अंधों के दरबार में बहरे करते न्याय
जनता यूं रोए जैसे छूरी तले हो गाय।
प्रजातंत्र में हो रहा कैसा यह अन्याय
नेता चुननेवाले सब दूर खड़े पछताय।
रोज तमाशा होता है राजा के दरबार
संविधान की अस्मिता होती तार तार।
नारीपूजक देश का कैसा यह व्यवहार
बेटियों की अस्मत लुटती भरे बाजार।
रक्षक ही भक्षक बने तोड़ रहे कानून
मजलूमों के दर्द का खोया है मजमून।
दिल के सारे अरमां हो गये खूनमखून
रोटी रूखी खाने को बचा नहीं है नून।
कौन सुने फरियाद, किसे सुनाएं हाल
राजा मद में मत्त हो भूला अपनी चाल
भुला देश को नेता, चले अमीरी चाल
किलस रही है जनता बन कर कंगाल।
कौन बनेगा आज देश का तारणहार
चारों ओर मचा है, केवल हाहाकार।
जनता जब भी चेतेगी, होगी होशियार
तभी रोशनी आएगी, भागेगा अंधकार।