कोई भी संस्कृति, कोई भी सभ्यता तभी बची रह सकती है जब हम उसका महत्व समझें। यह बात समझने के लिए जरूरी है कि हम उसकी जड़ों को समझें। भारत की संस्कृति ऐसी है कि इसका सीधा रिश्ता प्रकृति से है। हम प्रकृति में ईश्वर को देखते हैं मगर ईश्वर की भक्ति में भी दायित्व बोध का होना जरूरी है। ऐसा कहने के पीछे एक प्रसंग है। अभी गंगा को लेकर एक कार्यक्रम में संगीतबद्ध प्रस्तुति देखने को मिली और कथाओं के सूत्र में पिरोकर गंगा के शब्दों में गंगा की व्यथा भी सामने आई। सच में, सोचने को विवश हो गयी। बात तो सही है कि धार्मिक आचरण और कर्मकांड में वाले देश में प्रकृति के प्रति और यूँ कहें कि ईश्वर के प्रति भक्ति भी दायित्व से रहित हो गयी है। हिमालय पर प्लास्टिक, गंगा में प्रदूषण, वन को लगातार काटने और हाई वे में तब्दील करने की संस्कृति जड़ पकड़ चुकी है। गंगा को माँ कहते – कहते हमने उसे कूड़ेदान बना दिया, बाकी नदियों की भी स्थिति यही है। अब जब सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगा है तो उम्मीद की जानी चाहिए हम पर्यावरण के प्रति सजग और सचेत होंगे और तभी हम अपने परिवेश का महत्व समझेंगे और प्रकृति सचमुच हमारी रक्षा करेगी। इस पर आगे जो होगा, वह सामने आएगा मगर इसकी शुरुआत मजबूत तभी होगी जब हम सजग होंगे और प्रकृति की रक्षा करना अपनी रक्षा करना है।