सुषमा त्रिपाठी कनुप्रिया
तिलिस्म कैसा भी हो, किसी का भी हो, टूटता है…। जब आप निरंतर सफल होते जाते हैं तो आप एक तिलस्मी दुनिया में जीते हैं कि आपको कोई हरा नहीं सकता, आप हमेशा लोकप्रिय बने ही रहेंगे और जब ऐसा होता है तो आप इसे स्वीकार करना नहीं चाहते और नतीजा यह अपनी ही गढ़ी दुनिया से बाहर निकलने का साहस आप खो बैठते हैं, सच को सच नहीं मानते । एक प्रश्न यह भी कि एक समय के बाद राजनीति में या किसी भी क्षेत्र में सेवानिवृत्ति को इतने बुरे तरीके से क्यों देखा जाता है? सत्य यह है कि शरीर में उम्र के साथ बदलाव आते हैं, आपके आस – पास की दुनिया बदलती है मगर आप चाहते हैं कि समय वहीं का वहीं ठहर जाए जो असम्भव है । एक समय के बाद अपनी क्षमता के साथ सीमा को भी स्वीकार कर लेना चाहिए। यह बात जब लिख रही हूँ तो देश में एक बार फिर मोदी युग तो लौटा है मगर सीटें बुरी तरह घटी हैं, विरोधी मजबूत हो रहे हैं। गठबंधन की राजनीति का युग लौट आया है, तुष्टीकरण की राजनीति बरकरार है। कभी संन्यास न लेने वाले नेताओं से परेशान युवा नेता दल बदल रहे हैं और एक तिलिस्म टूटने का समय आ चुका है । ऐसा लग रहा है कि देश की राजनीति जैसे करवट लेने जा रही है। यह समय है कि जब सभी वरिष्ठ नेताओं को अपनी मोह –माया त्यागकर परिवार के हित से ऊपर उठकर उस दल के हित के बारे में सोचना चाहिए जिसे आपने अपनी मेहनत से खड़ा किया है । वैसे कांग्रेस की बात करें तो पार्टी की नींव ए ओ ह्यूम ने डाली थी..स्वाधीनता संग्राम में भी गांधी की छाया तले यह पार्टी सिमटकर रह गयी, इसके सरोकार सिमटकर रह गये । तब नेहरू और इंदिरा का तिलिस्म था और आज मोदी का युग एक तिलिस्म है । मेरा मानना है कि राजनीति में भी आयु सीमा होनी चाहिए और 75 के बाद नेताओं युवाओं के लिए अपनी सत्ता छोड़नी चाहिए। मैं जो कह रही हूँ, अभी यह यूटोपिया ही है मगर इसी देश में यह परम्परा रही है। सत्ता में रहते – रहते मोह हो जाना स्वाभाविक है। दूसरों को कोसने से अपने पाप नहीं धुलते। यह पहली बार है जब नरेंद्र मोदी राजनीतिक पारी में असफलता का स्वाद चख रहे हैं। यह समय है जब उनको खुद आत्ममंथन की जरूरत है । विपक्ष में रहकर राहुल गांधी ने लगभग यही करने का प्रयास किया और 99 पर रहकर भी प्रगति की गुंजाइश बताती है कि वह बदल रहे हैं और जनता को समझ भी रहे हैं । अगर बंगाल की बात करें तो ममता बनर्जी के दल में भी युवा और वरिष्ठ की जंग तेज हो चुकी है और भविष्य में अभिषेक बनर्जी उनकी जगह लें या ऐसा न होने पर अपने लिए नयी राह खड़ी कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा..वैसे ममता ने भी तो कांग्रेस छोड़कर यही किया था ।
समय के साथ बदलना किसी के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समय की मांग भी है। घिसी – पिटी परम्पराएं और राजनीति जनता को बहुत लम्बे समय तक रास नहीं आतीं और इसके साथ एक बड़ी बात यह है कि परिवर्तन के लिए उठाए गए कदम कई बार समय से आगे के लिए होते हैं और यह ऐसी दोधारी तलवार है जो परिवर्तन लाने वाले का वर्तमान तो खत्म कर देती है मगर एक समय के बाद भविष्य उसका सम्मान जरूर करता है। सत्ता पाने का अर्थ शासक बन जाना नहीं होता अपितु जनता और सहयोगियों के साथ उन सबको साथ लेकर चलना भी होता है जिनको आप पसन्द नहीं करते । किसी भी प्रकार का परिवर्तन हो, क्रांति हो या इतिहास हो, अपने फायदे के लिए आप उसे रबर की तरह खींच नहीं सकते । यह सबसे बड़ा मिथक है कि कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति बहुत ताकतवर होता है, सत्य तो यह है कि सिंहासन पर बैठने वाले व्यक्ति की अपनी कोई शक्ति नहीं होती, वह सबसे अधिक निर्भर होता है दूसरों पर…कई बार तो उससे अधिक लाचार कोई नहीं होता । ऐसे व्यक्ति की सबसे बड़ी परेशानी यह होती है कि वह चाहे भी तो खुलकर रो नहीं सकता, वह किसी को बता नहीं सकता कि उसे भी जरूरत है क्योंकि बताने के लिए झुकने की जरूरत होती है और झुकना उसके लिए हार मानने जैसा होता है और सिंहासन पर बैठने वाला या लोकप्रियता के शिखर छूने वाला मनुष्य कभी हार नहीं मानता। अहंकारियों की विवशता यह है कि अकेला हो जाना उसकी नियति है। कबीर की चदरिया..ज्यों की त्यों धर दीनी..वाली पँक्ति को अपनाना उनको नहीं आता । यह सृष्टि के नियमों में समाहित अटल सत्य है कि अगर आपने पर्वत की चढ़ाई की है तो आपको उतरना भी होगा..अगर आपके जीवन में सफलता है तो असफलता भी होगी । ईश्वर की प्रार्थना किसी के जीवन से कष्ट हटाती भले न हो मगर वह उस व्यक्ति को इतना सक्षम बना तो देती ही है कि वह उन परिस्थितियों का सामना डटकर कर सके और चुनौतियों से जूझ सके। ईश्वर जब परीक्षण करते हैं तो रक्षण भी वही करते हैं । आपमें इतना सामर्थ्य होना चाहिए कि शिखर को छूते हुए ही आप शांति से शिखर को विदा कर सकें और अपने लिए एक ऐसे जीवन का चयन करें जिनमें आप हों…आपकी वह सभी दमित इच्छाएं हों जो सफलता के पीछे – पीछे भागते आप भूल चुके हैं । जीवन की दूसरी पारी भी होनी चाहिए…जहां आप एक साधारण जीवन जी सकें…स्व विकास कर सकें। स्व विकास का अर्थ हमेशा यह नहीं होता कि आपको हर एक दौड़ में प्रथम ही आना है । इतनी सारी बातें मैंने राजनीति और मनोरंजन की मायावी दुनिया के सन्दर्भ में कही तो हैं पर लागू वह हम सबके जीवन पर होती हैं । हर एक पेशे में सेवानिवृत्ति है…मगर राजनीति में नहीं क्यों?
जबकि आप अगर परम्पराओं की बात करें तो इसी भारतीय सनातन समाज में एक आश्रम वानप्रस्थ का भी है मगर यहाँ इसे आधुनिक सन्दर्भ में जोड़कर देखने की जरूरत है । इस देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम ने अपनी लोकप्रियता के बावजूद दोबारा चुनाव नहीं लड़ने का निर्णय लिया और वापस अपनी शिक्षण की पुरानी दुनिया में लौटे । अगर आप इस देश के विकास की बात कर रहे हैं तो मैं यह मानती हूँ कि सेवानिवृत्ति का अर्थ निष्क्रिय हो जाना नहीं होता अपितु आप अपने अनुभवों को नयी पीढ़ी को तैयार करने में लगा सकते हैं मतलब सेवानिवृत्ति आपके जीवन का एक और अध्याय है…जहाँ विश्राम है और मन की शांति भी…जहां आप अपने लिए जी सकते हैं। अब यह कर पाना किसी के वश की बात नहीं होती क्योंकि हर कोई आचार्य विष्णुकांत शास्त्री नहीं हो सकता । इसके लिए जल में कमलवत रहकर निष्काम कर्म करना जरूरी है और वह भी बगैर किसी अपेक्षा के मगर हम जिस युग में और जिस संसार में जी रहे हैं, वहाँ आरम्भ और अंत का प्रतिफलन और मूल्यांकन का आधार ही परिणाम है और वह भी विशेषकर पेशेवर कॉरपोरेट संसार में, चुनावी राजनीति में, खेल के मैदान में..परिवार में जहाँ अपने शब्द का अर्थ सिमटकर अपना कुनबा रह गया है। बच्चे माता – पिता को सर्वस्व मानते हैं मगर उसके आगे एक और दुनिया है..सम्बन्ध है, वह नहीं समझना चाहते..उनके लिए सिर्फ वही सम्बन्ध अच्छा है जो उनके माता – पिता के लिए अच्छा हो, फिर भले ही उनके माता –पिता कितने ही गलत क्यों न हों…। क्या आपको लगता है कि जो परिवार में ही निष्पक्षता का अर्थ नहीं समझ पा रहा, वह समाज में क्या निष्पक्ष होना सीखेगा और अगर नहीं सीखेगा तो वह देश को सही नेतृत्व कैसे देगा । विश्वास होना और विश्वास करना अच्छी बात है मगर यह मान लेना कि हम जिस पर विश्वास कर रहे हैं, वह गलत हो ही नहीं सकता..यह खुद को धोखा देने वाली बात है।
अब इस बात को अलग – अलग सन्दर्भ में समझा जाए…हमारा धर्म अच्छा है..यह अच्छी बात है मगर जब आप यह कहते हैं कि हमारा ही धर्म अच्छा है तो समस्या होती है । ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि जतो मत, ततो पथ…अगर इस मध्यमार्गी विचारधारा को हम साथ लेकर चलें तो जीवन की आधी से अधिक समस्याएं ही सुलझ जाएंगी । जब आप किसी पर हंसते हैं या किसी का मजाक बनाते हैं तो यकीन रखिए कहीं न कहीं, खुद को बहला रहे होते हैं, अपनी असुरक्षा को छिपा रहे होते हैं क्योंकि आप सत्य को स्वीकार करना ही नहीं चाहते…। जब आप सत्य को स्वीकार नहीं करते तो खुद से भागते हैं और हर उस मुद्दे को खारिज करते हैं जो हैं मगर वह आपके विरोध में हैं । अब इसे देश की राजनीति के सन्दर्भ में समझा जाए…यह राजनीति सिर्फ अस्वीकृति और एक दूसरे को खारिज करने पर तुली है जबकि सत्य यह है कि हर एक व्यक्ति में अच्छाई भी है, बुराई भी है, खूबियां भी हैं और खामियां भी हैं ।
यहां देश के हित में राजनीतिक स्तर पर वैचारिक संतुलन जरूरी है मगर सारे के सारे नेता एक दूसरे के दल को तोड़ने और नीचा दिखाने में व्यस्त हैं..फिर वह इस देश के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या विपक्ष के नेता राहुल गाँधी हों । सोनिया गांधी हों या बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हों..इनमें से कोई समझ नहीं पा रहा है कि आपके आचार – व्यवहार – आचरण पर इस देश की 140 करोड़ से अधिक जनता की ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की नजर है । आपका आचरण इस देश की छवि और इतिहास, दोनों गढ़ रहा है। पक्ष – विपक्ष, दोनों ने ही संविधान और धर्म…दोनों को तमाशा बनाकर रख दिया है और यह भूल गये कि जो ऊपर बैठा है, वह रिश्वत नहीं लेता। आप उसकी पूजा करें या न करें….वह देगा वही….आप जिसके लायक होंगे । इस देश की जनता को धर्म चाहिए मगर रोटी भी चाहिए और सिर पर छत भी चाहिए । ऐसी स्थिति में आप राम, शिव और शक्ति की आड़ में जरूरी मुद्दों को खारिज नहीं कर सकते। विकास के नाम पर विकल्प दिए बगैर किसी से सिर की छत नहीं छीन सकते । इस देश में न्यायालय हैं मगर आप न्यायाधीश नहीं हैं…आप अपराधी को दंडित कीजिए..अवश्य कीजिए मगर उसके अपराध का दंड आप समूचे परिवार को नहीं दे सकते क्योंकि जब बुलडोजर चलता है तो निर्दोषों के घर भी गिरते हैं…वह जिनका उस अपराध में दूर – दूर तक कोई भी हाथ नहीं था । अगर किसी प्रदेश में या देश में आपको शासन करना है तो सबसे पहले आपको वहां संगठन अपने दम पर मजबूत करना होगा। उधार के हथियारों से युद्ध नहीं जीते जाते मगर एनडीए लगातार यही कर रही है जबकि उसकी सीटें लगातार घट रही हैं। अब जब अयोध्या के बाद बद्रीनाथ भी भाजपा गंवा चुकी है तो उसे मान लेना चाहिए जनता तिलिस्म से उभर रही है। तिलिस्म किसी दल का हो या नेता का…वह कुछ वर्ष ही रहता है…हमेशा नहीं…हर बाद नरेंद्र मोदी आपको जीत नहीं दिला सकते । यह भाजपा का मंत्र है कि 75 पार के नेता मार्गदर्शक मंडल में आते हैं, फिर दो साल बाद मोदी भी 75 के हो जाएंगे। ईमानदारी का तकाजा तो यही है कि मोदी अब अपने लिए उत्तराधिकारी के चयन की प्रक्रिया आरम्भ कर दें वरना आडवाणी, जोशी और वाजपेयी ने जिस तरह नेपथ्य में रहना चुना, वह एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्परा की जरूरत है । भाजपा को अब एक युवा नेतृत्व की जरूरत है जो डंडे के जोर पर ननहीं बल्कि जनता को साथ लेकर काम करना चाहे । यह वही देश है जहां भरत ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने एक भी पुत्र को नहीं चुना और आज हजारों वर्ष बाद यह वही देश है जहां परिवार और संतान से आगे इस देश की राजनीति को कुछ दिखता ही नहीं । परिवारवाद हर जगह है, भाजपा से लेकर कांग्रेस तक, बसपा से लेकर तृणमूल तक…सब के सब परिवार प्राइवेट लिमिटेड में परिणत हो चुके हैं। निश्चित रूप से यह उन तमाम सर्मथकों और कार्यकर्ताओं के साथ इस देश की जनता का अपमान है जिनमें मेधा की कोई कमी नहीं । नेपोटिज्म हर जगह है, सिर्फ बॉलीवुड को दोष देना समस्या का समाधान नहीं है। यह बात बंगाल के नतीजों से भी स्पष्ट हो चुकी है मगर जो गलती एनडीए कर रही है, वही गलती ममता बनर्जी और राहुल भी कर रहे हैं। जब आप हिंसा को हिन्दुओं से जोड़ते हैं तो चोट लगती है। जब आपके प्रदेशों में तुष्टीकरण के लिए अपराधियों को बढ़ावा दिया जा रहा हो और अपना पक्ष चुनने वालों को पीटकर मार दिया जाता हो, तो आप बम्पर जीत हासिल करके भी कुछ नहीं पाते । जिस प्रकार देश को संविधान हत्या दिवस की कोई जरूरत नहीं, उसी प्रकार देश को संविधान के नाम पर किसी तमाशे की जरूरत नहीं थी । जब आप सेना से आतंकी कार्रवाई को लेकर सबूत मांगते हैं तो वह पूरे देश का अपमान होता है । संसद आंखमिचौली और गलबहियां करने की जगह नहीं है। वह ऐसी जगह नहीं है कि आप हिन्दुत्व का मुद्दा जबरन उठाएं। आपको कोई अधिकार नहीं कि किसी के धर्मग्रंथ या किसी की संस्कृति की आड़ में परिहास करें जबकि संस्कृति और धर्म भारतीयता की आत्मा है । मीडिया पर हमला बोलने से आपकी अपनी गलतियां नहीं छुप सकतीं । आप स्वीकार कीजिए या नहीं कीजिए …मगर आपको स्वीकार करना होगा कि आप जिससे घृणा करते हैं, वह एक संवैधानिक पद पर आसीन है और उस पद का सम्मान करना आपका संवैधानिक दायित्व है मगर बंगाल में दीदी और राज्यपाल के बीच जिस प्रकार की खींचतान चल रही है, वह बेहद विकृत रूप ले चुकी है। राज्यपाल का चरित्र हनन करना किसी संवैधानिक पद पर बैठी नेत्री को शोभा नहीं देता और न ही अपराधियों को प्रश्रय देना ही सही है।
अम्बानी के बेटे की शादी में व्यस्त मीडिया बहुत जरूरी मसलों को भूलती जा रही है। विज्ञापन किसी भी संस्थान की आवश्यकता होता है मगर आपकी प्राथमिकता आपकी जनता ही होनी चाहिए । खबरों के नाम पर किसी के व्यक्तिगत जीवन की धज्जियां उड़ा देना पत्रकारिता नहीं है । किसी का जबरदस्त महिमा मंडन और किसी निर्दोष को खलनायक बना देना पत्रकारिता नहीं हो सकता । किसी की पीड़ा आपके लिए तमाशा नहीं होनी चाहिए । यह एक मिथक है कि जनता जो चाहती है, वही हम छापते हैं । वस्तुतः जनता की रुचि को सात्विक बनाना आपके काम का हिस्सा है । हालांकि इस काम के खतरे बहुत हैं मगर एक बात तय है कि लोग अन्त में उसे ही चुनेंगे जो उनके हित की बात करेगा और उसे लागू करेगा ।
अगर आप मुफ्तखोर हैं और मुफ्त का राशन पाने के लिए वोट दे रहे हैं तो भूल जाइए कि आपको कोई अच्छी सरकार मिलेगी। अगर जाति और धर्म के नाम पर आप किसी अपराधी को मजबूत कर रहे हैं तो आप नागरिक नहीं बल्कि अपराधी हैं । अगर आप चुनाव को छुट्टी का दिन मानते हैं तो आप व्यवस्था पर उंगली उठाने का अधिकार खो चुके होते हैं इसलिए जब आपका मन मीडिया को, नेताओं को, व्यवस्था को गरियाने का करे तो एक बार आइने के सामने जरूर खड़ा हो जाइए और अपने गिरेबान में झांकने की कोशिश कीजिए क्योंकि व्यवस्था आम आदमी के विचारों का प्रतिबिम्ब है, और कुछ नहीं ।