मनुष्य आदिकाल से ही प्रकृति का पुजारी रहा है। पशु से मानव बनने के क्रम में मनुष्य ने जब अपने बुद्धि एवं विवेक का प्रयोग करना सीखा होगा,तब दूर आसमान में चमकते सूर्य एवं चंद्रमा को नियमानुसार उगते एवं अस्त होते हुए देखा होगा। यह उनके
किसी चमत्कारी अजूबे से कम नहीं होगा। और धीरे-धीरे मनुष्य प्रकृति पुजारी बना होगा। इसी क्रम में परम्पराओं का जन्म एवं विकास हुआ होगा और समय के अंतराल में इन्हीं के मूल में विकसित हुई आस्थाऍं एक दिन विशाल वटवृक्ष की भॉंति जन समूह के हृदय में अपनी जड़ें गहरी और गहरी करतीं गईं।इस तथ्य का जीवंत उदाहरण ‘छठ पूजा’ जो कि कुछ वर्षों से महापर्व के रूप में सामने आया है, के रूप में हम देख सकते हैं।
यह पर्व सूर्य के अस्ताचल एवं उदयाचल के पूजन का पर्व है। यह पर्व प्रकृति पूजन का पर्व है। यह पर्व जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलूओं का पर्व है कि जीवन में यदि संध्या रूपी अंधकार है तो सूरज की नवीन किरणों के साथ फैलता प्रकाश भी है। यह पर्व प्रतीक है इस सच्चाई का कि संसारिक लोग केवल उगते सूरज की आराधना नहीं करते अपितु डूबते सूरज को भी सम्मान पूर्वक विदा करते हैं ताकि पुनः एक नवीन सूरज का आगमन हर्षोल्लास के साथ कर सके।
मेरा जन्म तकरीबन तैंतालीस वसंत पूर्व महादेव की नगरी में हुआ था। पहले बारह वसंत बनारस में व्यतीत हुआ। इस दरम्यान होली,दीपावली, तीज,कजरी आदि अनेकों त्योहारों के संस्कार हृदय में गहरी पैठ बना चुके थे किन्तु छठ पूजा से परिचय अभी शेष था ।तत्पश्चात् मॉं के साथ महाकाली की नगरी में आना हुआ।
बाड़ी में बनारस का एक परिवार और शेष जन छपरा, बलिया, आरा आदि राज्यों से थे। यहॉं पहली बार छठ का नाम एवं गीत सुना जो आज भी दीपावली के पश्चात अनायास ही गुनगुनाने लगती हूॅं। इस गीत के मुखड़े से शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा-‘कॉंच ही बॉंस के बंहगिया’और ‘छोटी-मोटी हमरो अंगनिया’। मेरे घर में कोई यह व्रत नहीं रखता था लेकिन पड़ोसियों के घर किया जाने वाला यह पर्व अपने घर सा लगता था। राह में मिलने वाले मनौती वाले व्रतियों के पॉंव छूते हुए घाट तक जाना(भले ही उनसे भूत या भविष्य में कोई लेना देना न हो) , व्रतियों के वस्त्रों को झपट कर धोना हम अपना परम कर्तव्य समझते थे। ये बचपन के वे पहलू हैं जो आज भी हृदय में इस प्रकार संग्रहित हैं मानों कोई अनमोल खजाना। यही वे संस्कार है जो हम अपनी आने वाली पीढ़ी में सींचते हैं।
इस पर्व के महात्म्य पर बहुत कुछ कहा एवं लिखा गया है, कुछ लोग इसका प्रारंभ त्रेता युग में माता सीता से जोड़कर देखते हैं तो कुछ लोग द्वापर युग में द्रौपदी से जोड़कर, वहीं कुछ लोग यह मानते हैं कि प्राचीन काल में निम्न वर्ग के लोगों को मंदिर में प्रवेश निषेध था अतः एक गांव में एक समुदाय विशेष के लोगों ने तालाब में जाकर सूर्य देव की आराधना शुरू की। वास्तविकता जो भी हो किन्तु यह अटल सत्य है कि युग चाहे जो भी हों प्रकृति सदैव पूजनीय रही है और रहेगी।
भौतिकवादी इस युग में भी, प्रकृति से छेड़छाड़ कर मनुष्य अपने अस्तित्व की सुरक्षा कभी नहीं कर पाएगा। इन धार्मिक अनुष्ठानों के पीछे छिपे उद्देश्य को समझकर पर्यावरण के हर एक अंग को सुरक्षित रखने का सफल प्रयास करना होगा।
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