हमारे पारम्परिक भारतीय साहित्य, मसलन वेदों, उपनिषदों में ऋषियों का महिमा का गुणगान खूब हुआ है…मगर बात जब स्त्रियों की आती है तो समानता और उन्नति के दावे करने वाले भी ऋषिकाओं के प्रश्न पर या स्त्री विद्वानों के प्रश्न पर मौन साध लेते हैं। ऐसे में यह आलेख खोजते हुए मिला और हमें लगा कि यह तो शुभजिता के पाठकों तक पहुँचना ही चाहिए…इस लेख का मूल लिंक भी हम दे रहे हैं….और यह खोज जारी रहेगी…फिलहाल यह ज्ञान और तथ्यों से भरा आलेख आपके लिए लेखक को साधुवाद के साथ –
डॉ. दोलामणि आर्य
प्रस्तावना
किसी भी युग अथवा देश की परिष्कृत सामाजिक व्यवस्था तथा उससे सम्बद्ध दृष्टिकोण का यथार्थ एवं वास्तविक मूल्यांकन नारियों की स्थिति और उनके विषय में प्रचलित धारणाओं के अवलोकन के बिना पूर्ण नहीं हो सकता है। वेदों में नारी की दशा उच्च अथवा दयनीय थी? इसका विश्लेषण ऋग्वेद में प्राप्त सन्दर्भों के आधार पर किया जा सकता है। ऋग्वेदीय सूक्तों में उपलब्ध सामग्री के अनुसार वेदों में नारी का स्थान अत्यन्त उत्कृष्ट गौरवपूर्ण और पूजनीय है। यदि इस प्राचीनकाल की स्थिति की तुलना संसार के अन्य समाजों से की जाये तो ऐसा गौरवपूर्ण वर्णन संसार के किसी भी समाज में उपलब्ध नहीं होता। प्राचीन सनातन वैदिक परम्परा में स्त्रियों की अध्ययनवृत्ति का प्रामाणिकता पूर्ण उल्लेख बृहद् देवता में ब्रम्हावादिनी ऋषिकाओं के वर्णन से सुस्पष्ट ज्ञात होता है।
घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत् ।
ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादितिः।।
इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती।।
श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक् श्रद्धा मेधा च दक्षिणा।
रात्री सूर्या च सावित्री ब्रम्हावादिन्य ईरिताः।।
इस परम्परा के अनुसार ऋग्वेद में प्राप्त अनेक सूक्तों का दर्शन करने वाली द्रष्ट्री ऋषि स्त्री है। यद्यपि पुरुष ऋषियों की तुलना में संख्यात्मक दृष्टि से इनकी स्थिति नाममात्र है तथापि अनेक ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ भी पुरुष ऋषियों के समान स्वतन्त्र रूप से देवता की स्तुतियाँ करती थीं और देवों का सोमपान के लिए आह्वान किया करती थीं। वेदों में प्रवचन करने वाली तथा सत्य का उद्घाटन करने वाली दो प्रसिद्ध देवियों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनके पुत्र भी विद्वान थे। वैदिक मन्त्रों तथा सूक्तों का अनुशीलन करने पर स्पष्टतः ज्ञात होता है कि वेद के कुछ सूक्त तथा मन्त्रों की द्रष्ट्री ऋषि ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ थीं, इसमें कोई मतभेद नहीं है। पुरुष ऋषियों के समान ही उनके महत्वपूर्ण अवदान अविस्मरणीय हैं। सामान्यतः जैसे वेदों में मनुष्य ऋषित्व तथा देवता ऋषिच्व उल्लिखित प्राप्त होता है, वैसे ही वैदिक ऋषिकाओं को भी तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जिसका संकेत बृहद् देवता में भी प्राप्त होता है।
(1) मनुष्य ऋषिकात्व
ऋग्वेद में ऋषिकाओं के नाम से जो ऋचाएं संगृहीत हैं, उनमें से कुछ ऋषिकाएँ अवश्य ही मनुष्य थीं। इस वर्ग की ऋषिकाएं इस प्रकार हैं –
घोषा – कक्षीवान् ऋषि की पुत्री, इन्हें आश्विन देवताओं की स्तुति सम्बन्धित दो सूक्तों का द्रष्ट्री ऋषि माना गया है।
अपाला – ऋग्वैदिक ऋषिकाओं में से अपाला का नाम अन्यतम है। सायण ने भी इसे अत्रि की ब्रम्हावादिनी पुत्री तथा ऋषिका माना है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में इनके द्वारा द्रष्टा ऋचाओं का संग्रह प्राप्त होता है जिसमें इन्द्रस्तव से स्वकुष्ठ व पिता का गंज रोग मिटाती हैं।
रोमशा – देवगुरु बृहस्पति की पुत्री तथा भावयव्य की पत्नी रोमशा ऋषिका द्वारा द्रष्ट ऋचाओं का संग्रह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में प्राप्त होता है –
‘ उपोप में परामृश मा मे दभ्राणि मन्यथा।
सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका।।’
विश्ववारा – अत्रिगोत्रा विश्ववारा एक ऋग्वैदिक ऋषिका हैं, इनके ऋचाओं का संग्रह ऋग्वेद के पंचम मण्डल में पाया जाता है। इन ऋचाओं में नारी को अग्निवन्दना तथा पति को प्राजापत्याग्नि की रक्षा का उपदेश दिय़ा गया है।
लोपामुद्रा – एक वैदिक मन्त्र द्रष्टी ऋषिका के रूप में लोपामुद्रा का वर्णन ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में प्राप्त होता है। लोपामुद्रा वशिष्ठ के भाई अगस्त्य ऋषि की पत्नी थीं।
शाश्वती – अंगिरा की दुहिता, आसंगनृप की जाया एक ऋषिका थीं। इसका उल्लेख ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में प्राप्त होता है।
ममता – दीर्घतमा की माता। अग्नि की स्ताविका ऋषिका। इन्होंने ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में अग्नि की सुन्दर स्तुति की है।
उशिज – दीर्घतमा की पत्नी, कक्षीवान की माता, दीर्घश्रवा की भी माता।
शची पौलोमी – शची पौलोमी नामक ऋग्वैदिक ऋषिका के ऋचाओं का संग्रह ऋग्वेद के दशम मण्डल में पाया जाता है। इसमें चित्रित की गयी वीर नारी की ओजस्विनी वाणी विशेष ध्येय है –
उदसौ सूर्यो अगादुदयं मामको भगः।
अहं तद्विद्वला पतिमभ्यसाक्षि विषासहिः।।
सूर्य के उदय होने के साथ – साथ मेरे सौभाग्य की भी वृद्धि हो रही है। मैं अपने पतिदेव को प्राप्त करके विरोधियों को पराजित करने वाली तथा सहनशील बनूँ।
इनके अतिरिक्त सिक्ता – निवावरी तथा वसुकुपत्नी आदि ऋषिकाओं का भी ऋग्वेद में उल्लेख प्राप्त होता है।
मनुष्येतर ऋषिकात्व
मनुष्यों के समान ही मनुष्य से भिन्न प्राणियों का भी ऋषिकात्व स्वीकार किया गया है। इनमें से कुछ प्रमुख मनुष्येतर ऋषिकाएं इस प्रकार हैं –
सर्पराज्ञी – तैत्तिरीय संहिता के अनुसार ऋग्वेद 10.1.89 सूक्त की द्रष्ट्री ऋषि सर्पराज्ञी या सार्पराज्ञी हैं। इस सूक्त में कुल 3 मंत्र हैं। कुछ विद्वानों के मत में इस सूक्त का देवता भी वही है, जबकि दूसरे कुछ विद्वान जैसे सायण आदि यहाँ सूर्य को देवता मानते हैं।
सरमा – देवशुनी
ऋग्वेद के कुछ मन्त्रों में देवों की कुतिया (देवशुनी) सरमा को ऋषिका माना गया है। इस सूक्त में पाणियों का सरमा के साथ संवाद वर्णित है। इसीलिए ‘यस्य वाक्यं स ऋषिः’ के नियमानुसार सरमा की उक्ति के रूप में जो मन्त्र हैं, उनकी ऋषिका सरमा देवशुनी है। इस विषय में सायाण का कथन ध्यातव्य है – “अत्र त ऋषयः सरमा देवता द्वितीया चतुर्ध्याद्या युज एकादशी च षट् सरमाया वाक्यानि।”
देवताओं का ऋषिकात्व
ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों एवं सूक्तों में अग्नि आदि देवताओं को, जो अन्य मन्त्रों में स्तुत्य़ देवे हैं, ऋषि माना गया है। इनमें से कुछ देवियाँ हैं, जिनको ऋषिका माना जाता है। इनमें से श्रद्धा कामायनी, इन्द्राणी आदि प्रमुख ऋषिकाएँ इस प्रकार हैं –
सूर्या – सावित्री – सूर्या को ऋग्वेद में देवी तथा ऋषिका, दोनों रूपों में उल्लिखित किया गया है। सावित्री यह विशेषण ऋग्वेद 10.85 के ऋषि विषयक उल्लेख में सूक्तों की ऋषिका सूर्या के साथ प्रयुक्त हुआ है। इस सूक्त में सूर्या ने अपने पति सोम की महिमा का तथा अन्य ऋग्वेद 10.85.6-16 तक के मन्त्रों में अपने विवाह का उल्लेख किया है। इस सूक्त विषयक विषयवस्तु का विस्तृत वर्णन वृहद् देवता में इस प्रकार प्राप्त होता है –
सावित्री चैव सूर्या च सैव पत्नी विवस्वतः।
स्तुता वृषाकपायीति उषा इति च योच्यते।।
उषा एषा त्रिधात्मानं विभज्य प्रैति गोपितम्।।
अदिति – ऋग्वेद के दशम मण्डल में अदिति दाक्षायणी के द्वारा द्रष्ट्र ऋचाओं का उल्लेख मिलता है। पांच मन्त्रों वाले इस सूक्त में कहा गया है – हे दक्ष! तुम्हारी पुत्री अदिति उत्पन्न हुई। इसके पश्चात अमर एवं कल्याणकारी देवताओं की उत्पत्ति हुई। इसके बाद ऋग्वेद के एक सन्दर्भ में कहा गया है कि अदिति से दक्ष उत्पन्न हुआ और दक्ष से अदिति उत्पन्न हुई। अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाददितिः परि। यास्क के अनुसार ये परस्पर एक दूसरे से उत्पन्न होने वाले हैं तथा एक दूसरे के कारण हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अदिति एक देवता ऋषिका है।
वागाम्भृणी – ऋग्वेद के दशम मण्डल के 125वें सूक्त की ऋषिका जो कि अम्भृण ऋषि की पुत्री वागाम्भृणी है तथा देवता है “आत्मा” अर्थात स्वयं वागाम्भृणी ही देवता है। अम्भृणी शब्द के व्याख्यान के सन्दर्भ में सायण के कथनानुसार यह ऋषिका अम्भृण नामक ऋषि की पुत्री है। सायण ने अम्भृण शब्द का अर्थ अतिभयंकर अथवा शब्द करने वाला किया है। इससे स्पष्ट है कि वाक् कोई मानवी कन्या अथवा ऋषिका नहीं है। वह इस सूक्त के माध्यम से उस सच्चिदानन्द परमात्मा के साथा तादात्म्य का अनुभव करते हुए स्वयं अपनी अर्थात नारी शक्ति की स्तुती करती है।
श्रद्धा कामायनी – ऋग्वेद के दशम मण्डल में श्रद्धा कामायनी ऋषिका देवी मानी गयी है। सायण के अनुसार कामायनी शब्द का अभिप्राय काम के गोत्र में उत्पन्न कामगोत्रजा है। भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में आदर बुद्धि से युक्त एक प्रकार की भावना का नाम ‘श्रद्धा’ है -श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः। श्रद्धा भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि।। इसमें श्रद्धा को एक देवी के रूप में प्रस्तुत कर उसका गुणगान किया गया बै। इसी कारण इस सूक्त का देवता भी मानी गयी है। अतः श्रद्धा ही इस सूक्त की ऋषिका और देवता है।
इन्द्राणी – ऋग्वेद के दशम मण्डल में वृषाकपि, इन्द्र तथा इन्द्राणी का परस्पर संवाद उपलब्ध होता है। यस्य वाक्यं स ऋषिः के लक्षणानुसार इन्द्राणी के कथन वाले मन्त्रों में इन्द्राणी ऋषिका है। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद 10.1.45 की ऋषिका भी इन्द्राणी मानी गयी है।
दक्षिणा – दक्षिणा प्राजापत्या को ऋग्वेद के दशम मण्डल में ऋषिका और देवता दोनों माना गया है। सूक्त में प्राप्त वर्णन के अनुसार यज्ञ के प्रसंग में दी जाने वाली दक्षिणा अथवा दक्षिणा देने वालों की महिमा का वर्णन किया गया है। अतः प्रजापति सम्बन्धि यज्ञ से सम्बद्ध दक्षिणा की इस सूक्त में प्रशंसा होने के कारण यह सूक्त की ऋषिका मानी गयी तथा प्रजापति से सम्बद्ध होने के कारण उसे प्राजापत्य कहा गया है।
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में जुहू, यमी, उर्वशी, आदि ऋषिकाओं के नाम उपलब्ध होते हैं। अतः वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा के रूप में ऋषियों की तरह ऋषिकाओं का भी श्रेय़ प्राप्त होता है। हमें स्पष्ट रूप से स्वीकार करना पड़ेगा कि अनेक स्त्री ऋषि “यस्यं वाक्यं स ऋषि” के अनुसार ऋषि हैं, परन्तु द्रष्ट्री ऋषियों का सर्वथा अभाव हो, ऐसा नहीं। हाँ, द्रष्ट्रत्व विषय में स्त्री – पुरुष ऋषि में आनुपातिक दृष्टि से असमानता अवश्य देखने में आता है।
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ऋगवेद में ऋषिकाएँ तथा उनके विचार
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