गतांक से आगे
निर्ग्रन्थ’ कविता संग्रह की कविताओं में सत्य अन्वेषी सर्वोदय तीर्थ के प्रवर्तक महावीर की देशना की युगीन निशीथ की संभाव्य उषा है। निर्ग्रन्थ अनुकंपा के परम क्षण की प्रतीक कृति है। कवि का मानना है कि वे नैपथ्य में चेतना की विपंची पर झंकृत प्रभाती की लय को स्पष्ट सुन रहे हैं। वे कहते हैं – मर्म मुझे दो आत्म धर्म का /जीवन बने पवित्र /करुँ स्वयं पर अनुकंपा मैं पकड़ तुम्हारा पंथ! (निर्ग्रन्थ पृष्ठ 26)
‘निर्ग्रन्थ’ कविता में कवि स्पष्ट कहते हैं कि नहीं दबे /अढ़ाई हजार वर्षों के /मलबे के तले /महावीर। पृष्ठ 11नि।
लड़ना पड़ता है अर्हत बनने के लिए क्योंकि यह स्वयं की स्वयं से लड़ाई है।बौद्ध धर्म में अर्हत वही है जिसने अस्तित्व की यथार्थ प्रकृति का अंतर्ज्ञान प्राप्त कर लिया हो जिसे निर्वाण प्राप्त हो चुका है।
कवि का जैन धर्म के प्रति अगाध विश्वास है क्योंकि जैन की उत्पत्ति जिन से मानी गयी है जिसका अर्थ ही है विजेता। विजेता वह है जिसने अपनी इच्छाओं कामनाओं और मन पर विजय प्राप्त कर ली हो एवं हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली हो। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर की देशना ही हमें इस संसार के बंधनों से मुक्त कर सकती है। राजकुल में जन्म लेकर भी उस मुक्ति के मार्ग पर चलकर महावीर बनते हैं।
अपने पितामह रूपचंद जी सेठिया और पितामही जडा़व देवी जी सेठिया को समर्पित निर्ग्रन्थ कविता संग्रह पूर्णतः महावीर की देशना के प्रति विश्वास की है। – – स्व की स्फुरणा/टूट जाएगी /घनीभूत मूर्च्छा /नहीं है गहरी! /असत् की जड़ /पुरुषार्थ की पकड़ में है /श्रेयस् का पंथ /अनुबंधित है/गति से /मील का अंतिम पत्थर /सिद्ध शिला! पृष्ठ 16 निर्ग्रन्थ ।
जैन धर्म में सिद्ध शिला उत्कृष्ट 525 धनुष का अवगाहन करने वाले सिद्ध भगवान आठ कर्मों से छूटकर सम्यकतत्व दर्शन ज्ञान आदि अनंत गुणों के सागर स्वरूप अरूपी अशरीरी नित्य निरंजन कृत्कृत्य होकर एक ही समय में युग पत् तीन लोक तीन कालवर्ती समस्त पदार्थों को जान लेते हैं और अनंत सुख सागर में स्थित सदा के लिए निमग्न हो जाते हैं। सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र रूप रत्नत्रय हैं जिनके बल से कर्मौ का नाश करके स्वयं ही अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं यही सिद्धावस्था है – ‘सिद्ध स्वात्मोलब्धि’ इसके लिए सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है तभी सिद्धावस्था प्राप्त की जा सकती है।
महावीर ने – महाभिनिष्क्रमणः के लिए किसी के जगने की प्रतीक्षा या किसी की नींद की प्रतीक्षा नहीं की वे—स्वयं जागे /जगाया वातावरण। पृष्ठ 17नि।
महावीर से संबंधित सभी देशना को कविता में स्थान दिया गया है और यह स्पष्ट माना कि सत्य का अनुसंधान करने वाला हर मनुष्य विजेता बन सकता है। यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है।
अपरिग्रह, णमोकार मंत्र, वीतराग भगवंत, विस्मृति, विभाजित व्यक्तित्व, अच्युत, ईश्वर, अर्थवत्ता, अंखुवाया दर्शन, प्रश्न हुए उत्तर, फगुनाया क्षण आदि कविताओं में छोटी-छोटी उपमाएं देकर कवि ने चित्त की विविध स्थितियों को उजागर किया है। लहरों की सिलवटें, अनगाई ग़जल उगी, अंसुवाया बादर, निंदियाया अम्बर आदि बहुत से शब्दों के नये प्रयोग कवि ने बड़े प्यार से किए हैं । अपनी भावनाओं को समवेत रूप से उड़ेला है अपने शब्दों को प्रेम से सहलाया है।
पाश्चात्य की आंँधी में हम दिगम्बर महावीर, भिक्षु बुद्ध और लंगोटी पहने गांधी की शिक्षाओं को भूलते जा रहे हैं। कवि दुखी है कि चेतना के चिंतन को इंद्रियाँ ठहरने नहीं देतीं। उसके लिए यूंँ ही बाँसुरी के छिद्रों पर अंँगुलियों को रखे बिना प्रणय की रागिनी नहीं निकलेगी। परिश्रम के बिना मस्तिष्क व्यर्थ हो जाता है। पृष्ठ 61-62नि।
तुम और मैं ‘कविता ‘अहं ब्रहास्मि ‘की ही बात कहती है।
‘चेतना का क्षण’ उजाला का अहसास है। उस स्थिति में शब्द यानि ब्रह्म में सोया अक्षर जाग उठता है। तथागत वही है जो’ अनागत /निरवधि/ जिसकी /उपलब्धि/ वह तथागत ‘पृष्ठ 89 नि।’ विभूति’ कविता में कवि ने जगत की उपस्थिति को भी अपेक्षित भूति नहीं माना है। शंकराचार्य ने भी इसी जीव को चेताने के लिए ‘ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या , जीवो ब्रह्मैव नापरःकहा। इस आभासी जगत में कवि जीवों को सत्यम् शिवम् और सुंदरम् से साक्षात्कार कराना चाहता है।