और आत्हत्या…

एक हालिया सर्व के अनुसार  भारत में हर साल अकेले कुपोषण से 10 लाख से ज्यादा बच्चों की मौत हो जाती है. कोई 10 करोड़ बच्चों को अब तक स्कूल जाना नसीब नहीं है। इसके साथ ही सामाजिक और नैतिक समर्थन के अभाव में स्कूली बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इसके अलावा खासकर बढ़ते एकल परिवारों की वजह से ऐसे बच्चे साइबर बुलिंग का भी शिकार हो रहे हैं। न तो उनको समझने वाले लोग हैं और न उनकी बात सुनने वाले लोग हैं, वो किसी से कुछ नहीं कह पा रहे और नतीजा यह है कि वे अवसाद में जी रहे हैं। सेव द चिल्ड्रेन की ओर से विश्व के ऐसे देशों की एक सूची जारी की गई है जहां बचपन सबसे ज्यादा खतरे में है। भारत इस सूची में पड़ोसी देशों म्यांमार, भूटान, श्रीलंका और मालदीव से भी पीछे 116वें स्थान पर है। यह सूचकांक बाल स्वास्थ्य, शिक्षा, मजदूरी, शादी, जन्म और हिंसा समेत आठ पैमानों पर प्रदर्शन के आधार पर तैयार किया गया है। ‘चोरी हो गया बचपन’ (‘स्टोलेन चाइल्डहूड’) शीर्षक वाली यह रिपोर्ट देश में बच्चों की स्थिति बताने के लिए काफी है।

चीन से ज्यादा बच्चे

आबादी के मामले में भले ही पड़ोसी चीन भारत से आगे हो, बच्चों के मामले में भारत ने उसे पछाड़ दिया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक चार साल तक के बच्चों की वैश्विक आबादी का लगभग 20 फीसदी भारत में ही है। वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट में ऐसे बच्चों और उनकी हालत के बारे में कई गंभीर तथ्य सामने आए थे लेकिन बीते पांच वर्षों के दौरान सुधरने की बजाय इस मोर्चे पर हालत में और गिरावट आई है। उन आंकड़ों में कहा गया था कि स्कूल जाने की उम्र वाले हर चार में से एक बच्चा स्कूल नहीं जाता। यह आंकड़ा 10 करोड़ के आसपास है।

बहुत से बच्चों को गरीबी और गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के चलते स्कूल का मुंह देखना नसीब नहीं होता तो कइयों को मजबूरी में स्कूल छोड़ना पड़ता है। देश में फिलहाल एक करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो पारिवारिक वजहों से स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ घर का काम करने पर भी मजबूर हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ताहाली के चलते छह साल तक के 2.3 करोड़ बच्चे कुपोषण और कम वजन के शिकार हैं। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फार एजुकेशन (डाइस) की वर्ष 2014-15 में आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि हर सौ में महज 32 बच्चे ही स्कूली शिक्षा पूरी कर पाते हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार देश के महज दो फीसदी स्कूलों में ही पहली से 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की सुविधा है।

बाल मजदूरी

देश में बाल मजदूरी की समस्या भी बेहद गंभीर है. दो साल पहले बच्चों के लिए काम करने वाली एक संस्था क्राई ने कहा था कि देश में बाल मजदूरी खत्म होने में कम से कम सौ साल का समय लगेगा. इससे परिस्थिति की गंभीरता का अहसास होता है। वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट में देश में पांच से 14 साल तक के उम्र के बाल मजदूरों की तादाद एक करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान लगाया गया था. अब तक यह तादाद और बढ़ गई होगी। देश के कुछ हिस्सों में तो बच्चों की कुल आबादी का आधा मजदूरी के लिए मजबूर है। मोटे अनुमान के मुताबिक देश में फिलहाल पांच से 18 साल तक की उम्र के 3.30 करोड़ बच्चे मजदूरी करते हैं। कभी बच्चे की देह पर गर्म चाय फेंक दी तो कभी उसे जंजीरों से जकड़ दिया….हम बडों ने उनकी दुनिया को नर्क बना दिया है। बाल श्रम को खत्म करने के लिए सबसे पहले उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना होगा। बीते एक दशक के दौरान बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों में पांच गुनी वृद्धि हुई है लेकिन गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है। परीक्षा में फेल होना बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की दूसरी सबसे बड़ी वजह के तौर पर सामने आई है. इसके अलावा बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं होना भी बच्चों की मौत की एक बड़ी वजह है।

यूनिसेफ की ओर से हाल में जारी रिपोर्ट द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन, 2016 में कहा गया है कि आर्थिक गतिविधियों में तेजी के बावजूद देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर भयावह है। वर्ष 2015 के दौरान देश में पैदा होने वाले ढाई करोड़ में से लगभग 12 लाख बच्चों की मौत ऐसी बीमारियों के चलते हो गई जिनका इलाज संभव है। इस मामले में भारत की स्थिति पड़ोसी बांग्लादेश और नेपाल के मुकाबले बदतर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में बच्चों की स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में बहुत कुछ करना बाकी है। बच्चों को भगवान कहे जाने वाले इस देश में बच्चों को ऑक्सीजन नहीं मिलती, वे बड़ों की हवस का शिकार बन रहे हैं। इस साल सैकड़ों बच्चों की जान प्रशासनिक लापरवाही से हुई है। बाल विवाह लड़कियों के साथ लड़कों का बचपन भी छीन रहा है।

एसोचैम की स्वास्थ्य देखभाल समिति के तहत कराये गए सर्वेक्षण में पाया गया कि सात से तेरह वर्ष की आयु वर्ग के 88 प्रतिशत छात्र ऐसे हैं, जो अपनी पीठ पर अपने वजन का लगभग आधा भार ढोते हैं। इस भार में आर्ट किट, स्केट्स, तैराकी से संबंधित सामान, ताइक्वांडो के उपकरण, क्रिकेट एवं अन्य खेलों की किट शामिल होते हैं। इस भारी बोझ से उनकी रीढ़ की हड्डी को गंभीर नुकसान पहुँच सकता है. इसके अलावा पीठ संबंधी कई अन्य गंभीर समस्याओं का सामना भी इन बच्चों को करना पड़ सकता है। हमने अपनी गलाकाट प्रतियोगिता का बोझ बच्चों पर डाल दिया है…रियेलिटी शो भी एक तरह का बाल श्रम ही है जिस पर बात होनी चाहिए। हाल ही में तेलंगाना में एक बच्ची की जान बैग के भारी वजन ने ले ली और वह भी तब सीबीएसई ने स्कूल बैग को लेकर आवश्यक निर्देश जारी कर दिए हैं। हमारी बसों में बच्चों को सीट नहीं मिलती…दरअसल हम स्वभाव से ही हृदयहीन हो रहे हैं….जरूरी है कि हम बच्चों को अपनी महत्वाकांक्षाओं के बोझ से मुक्त करें।

 

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