करोड़ों वर्षों से सजाया था
सपनों का ये आशियाना
मनुष्य की भावना पर कर विश्वास
सौंप दिया मनुज को यह पूरा हरा भरा संसार
सात्विक बन बैठे राजसिक तामसिक
जर्जरित विचार और चिंतन ने
घर की दिवारों में ही लगा लिया है सेंध
हवा-पानी धूप पर किया पूर्ण प्रहार
प्रकृति के संरक्षक ही बन बैठे सब भक्षक
प्रकृति नहीं रही अब मौन
कड़ी सुरक्षा के घेरे में बांध
मनुज को किया अधिकारविहीन
मृत्यु भय के पाश में जकड़ा
उसके ही हथियारों से उसको है मारा
तोड़ दिए सभी प्रेम के बंधन
प्रकृति तो जीवन प्रतीक है
उसे मारने वाले को वह
कभी क्षमा न करती
दैवीय शक्ति बन
छीन लेती उसका प्रभुत्व
आओ! आज कबूलें
जाने – अनजाने अपराध हमारे
पेड़ – पौधे नदी-नाले और पहाड़ों की भाषा को
नये सिरे से जाने-परखें
भारतीय संस्कृति तो प्रकृति पूजक है
क्यों न बचाएं फिर से अपनी धरती को
भूल आधुनिक धंधों को
आओ अपनी भूल सुधारें
जीवनदायिनी प्रकृति को गले लगाएं।