डॉ. साधना झा
हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद का प्रादुर्भाव एक अविस्मरणीय घटना है । उन्होंने कथा साहित्य को तिलस्म एवं चमत्कार के आश्चर्यजनक काल्पनिक दुनिया से बाहर निकलकर ठोस धरातल प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य किया । डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ में प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान के संदर्भ में लिखा है —“प्रेमचंद हिन्दी उपन्यास की वयस्कता की प्रभावशाली उद्घोषणा है । सामाजिक यथार्थ की जिस समस्या को उनके पूर्ववर्ती उपन्यासकारों ने आदर्श एवं यथार्थ के खानों में बांटकर देखा था, उसे प्रेमचंद एक संपृक्त एवं संश्लिष्ट रूप में समझते हैं” ।[i]
प्रेमचंद युगीन भारतीय समाज में औरतों को किसी भी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं था । स्त्रियां सामाजिक तथा राजनीतिक स्तर पर निर्णायक भूमिका में नहीं थी । स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, विधवा-विवाह, स्त्रियों की आर्थिक सुरक्षा इत्यादि का सवाल उस समय के हिन्दी भाषी समाज के लिए चिंतन का विषय था । प्रेमचंद अपने समय के इन ज्वलंत सवालों से टकराते हैं । ये सवाल आज भी हिन्दी भाषी प्रगतिशील लेखकों के लिए चिंतन का विषय बना हुआ है । भारत के स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी प्रदेश की आधी आबादी की कोई हिस्सेदारी नहीं थी । प्रेमचंद इसका कारण पितृ-सत्तात्मक समाज को मानते हैं । उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से इस पुरूष वर्चस्व को तोड़ने का प्रयास किया है । राम विलास शर्मा ने प्रेमचंद को साहित्य के द्वारा सामंती संस्कारों पर चोट करने वाला कहा है —“प्रेमचंद अपने उपन्यासों में नए ढंग के नारी पात्रों को रच रहे थे जो अन्याय और दुःख सहती हैं लेकिन उनका विरोध भी करती हैं । यदि नारी घुट-घुटकर मरा करे और सामाजिक रुकावटों का विरोध न करे तो कुछ लोग इसे बहुत गंभीर मनोविज्ञान समझते हैं । वास्तव में उससे उनके सामंती संस्कारों को संतोष होता है जिनके वश में रहकर वे नारी को दासी ही बनाकर रखना चाहते हैं” ।[ii]
प्रेमचंद के नारी पात्र सामंती संस्कारों से या तो मुक्त थी या उससे मुक्ति के लिए संघर्षरत् थी । इसका सशक्त उदाहरण ‘गबन’ की नायिका जालपा है । जालपा का आचरण इस समाज का हिस्सा होने के कारण उसके अनुकूल तथा अनुरूप था । यही कारण है कि वह गहनों से प्यार करती है । उसका गहनों से प्रेम सामंती संस्कार का पोषक है । परन्तु प्रेमचंद ने जालपा को विभिन्न परिस्थितियों में रखकर उसमें सकारात्मक परिवर्तन दिखाते हुए उसके ‘स्व’ का विस्तार करते हैं । इसके पीछे उनका उद्देश्य यह बताना है कि आधुनिक स्त्रियां मात्र सज-संवरकर ही नहीं रह सकतीं वरन् सामाजिक और राजनीतिक भूमिका भी निभा सकती हैं । उपन्यास का कथा ज्यों-ज्यों विकसित होता है, जालपा का चरित्र त्यों-त्यों सामंती संस्कारों से मुक्त होते चलता है । कथाकार ने मध्य-वर्गीय नारियों की विडंबनापूर्ण स्थिति के संदर्भ में जालपा का एक नया उदाहरण रखा है तथा उसके चरित्र के माध्यम से मध्य-वर्ग की अनंत संभावनाओं को प्रस्तुत किया है । जिस तरह जालपा ने अपने स्वत्व को पहचाना, रमानाथ का मध्य-वर्गीय भटकाव दूर किया तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में हिस्सा लिया, वह विडंबनाओं और अंतर्विरोधों से घिरे मध्य-वर्ग के लिए प्रेरणा का स्रोत है । राम विलास शर्मा लिखते हैं —“प्रेमचंद के नारी पात्रों में जालपा एक नए ढंग की स्त्री है । वह परिस्थितियों से टक्कर लेती है लेकिन कभी धैर्य नहीं खोती । भारी-से-भारी मुसीबत पड़ने पर वह विवेक से काम लेती है और कठिनाइयों का सामना करने के लिए नए-नए दांव पेंच निकाल लेती है । वह निर्मला के तरह घुल-घुलकर प्राण देने वाली नहीं है और न सुमन की तरह तैश में आकर जल्दी ही किसी अनजानी राह पर कदम उठाने वाली । उसका चरित्र कठिनाइयों का सामना करते हुए बराबर निखरता रहता है, क्योंकि वह अपनी खामियों को पहचान सकती है । वह एक ईमानदार और साहसी स्त्री है” ।[iii]
डॉ. बच्चन सिंह ने भी स्वीकार किया है कि जालपा प्रेमचंद की नारी पात्रों में सबसे अलग है । उसके चरित्र का उतरोत्तर विकास होता है और वह यथास्थितिवाद की सीमा का अतिक्रमण करने में सफल होती है । उन्होंने ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है —“इसके पहले प्रेमचंद की नारियां अपनी-अपनी स्थितियों में कैद हैं किन्तु जालपा इस कैद को लांघ जाती है” ।[iv]
प्रेमचंद ‘गबन’ के नारी पात्रों के माध्यम से कई सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों को हमारे समक्ष रखते हैं । ‘गबन’ उपन्यास में कुल पांच महिला पात्र –- जालपा, रतन, जोहरा, जग्गो तथा जागेश्वरी हैं । जिनमें जागेश्वरी एकमात्र परम्परागत महिला चरित्र है । जिसकी सीमा घर की चारदीवारी है । वह परम्परा से तय भूमिका (मां, पत्नी) को ही निभाती है । सत्ता (परिवार, समाज या राजनीति) में उसकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं रहती है । जालपा भी जब तक घर की चारदीवारी के भीतर रहती है, तब तक वह बहू और पत्नी की ही भूमिका तक सीमित रहती है । वह अपनी जिम्मेदारियों का विस्तार रमानाथ के घर से जाने के पश्चात् ही करती है । यहीं से सत्ता में उसकी हिस्सेदारी भी शुरू होती है और उत्तरोतर उसके व्यक्तित्व में निखार भी आने लगता है । ए. अरविन्दाक्षन के अनुसार —“मध्यवर्गीय मानसिकता को स्त्री संदर्भ में ‘सेवा-सदन’ और ‘निर्मला’ में प्रस्तुत किया गया है तो उसे राष्ट्रवादी और राजनीतिक संदर्भ में देखने-परखने का कार्य प्रेमचंद ने ‘गबन’ में किया है” ।[v]
प्रेमचंद के उपन्यासों में नारी अपनी पूर्ण आदर्श रूप में (देवी रूप में) उपस्थित है । उन्होंने आदर्श भारतीय नारी की परिकल्पना करते हुए उसके चरित्र को सभी प्रकार की दुर्बलताओं से मुक्त रखा है । आलोच्य उपन्यास के नारी पात्रों में भी आदर्श का समावेश हुआ है । भले ही उपन्यास की समस्या नारी से संबंधित है, उनके आभूषण-प्रेम से, परन्तु प्रेमचंद इसकी जिम्मेदारी पुरुष के कंधे पर ही डालते हैं —“स्त्री के लिए काम-काज के दरवाजे बंद होंगे तो वह जरुर गहनों के लोक में घुमती रहेगी” ।[vi]
प्रेमचंद पितृ-सत्तात्मक समाज में बच्चियों के मन में उत्पन्न कुसंस्कारों के लिए परिवार और माता-पिता को जिम्मेदार मानते हैं । उन्होंने जालपा के माध्यम से इस बात को रेखांकित किया है कि माता-पिता की साधारण सी भूल के कारण कोमल मन-मस्तिष्क किस तरह प्रभावित होता हैं । यदि जालपा के पिता (दीनदयाल) ‘उसे बचपन में ही लाड़-प्यार के रूप में आभूषण नहीं देते तथा उसकी माता (मानकी) का अटूट आभूषण-प्रेम उस पर प्रकट नहीं होता और तीन वर्ष की उम्र में ही सोने के चूड़े नहीं बनाये जाते, यदि उससे यह नहीं कहा जाता कि ससुराल से चन्द्रहार आयेंगे’ तो वह कभी भी आभूषण-प्रेमी बनकर भविष्य में अपने पति रमानाथ के संकट तथा उसके पारिविरिक विनाश का कारण नहीं बनती ।
जालपा ‘गबन’ उपन्यास की प्रमुख नारी पात्र है । उसके चरित्र का विकास अत्यंत मनोवैज्ञानिक ढंग से हुआ है । उपन्यास के प्रारम्भ में वह एक सामान्य आभूषण-प्रेमी स्त्री में रूप में सामने आती है । जालपा के आभूषण-प्रेम के सम्बन्ध में प्रेमचंद लिखते हैं —“जालपा को गहनों से जितना प्रेम था, उतना कदाचित संसार की और किसी वस्तु से न थी; और इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी? जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूड़े बनवाए गए थे । दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती, तो गहनों की चर्चा करती –तेरा दूल्हा तेरे लिए बड़े सुन्दर गहने लाएगा । ठुमुक-ठुमुक कर चलेगी” ।[vii]
प्रेमचंद ने ‘गबन’ के सभी नारी पात्रों में आभूषण के प्रति सहज लगाव का अत्यंत स्वाभाविक चित्रण किया है । परन्तु अपने आदर्श नारी पात्रों को संकटापन्न स्थिति में भी आभूषण के प्रति मोहित दिखाना लेखक का अभीष्ट नहीं रहा है । इसलिए उन्होंने पारिवारिक संकट के समय गबन के सभी नारी पात्रों के द्वारा आभूषण का परित्याग दिखाया है । वे सर्प के केंचुल की भांति आभूषण के प्रति अपने मोह को उतार कर फेंक देती है । जालपा भी परिस्थितियों के समक्ष विवश नहीं होती, वरन् संघर्ष करती है । वह न केवल गहनों को बेचकर पति को गबन के केस से मुक्त करती है, वरन् अपने साजो-सिंगार के सारे सामान –‘मखमली स्लीपर, रेशमी मोज़े, बेलें, फीते’ इत्यादि को एक झोले में भरकर गंगाजी में प्रवाहित कर आती है । प्रेमचंद रमानाथ के जाने के बाद जालपा का गहनों के मोह से मुक्ति की यात्रा का वर्णन इसप्रकार से करते हैं —“आधी रात तक वह इन चीजों को उठा-उठाकर अलग रखती रही, मानों किसी यात्रा की तैयारी कर रही हो । हां, यह वास्तव में यात्रा ही थी —अंधेरे से उजाले की, मिथ्या से सत्य की” ।[viii] जब इस उपन्यास की समस्याओं पर गहरे से हम दृष्टिपात करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आभूषण-प्रेम से उत्पन्न समस्या का एक मात्र कारण है –– पुरुष का दुराव-छिपाव एवं प्रदर्शनप्रियता । प्रेमचंद ने इस तथ्य को स्पष्टत: अभिव्यक्त किया है कि जालपा कदापि रमानाथ पर दबाब नहीं डालती यदि उसे वास्तविक पारिवारिक परिस्थितियों से अवगत कराया जाता ।
प्रेमचंद आभूषण को नारी की गुलामी की जंजीर मानते थे । उनका विचार था कि आभूषण के प्रति मोह सामंती समाज की नारी की विशेषता है । यह आधुनिक समाज में नारी के विकास को बाधित करती है । आधुनिक नारी अपने स्वत्व और सम्मान की रक्षा के लिए अपना सबकुछ लुटा देने को भी तत्पर रहती है । यही कारण है कि प्रस्तुत उपन्यास के तमाम नारी पात्र गुलामी के इस जंजीर को तोड़कर फेंक देती हैं । प्रेमचंद को इस बात का दुःख था कि —“उन्नत देशों में धन व्यापार में लगता है, जिससे लोगों की परवरिश होती है, और धन बढ़ता है । यहां धन श्रृंगार में खर्च होता है, उसमें उन्नति और उपकार की जो दो महान शक्तियां हैं, उन दोनों ही का अंत हो जाता है” ।[ix] उन्होंने अनुभव किया कि इस देश का आत्मिक, दैहिक, नैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक पत्तन का कारण आभूषण-प्रेम ही है, जो बच्चों का पेट काटकर बनता है । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमचंद कहीं-न-कहीं स्त्री के आभूषण-प्रेम को जायज भी ठहराते हैं । रतन के संदर्भ में उन्होंने लिखा भी है कि —“स्त्रियों की एक मात्र संपत्ति उनका आभूषण ही है” । उन्होंने फिर लिखा है —“यदि रतन वकील साहब के रुपयों को आभूषण में परिवर्तित कर लेती, तो उनकी मृत्यु के पश्चात् उसे दर-दर की खाक नहीं छाननी पड़ती” ।
‘गबन’ की दूसरी नारी पात्र रतन, जो उच्च वर्ग में होने के बावजूद पितृसत्तामक समाज के वर्चस्व का शिकार है । वह भी मध्यवर्गीय औरतों की तरह असुरक्षित है । वकील साहब की मृत्यु के साथ ही समाज, परिवार, राज्य, न्याय सभी उसके विरूद्ध हो जाते हैं । वह सब कुछ त्याग देती है, जो उसका नहीं होता है । रतन के माध्यम से प्रेमचंद अपने समय की इस अमानवता रूपी विषमता का विरोध जोरदार शब्दों में करते हैं । संयुक्त परिवार में स्त्रियों की त्रासद स्थिति का वर्णन करते हुए प्राचीन भारतीय समाज के पारिवारिक ढांचा की उपादेयता पर प्रश्न उठाते हैं –—“अगर मेरी जबान में इतनी ताकत होती कि सारे देश में उसकी आवाज पहुंचती तो में सब स्त्रियों से कहती -– बहनों! किसी सम्मिलित परिवार में विवाह मत करना और अगर करना तो जब तक अपना घर अलग न कर लो, चैन की नींद मत सोना ।………परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं कांटों की शैय्या है; तुम्हारा पार लगनेवाली नौका नहीं, तुम्हें निगल जाने वाला जंतु है” ।[x]
परन्तु प्रस्तुत उपन्यास में भारतीय नारी के ‘आभूषण-प्रेम’ की भयावहता को दिखाना ही केवल लेखक का मंतव्य नहीं रहा है, वरन् जीवन की वास्तविकता को सामने लाकर पाठकों को प्रेरित करना भी उनका लक्ष्य रहा है । रामविलास शर्मा ने ‘गबन’ उपन्यास की विशिष्टताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है —“एक साधारण लेखक के हाथों में जालपा की कहानी गहनों से प्रेम करने का बुरा नतीजा दिखानेवाली एक मामूली उपदेश-मूलक कहानी बन जाती । प्रेमचंद ने उसे नारी समस्या का व्यापक चित्र बनाने के साथ-साथ इस समस्या को हिन्दी साहित्य में पहली बार देश की स्वाधीनता की समस्या से जोड़ दिया है । जालपा को सच्चा सुख उनकी देखभाल करने में मिलता है जिनके बेटों और पतियों को अंग्रेजी राज फांसी देने की तजवीज करता है । सामाजिक जीवन और कथा साहित्य के लिए यह एक नई दिशा की तरफ संकेत था” ।[xi]
इतना ही नहीं ‘स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार’ की समस्या को सामने लाना भी प्रेमचंद का अभीष्ट रहा है । ‘स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार’ की समस्या आज भी सम्पूर्ण उत्तर भारत तथा पश्चिम भारत में विकराल रूप में उपस्थित है । हिंदू धर्म-शास्त्र तथा हिंदू-विवाह पद्धति ने स्त्रियों को सभी प्रकार की संपत्ति से वंचित कर रखा है । उनका एक मात्र स्वामित्व उनके आभूषणों पर ही होता है और ये आभूषण संकट के समय उनका सहारा भी बनता है । इसी कारण आभूषणों के प्रति उनका अतिशय आकर्षण होता है । जालपा और जग्गो अपने गहने बेचकर परिवार को संकट से मुक्त करने की कोशिश करती हैं । अत: स्वाभाविक है कि उनका सारा अर्थानुराग आभूषणों में ही केन्द्रीभूत हो जाय । प्रेमचंद ने स्त्रियों के साथ हो रहे इस भेद-भाव को आर्थिक नजरिए से पहचानने की कोशिश की है । जब तक स्त्रियां आर्थिक रूप से स्वाधीन नहीं होंगी, तब तक उन पर पुरुष का वर्चस्व कायम रहेगा । इसलिए उन्होंने स्त्रियों की आर्थिक स्वाधीनता के प्रश्न को राजनीतिक एवं सामाजिक प्रश्न बनाया है । स्वाधीन भारत में स्त्रियों की आर्थिक स्थिति क्या होगी ? ‘गबन’ उपन्यास इस प्रश्न से भी जूझता हुआ दिखाई देता है ।
अनमेल विवाह स्वयं में एक बहुत बड़ी समस्या है, जिससे समाज में पापपूर्ण आचरण विकसित होते हैं । रतन का वकील साहब के साथ विवाह एक समझौता था । रतन का बचपन अभावों में गुजरा था । विवाह के पूर्व जिस ऐश्वर्य-वैभव की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, वह उसे वकील साहब के कारण प्राप्त हुआ । इसलिए वह अपनी दूसरी इच्छाओं को दबाकर अपने अभावों से समझौता कर लेती है । दरअसल प्रेमचंद ‘निर्मला’ नामक उपन्यास में इस अनमेल–विवाह की वीभत्सता का वर्णन कर चुके थे, इसलिए इसका दोहराव यहां प्रस्तुत करना उनका ध्येय नहीं था । रतन के माध्यम से स्त्री का संपत्ति पर अधिकार के प्रश्न को उठाना उनका प्रमुख उद्देश्य था । भारतीय समाज में आज भी स्त्री को यह अधिकार सहजता से प्राप्त नहीं होता है ।
प्रस्तुत उपन्यास में स्त्री-शिक्षा के संदर्भ में भी प्रेमचंद के विचार उल्लेखनीय है । जहां इक्कीसवीं सदी का भारत स्त्री-शिक्षा के संदर्भ में इतना पिछड़ा हुआ है, वहां बीसवीं सदी के तीसरे दशक में ही प्रेमचंद स्त्री की आजादी और शिक्षा की वकालत करते हैं । यह उनकी प्रगतिशील चिंतन का प्रतीक है । स्त्रियों की शिक्षा की वकालत करने के पीछे प्रेमचंद का उद्देश्य देश की मुख्य धारा से स्त्री को जोड़ना रहा है । प्रेमचंद अपनी बातों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए अपने प्रत्येक उपन्यास में किसी-न-किसी पात्र को चुन लेते हैं । ‘गबन’ उपन्यास में, प्रेमचंद ने वकील साहब को अपना प्रतिनिधि चुना है । वे उनके माध्यम से स्त्री-शिक्षा एवं स्त्री-स्वाधीनता के प्रश्नों को उठाते हैं और उसके पक्ष में तमाम दलीलें भी देते हैं । वकील साहब यूरोप को स्वर्ग मानते हैं । इसलिए नहीं कि वहां दौलत और आजादी है बल्कि इसलिए कि वहां स्त्री शिक्षित भी है और स्वतंत्र भी । वहां का समाज स्त्री-शिक्षा के कारण ही इतना स्वच्छंद और हंसमुख है । वकील साहब इसीलिए भारत में भी स्त्री-शिक्षा की जरुरत महसूस करते हैं । जब रमानाथ अपनी जानकारी के आधार पर वकील साहब से तर्क करता है कि वहां स्त्रियों का आचरण बहुत अच्छा नहीं है । तो वकील साहब यह सुनते ही बिफर जाते हैं ––“… जिस देश में स्त्रियों को जितनी अधिक स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है । स्त्रियों को कैद में; परदे में, या पुरुषों से कोसों दूर रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहां जनता इतनी आचार भ्रष्ट है कि स्त्रियों का अपमान करने में जरा भी संकोच नहों करती” ।[xii]
मध्य-वर्ग की नारियों की स्थिति सर्वाधिक त्रासद है । प्रेमचंद ‘गबन’ उपन्यास में मध्यवर्गीय नारी की विडंबनापूर्ण स्थिति पर प्रकाश डालते हैं और उसकी तुलना में निम्न मध्य-वर्गीय स्त्रियों की सशक्त सामाजिक-पारिवारिक स्थिति का चित्रण करते हैं । विधवा रतन मणिभूषण के समक्ष बेबस और लाचार है जबकि देवीदीन की पत्नी जग्गो उतनी लाचार नहीं है । प्रेमचंद का मानना है कि आर्थिक स्वतंत्रता और श्रमशीलता के कारण ही निम्न-वर्ग की स्त्रियों की स्थिति अधिक मजबूत है ।
प्रेमचंद का नारी के प्रति दृष्टिकोण आदर्शवादी रहा है । उनका विचार था कि ––‘पुरुष पथ से भटकता है और स्त्री उसे सन्मार्ग पर लाती है । नारी पुरुष के भीतर कर्तव्य और नैतिकता को जाग्रत कर उसे राष्ट्रीय तथा सामाजिक उत्तरदायित्त्व के निर्वाह के लिए प्रेरित करती है’ । प्रेमचंद की नारी-पात्र पुरुषों पर भारी रही है अर्थात उनके नारी-पात्रों का चरित्र पुरुष-पात्रों की चरित्र के अपेक्षा अधिक दृढ़ है -– वह चाहे ‘सेवासदन’ की सुमन हो, ‘निर्मला’ की निर्मला, ‘रंगभूमि’ की सोफिया, ‘गोदान’ की धनिया और मालती या ‘पूस की रात’ की मुन्नी । ‘गबन’ उपन्यास में जालपा का चरित्र जितना ही दृढ़ और महान है, रमानाथ का उतना ही हल्का और ढुलमुल । जालपा को सच कहने और सोचने की शिक्षा मिली है । वह नारी है; इसलिए पीड़ितों की व्यथा को पुरुष से ज्यादा अच्छी तरह से समझती है । जब रमानाथ झूठी गवाही देने की मज़बूरी की बात करता है तो जालपा उसे धिक्कारती है –- “जिस आदमी में हत्या करने की शक्ति हो, उसमें हत्या न करने की शक्ति का न होना अचम्भे की बात है । .. जब हम कोई काम करने की इच्छा करते हैं, तो शक्ति आप ही आप आ जाती है । तुम यह निश्चय कर लो कि तुम्हें बयान बदलना है, और सारी बातें आप ही आप आ जाएंगी” ।[xiii] रमानाथ की आत्मकेंद्रीयता से जालपा का व्यक्तित्व बार-बार टकराता है । अंतत: उसी की प्रेरणा से कमजोर और भावुक रमानाथ के चरित्र में परिवर्तन भी आता है । राम विलास शर्मा जालपा के चरित्र का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं —“जालपा भारत का उगता हुआ नारीत्व है । वह भविष्य की तूफानों की अग्र सूचना है । उसने वर्तमान की राह पर मजबूती से पांव रखा है और भविष्य की तरफ वह निश्शंक दृष्टि से देखती है । वह एक नई आग है, जो झूठी संस्कृति के कागजी फूलों को भस्म कर देती है । वह सदियों की लांछना और अपमान को पहचाननेवाली नई शूरता है जिसके आगे कोई बाधा ठहर नहीं सकती । वह हिंदुस्तान के नए आनेवाले इतिहास की भूमिका है – वह इतिहास, जिसमें लाखों जालपा एक साथ अगर बढ़ेंगी और ऐसे नारीत्व का चित्र आंकेंगी जिसके सामने अतीत के सभी चित्र फीके लगेंगे” ।[xiv]
प्रेमचंद ‘गबन’ उपन्यास में स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध जैसे सामाजिक प्रश्न पर भी विचार करते हुए दिखाई देते हैं । उन्होंने रमानाथ और जालपा के माध्यम से न केवल मध्यवर्ग की सीमाओं का बारीकी के साथ विश्लेषण किया है, वरन् उसमें संभावनाओं का तलाश भी किया है । उनका मानना है कि विलासिनी होकर स्त्री सच्चा प्रेम नहीं पा सकती है, वह सच्चा प्रेम त्यागिनी बनकर ही प्राप्त कर सकती है । साथ ही पुरुष को भी अपने ‘स्व’ का विस्तार करना पड़ेगा । अपने आगे परदा डाल कर वह स्त्री का प्यार नहीं पा सकता । जालपा को सच कहने और सोचने की शिक्षा मिली है । वह नारी है; इसलिए पीड़ितों की व्यथा को पुरुष से ज्यादा अच्छी तरह से समझती है । जब रमा नौकरी के अलावा उपरी आमदनी की बात करता है तो जालपा टोकती है ––“तो तुम घुस लोगे, गरीबों का गला काटोगे” ।[xv]
‘गबन’ उपन्यास की मूल समस्या ‘नारी मुक्ति की समस्या’ ही है, जो आगे चलकर मध्य-मध्यवर्ग की राजनैतिक-आर्थिक मुक्ति की समस्याओं से जुड़ जाती है । जालपा मध्यवर्गीय नारी के रूप में ही अपनी मुक्ति की तलाश करती है । वह सेवा-भाव से युक्त एक गरिमामय आदर्श भारतीय नारी के रूप में प्रतिष्ठित होती है । परन्तु मध्य-वर्गीय नारी की मुक्ति का संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है । इसलिए प्रेमचंद के साहित्य की उपजीव्यता और प्रासंगिकता अभी शेष है ।
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संदर्भ ग्रन्थ सूची
[i] चतुर्वेदी, रामस्वरूप: हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 1993, पृ.-164
[ii] शर्मा, रामविलास: प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ.57
[iii] शर्मा, रामविलास: प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ.62-63
[iv] सिंह, बच्चन: आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 1997, पृ.199
[v] अरविन्दाक्षन, ए.: भारतीय कथाकार प्रेमचंद, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, सं. 2009, पृ. 50
[vi] शर्मा, रामविलास: प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ.-63
[vii] प्रेमचंद: गबन, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 1980, पृ.30
[viii] उपरोक्त, पृ.136
[ix] उपरोक्त, पृ. 50
[x] उपरोक्त, पृ.-232
[xi] शर्मा, रामविलास: प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ.69
[xii] प्रेमचंद: गबन, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 1980, पृ.95
[xiii] उपरोक्त, पृ. 223
[xiv] शर्मा, रामविलास: प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2011, पृ.66
[xv] उपरोक्त, 64