सभी सखियों को नमस्कार। सखियों थोड़े दिनों पहले ही अर्थात 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया गया है और इस दौरान सभी को अपने शरीरिक मानसिक- स्वास्थ्य का ध्यान रखने की सलाह दी गई है। लिंगभेद के आधार पर जब हम मानव स्वास्थ्य की स्थिति पर विचार करते है तो पाते हैं कि देश के बड़े हिस्से की महिलाएँ अब भी कुपोषण की शिकार हैं। हालांकि स्वस्थ- संपन्न या मोटापे से परेशान महिलाओं की संख्या में इन दिनों वृद्धि हुई है लेकिन अनुपात उन्हीं स्त्रियों का ज्यादा है जो स्वास्थ्य के मानकों पर खरी नहीं उतरतीं। इसके अलावा रक्ताल्पता, विटामिन डी की कमी और थॉयराइड आदि बीमारियों से पीड़ित महिलाओं की बड़ी संख्या है जिनमें से कुछ इनका निदान करने में सक्षम हैं तो कुछ भगवान भरोसे हैं।
प्रश्न यह है कि आखिर हमारे देश में महिलाओं के बड़ी संख्या में कुपोषित होने की वजह क्या है। गरीबी, अर्थाभाव, आदि निश्चित रूप से एक कारण है लेकिन इसके अलावा कुछ सामाजिक मान्यताओं ने भी इन आंकड़ों में वृद्धि करने में अहम भूमिका अदा की है। भारतीय समाज में स्त्री को अन्नपूर्णा कहा जाता है लेकिन इस अन्नपूर्णा के गौरवपूर्ण आसन पर बैठने की एक कीमत यह भी चुकानी पड़ती है कि वह पूरे परिवार को खिलाकर तभी खाना खाएगी। अगर वह पहले खा लेती है तो परिवार की मर्यादा और समृद्धि दोनों प्रभावित होंगे, ऐसा माना जाता है। इसका प्रमाण हमें महाभारत की एक प्रसिद्ध कथा में मिलता है। जब पांडव वनवास में थे तब युधिष्ठिर ने अपने तप से सूर्यदेव को प्रसन्न करके एक अक्षय पात्र प्राप्त किया था ताकि वह अपने परिवार के लोगों के साथ- साथ वन के तमाम मनुष्यों की क्षुधा को तृप्त कर सकें। सूर्यदेव ने वह पात्र देते हुए कहा था “इस तांबे के बर्तन में फल, फूल, शाक आदि 4 प्रकार की भोजन सामग्रियां तब तक अक्षय रहेंगी, जब तक कि द्रौपदी परोसती रहेगी।’ इस कथा के अनुसार द्रौपदी हजारों लोगों को परोसकर ही भोजन ग्रहण करती थी, जब तक वह भोजन ग्रहण नहीं करती, पात्र से भोजन समाप्त नहीं होता था। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि पात्र युधिष्ठिर को मिला लेकिन परोसने, खिलाने और सबसे अंत में भोजन ग्रहण करने के नियम का पालन द्रौपदी को करना पड़ा। अब है तो यह कथा मात्र लेकिन इस कथा में युग की सच्चाई प्रतिबिंबित होती है। चूंकि पुरुष परिश्रम के द्वारा अर्थोपार्जन करते थे इसीलिए भोजन पर पहला अधिकार उनका माना गया। उसके बाद जो कुछ बचता था उसे परिवार की स्त्रियाँ ग्रहण करती थीं। हाँ , बच्चों पर यह नियम लागू नहीं होता था। लेकिन परिवार में पोषक तत्वों पर पहला अधिकार बालकों का माना जाता था क्योंकि वे भविष्य के स्वस्थ और सामर्थ्यवान पुरुष में परिवर्तित होकर घर- परिवार के साथ सामाजिक दायित्वों का निर्वाह भी करते थे। बालिकाओं के लिए घी, दूध, फल आदि को आवश्यक नहीं माना जाता था क्योंकि सामाजिक अवधारणा यह थी कि उन्हें कौन सा खेतों में हल चलाना है या परिवार चलाने के लिए हाड़तोड़ परिश्रम करना है। बहुत से परिवारों में तो पोषक पदार्थ लड़कियों के लिए बाकायदा वर्जित ही थे। उस समय संभवतः लोग यह भुला देते थे कि यही बालिकाएँ भविष्य में माताएँ बनेंगी और अगर वही कुपोषित रहीं तो भला स्वस्थ बच्चों को जन्म कैसे देंगी। संभवतः इन्हीं कारणों और चिकित्सा के साधनों की कमी के कारण एक समय में प्रसव के दौरान माता और शिशु की मृत्यु के आंकड़े बहुत ज्यादा थे।
समय के साथ इन स्थितियों में थोडा परिवर्तन अवश्य आया है लेकिन इसके बावजूद अधिकांशतः मध्ययुगीन समाज से लेकर अब तक स्त्री वही खाती है जो सबके खाने के बाद बच जाता है, अब वह पेट भरने और पोषण देने में पर्याप्त हो या ना हो, समाज और परिवार को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। स्त्री समाज के किसी भी कोने की क्यों ना हो, उसे इन अलिखित नियमों को मानना पड़ता है। हाँ, कामकाजी स्त्री के संदर्भ में इन नियमों में समय के साथ थोड़ा बदलाव अवश्य आया लेकिन स्थितियाँ बहुधा और भयावह भी हुई हैं। दोहरी जिम्मेदारी की भूमिका निभाती तथाकथित आधुनिक स्त्री कई बार पति और बच्चों को खिलाने और उनका टिफिन सहेजने के बावजूद खुद ढंग से नाश्ता करने या टिफिन लेकर जाने का समय नहीं निकाल पाती है, फलत: आत्मनिर्भर होने के बावजूद वह अपने स्वास्थ्य के प्रति समयाभाव या सदियों के मानसिक अभ्यास के कारण सचेत नहीं हो पाती।
कुछ सामाजिक परिवर्तनों ने अवश्य स्त्री को चौके से निकाल कर भोजन की टेबल तक पहुँचा दिया है लेकिन बेहद आधुनिक परिवारों में ही वह घर के सभी सदस्यों के साथ भोजन करती नजर आती है अन्यथा सबके खाने के बाद ही खाती है। औरत की इस अन्नपूर्णा की छवि ने परिवार और समाज का कितना भला किया है, यह बिंदु बहसतलब है लेकिन इसने खुद औरत का बहुत अधिक नुकसान किया है, इसमें कोई दो राय नहीं। इसने औरत को त्याग की उस देवी में परिवर्तित कर दिया है जो अपनी भूख और प्यास के बारे सोचना तक भूल जाती है और पति और बच्चों के घर से बाहर रहने की स्थिति में कुछ भी खाकर पेट भर लेती है। अपने लिए कुछ विशेष पकाना और खाना उसे अपराध बोध से भर देता है। उसके मानस में सदियों से रोपे गये ये तथाकथित संस्कार और हमारे समाज की पितृसत्तात्मक संरचना ही स्त्रियों के कुपोषण के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है। अतः सखियों, जरूरी है कि हम स्त्रियाँ थोड़ा सा ही सही अपने स्वास्थ्य के बारे में भी सचेत हो जाएँ। स्त्री सफलता के किसी भी पायदान पर क्यों ना खड़ी हो जाए, रसोई की जिम्मेदारी हमेशा उसके सर पर टंगी रहती है। वह ताउम्र दूसरों के लिए हँसकर या रोकर भोजन पकाती है लेकिन खुद भर पेट खाती है या नहीं, इस पर किसी की नजर नहीं जाती। लेकिन सखियों, अब उसे खुद ही अपना ख्याल रखना होगा तभी उसका स्वास्थ्य सुधरेगा अन्यथा वह कुमार अम्बुज की कविता की स्त्री की तरह ताउम्र सिर्फ पकाती ही रहेगी, दूसरों के लिए, हर हाल में और स्वयं स्वाद और पोषण से मरहूम रहेगी। सखियों, आप भी पढ़िए यह उद्वेलित करने वाली कविता और अपना ख्याल रखना सीखिए।
“जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे – उफ इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो जमीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में
कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की
वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से पीठ से
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गँठिया
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।”