Wednesday, April 2, 2025
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खुशहाल समाज ही खुशहाल विश्व का निर्माण कर सकता है

अंजू सेठिया

प्रकृति हर रूप में , हर ऋतु में ,अपना अद्भुत सौंदर्य बिखेरती है। जहां बारिश की बूंदों के साथ मिट्टी की खुशबू मिलकर अलग ही सोंधी महक से हर दिल दिमाग को तरोताजा करती है। वहीं सर्दी की ऋतु में खिड़कियों में से छन- छन कर आती हुई धूप सूर्य देवता के वरदान स्वरुप लगती है । गर्मी का मौसम जो लगभग सभी के द्वारा तिरस्कृत होता है कि यह कैसा मौसम है हर समय हम पसीने से लथपथ रहते हैं लेकिन उस मौसम में भी प्रकृति ने तो सफेद और पीले छोटे छोटे फूलों से वृक्षों को बड़ी ही खूबसूरती से सजाया है, लेकिन हमारा मन तो गर्मी में ही अटक कर रह जाता है और हम उस सौंदर्य का आनंद ही नहीं ले पाते जो गर्मी की ऋतु का अपना होता है। गर्मी में भले ही हम कितने ही पंखे, एसी और कूलर चला लें लेकिन जो हवा हमारे आसपास के हरे भरे वृक्षों से आती है वह ठंडी लहर अंदर एक अलग ही सुकून और शांति भरती है। वैसी शांति ,कोई भी हमारे द्वारा निर्मित उपकरण नहीं दे पाता ।

अगर हम सभी उम्र के किसी भी पड़ाव पर हों और सोचें तो हमारी स्मृतियों में गर्मी की ऋतु सबसे अधिक होगी क्योंकि वह ॠतु ही होती थी जब हम अपने स्कूल से एक लंबी छुट्टियां पाते थे और अपने मनपसंद नाना नानी और दादा-दादी के घरों में जाते थे ,और वहां सभी भाई बहनों का मिलकर रहना और भूल जाना कि कौन मम्मी है, कौन चाची है या कौन मासी है या कौन बुआ है। सबसे समान रूप से प्यार पाना, समान रूप से डांटखाना और समान रूप से उनके द्वारा बनाई हुई चीजों का आनंद लेना सचमुच अतुलनीय है ।
कोलकाता में रहते हुए मैं आज भी सबसे ज्यादा अगर किसी चीज को मिस करती हूं तो वह है श्री डूंगरगढ़ का वह खुला आसमान जहां हमने अपनी गर्मी की रातों को आसमान में तारों को निहारते हुए बिताया था और कब हम तारों को गिनते हुए नींद के आगोश में चले जाते थे, पता ही नहीं चलता था। और जब उठते थे तो तरोताजा होकर उठते थे ,तब लगता ही नहीं था कि गर्मी भी कुछ होती है क्योंकि वे दिन हमें सबसे प्यारे लगते थे। कोलकाता जैसे महानगरों की ऊंची ऊंची बिल्डिंग और अट्टालिकाओं ने उस आसमान की अनंतता और खुलेपन को पता नहीं क्यों हमसे छीन लिया है ।मैं तो तरस जाती हूं उस आसमान को देखने के लिए जहां चांद और सूरज अपनी अठखेलियां करते हैं ,और झिलमिलाते तारों से आसमान एक दुल्हन के रूप में सज जाता है ।कभी-कभी लगता है हमारा बचपन कम संसाधनों में भी कितना खुशहाल था, छोटी छोटी खुशियां हमें हर पल खुश रखती थी। फिर वह दस पैसे की कुल्फी के लिए पूरी गर्मी की दोपहर इंतजार करना हो या शाम को छत पर पानी छिड़ककर छत को इतना ठंडा कर लेना कि रात को सोते समय वहां ठंडी- ठंडी हवा चले। यह सब हमारे लिए हिल स्टेशन पर जाने जितने अनमोल पल होते थे क्योंकि हमारे उस वक्त में हमें हर पल खुश रहना सिखाया था क्योंकि हम संसाधनों के मोहताज नहीं थे ।हमारे बचपन के दोस्त हमारी सबसे बड़ी पूंजी होते थे। जिनके साथ हम लड़ना झगड़ना फिर से एक होना करते रहते थे। और मुझे तो जहां तक याद है मैंने 25 साल की उम्र के बाद जाना कि तनाव किसे कहते हैं या तनाव या डिप्रेशन भी कोई चीज होती है और आज तो हालात यह है कि छोटे-छोटे बच्चे तनाव का शिकार हो रहे हैं ।आखिर फिर हम क्या कर रहे हैं ?हम उन्हें आधुनिक संसाधन उनके हाथों में देकर खुशहाल बनाना बनाना चाहते हैं या तनाव में डालना चाहते हैं ?हम तो सोचना ही नहीं चाहते।

काश कि हम अपने बच्चों को प्रकृति के सानिध्य में खुश रहना सिखा पाते। चलती हुई ठंडी हवा को महसूस करवा पाते। आम के वृक्षों से आने वाली मीठी खुशबू का आनंद क्या होता है ,वह बता पाते ।कोयल की कूक और चिड़ियों की चहचहाहट को सुनना सिखा पाते हैं ।जो वे यह सब महानगरों के भागदौड़ भरी जिंदगी और कोलाहल में सुन ही नहीं पाते। और एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में बचपन की वह मासूमियत भूल जाते हैं, जिसमें खेल का आनंद उठाना फर्स्ट आने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है ।काश मासूम बचपन मोबाइल मैं देखने वाले कार्टून चरित्रों या कहानियां सुनने की जगह अपनी दादी नानी या घर के बड़ों से कहानी सुनकर खुद कल्पना कर पाता उन चरित्रों की, और उस कल्पना से खुद कहानियां बनाना सीख पाता और अपने अंदर की नैसर्गिक प्रतिभा को बाहर ला पाता।

आओ हम सब एक ईमानदार कोशिश करें हमारे नौनिहालों और आने वाली पीढ़ी के लिए जिससे वे तनाव रहित और सुंदर जीवन जी सकें। जिसमें बड़ी खुशियों के लिए छोटी-छोटी खुशियों को नकारना नहीं बल्कि उन खुशियों को हर पल महसूस करते हुए आगे बढ़ते जाना सिखाएं क्योंकि एक विकसित समाज अत्याधुनिक तकनीकी के कारण विकसित नहीं कहा जाता बल्कि खुशियों के साथ जीने वाले समाज को विकसित कहा जाता है।

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