जगतगुरु स्वामी रामानंदाचार्य के बारह शिष्यों में से एक संत कबीर सभी से अलग थे। उन्होंने गुरु से दीक्षा लेकर अपना मार्ग अलग ही बनाया और संतों में वे शिरोमणि हो गए। कुछ लोग कबीर को गोरखनाथ की परम्परा का मानते हैं, जबकि उनके गुरु रामानंद वैष्णव धारा से थे। लेकिन कबीर साहिब ने धर्मों के पाखंड पर प्रहार कर तात्कालिक राजा और हिंदू तथा मुसलमानों के धर्माचार्यों को क्रुद्ध कर दिया था, परंतु रामानंद के कारण उन पर सीधे वार करने से सभी डरते थे। संत कबीर ने जो मार्ग बनाया था वह निर्गुण ब्रह्म की उपासना का मार्ग था। निर्गुण ब्रह्म अर्थात निराकार ईश्वर की उपासना का मार्ग था। लेकिन जैसा कि होता आया है संत कुछ समझाते हैं और अनुयायी कुछ और समझ थे। उन्होंने तो मार्ग ही बनाया था लेकिन अनुयायियों ने पंथ बना दिया।
अब इस पंथ के लोग पहले तो एकेश्वरवादी होकर निर्गुण ब्रह्मा की उपासना ही करते थे। उसी के अनुसार भजन गाकर उस परमसत्य का साक्षात्कार करने का प्रयास करते थे। इसका अर्थ यह कि ये मूर्ति की पूजा नहीं करके वे वेदों के अनुसार निकाराकर सत्य की ही मानते थे लेकिन बाद में ये मूर्ति पूजकों का विरोध भी करने लगे। इस प्रकार एक नई राह बनने लगी।
कबीरपंथी ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना करते हैं और किसी भी प्रकार के पूजा और पाठ से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति को ही सर्वोपरी मानते हैं। माना जाता है कि इस पंथ की बारह प्रमुख शाखाएं हैं, जिनके संस्थापक नारायणदास, श्रुतिगोपाल साहब, साहब दास, कमाली, भगवान दास, जागोदास, जगजीवन दास, गरीब दास, तत्वाजीवा आदि कबीर के शिष्य हैं।
शुरुआत में कबीर साहब के शिष्य श्रुतिगोपाल साहब ने उनकी जन्मभूमि वाराणसी में मूलगादी नाम से गादी परंपरा की शुरुआत की थी। इसके प्रधान भी श्रुतिगोपाल ही थे। उन्होंने कबीर साहब की शिक्षा को देशभर में प्रचार प्रसार किया। कालांतर में मूलगादी की अनेक शाखाएं उत्तरप्रदेश, बिहार, आसाम, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों में स्थापित होती गई। दरअसल, कबीर पंथ निर्गुण उपासकों का पंथ है जिसमें किसी भी समाज का व्यक्ति सम्मिलित हो सकता है।