प्रेम धीरे -धीरे वस्तुवादी बन गया है
निकल आए हैं उसके भी हाथ और पांव
झांकने लगी है उसके भीतर से लालच से भरी
लपलपाती जीभ जिसे स्वाद का एहसास है
जो खरोंचना जानती है आत्मा को, स्वार्थ से ।
भावना और संवेदना उसके लिए
सिर्फ़ नमक और मिर्च का जायका है।
जिसे वह मौके -बेमौके
कम- ज्यादा आजमा लेता है।
प्रेम धीरे- धीरे अपनी आदमियत खो रहा है
उसे घेर लिया है महत्वाकांक्षा की अंधी प्रतिस्पर्धा ने।
उसके सांसों में एक भभकती आग है
जो जला देना चाहती है मर्म और मार्मिकता को।
जो झुलसे हुए फूलों में श्रृंगार देखती है
ताजे टटके फूल उसे दिखावा या छलावा लगते है।
प्रेम जिसे अपनी अस्तित्व पर गर्व था
जो समाज में आदमी होने की सच्ची पहचान था
धीर -धीरे वह वैश्विक बन चुका है।
अब प्रेम के कई पर्यायवाची बन गए हैं
उपयोगी, कन्विनियन , दिखावा, टाइम पास
सच पूछो तो प्रेम कहीं है ही नहीं
लुप्त प्रायः है जैसे आदिम मानव का अस्तित्व।