नवम्बर का महीना…मतलब बच्चों के नाम का एक दिन..। एक दिन…दरअसल बच्चों के नाम तो पूरी दुनिया होनी चाहिए मगर ऐसा होता कहाँ है । बच्चों की दुनिया पर तो बड़ों ने कब्जा जमा रखा है। आज सारा देश बाल दिवस मना रहा है। कविताएं. कहानियाँ, कार्यक्रम…उद्घाटन मगर सच हम भी जानते हैं कि हम बच्चों की दुनिया को भी अपनी नजर से देखना चाहते हैं, देखते हैं और उनके सपनों पर भी हम अपने अधूरे सपनों को लादते रहते हैं। हम जो करना चाहते थे नहीं कर पाए इसलिए हम जो नहीं कर पाए, वह अब हमारा बच्चा करेगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या चाहते हैं, उनके सपने क्या हैं। भारत में तो विरोधाभास वाली स्थिति है…सुरक्षा और संरक्षण के नाम पर माता – पिता, खासकर माताएं अपने बच्चों, खासकर बेटों को न तो बड़ा होने नहीं देती हैं और न ही आत्मनिर्भर होने देती हैं। एक पुरुष कभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाता । हालांकि आज स्थिति बहुत बदल गयी है मगर भारत का एक बड़ा हिस्सा वह है जहाँ पुरुषों के लिए घर के काम वर्जित माने जाते हैं और गलती से उसने खुद किया या किसी ने करवा लिया तो अच्छा -खासा हंगामा खड़ा किया जाता है। आप नहीं जानतीं हैं कि ममा बॉय बनाकर आप या बाबू शोना बनाकर आप प्यार के नाम पर उसके जीवन में जहर घोल रही हैं क्योंकि आपके कारण न तो वह बड़ा होगा और न तो यथार्थ में कदम रखना चाहेगा। लड़कों को बाँटना नहीं सिखाया जाता और बहनों के साथ तो और भी नहीं। आज बाल दिवस पर उस भेदभाव की याद दिलानी जरूरी है जो बचपन से ही खुद माता – पिता करते आ रहे हैं और जब तक आप ऐसा कर रहे हैं, समाज में वैमनस्य का भाव खुद भर रहे हैं इसलिए जरूरी है कि बच्चों को बच्चों की तरह रहने दें। बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ मत लादिए…उनको एक सच्ची दुनिया दीजिए…मायाजाल नहीं ।