आम आदमी की जिंदगी का रोजनामचा : ‘बदलते चैनल और अन्य कहानियां’

प्रो. गीता दूबे

आज के समय में जो कहानियां लिखीं या बुनी जा रही हैं उन्हें लेकर एक सहज सवाल हमारे मन में उठता है कि आखिर इनका उत्स कहाँ है, वास्तविक जिंदगी में या महज कल्पना की दुनिया में। निश्चित तौर पर कहानी लेखन का एक दौर ऐसा भी गुजरा है जब सिर्फ कल्पना का संसार कहानियों के माध्यम से उद्भासित हुआ है लेकिन उस कल्पानशीलता के माध्यम से भी वास्तविक जिंदगी की निर्ममता के बरक्स एक खूबसूरत दुनिया बनाने की कोशिश की गई। एक ऐसी दुनिया जहाँ आम और खास सभी को बराबर का हक मिले और सुकून की सांसें मयस्सर हों क्योंकि आम जिंदगी से तो यह सुकून और सुख -चैन निरंतर गायब होता जा रहा है। इस दुनिया के खास आदमियों ने तो फिर भी पुरसुकून जिंदगी का सपना पूरा करने में कुछ हद तक सफलता हासिल की है लेकिन आम आदमी की जिंदगी अभी भी जिंदगी की मूलभूत सुविधाएं जुटाने की कोशिश में ही तार- तार होती नजर आती है। आम इंसान की चुनौतीपूर्ण जिंदगी की इन्हीं मुश्किलों, संघर्ष , विफलता और दुख की छोटी -बड़ी कहानियों को बेहद सरल भाषा में बिना किसी लफ्फाजी या कलाबाजी के हमारे सामने बड़ी सादगी से परोसते हैं कथाकार सुरेश शॉ। उनके दूसरे कहानी संग्रह ‘बदलते चैनल तथा अन्य कहानियां’ में कल्पना की उड़ान के बदले जिंदगी की वास्तविक पूर्णतः यथार्थता के साथ उद्भासित होती है जिसे पढ़ते हुए बरबस यह महसूस होता है कि हम आम आदमी की जिंदगी का रोजनामचा बांच रहे हैं जो अपनी सादगी के बावजूद हमें उद्वेलित भी करता है और उद्विग्न भी, जिससे हम उबरना तो चाहते हैं पर छटपटाकर रह जाते हैं। सुरेश जी लंबे समय से साहित्य की दुनिया में अपनी सक्रिय उपस्थिति बनाए हुए हैं। उनका पहला कहानी संग्रह ‘बाघा’ जनवरी 2004 में रोशनाई प्रकाशन प्रकाशित हुआ था जिसकी कहानियों में भी निम्नमध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय आदमी की जिंदगी और व्यवस्था की खामियों के कई मार्मिक चित्र धूसर और मटमैले रंगों में उकेरे गये हैं। समय के साथ जीवनगत अनुभवों के ही नहीं कहानियों के रंग भी और अधिक सान्द्र और परिपक्व  हुए हैं जिन्हें पढ़ना  देश और समाज के साथ ही आम आदमी की जिंदगी के कई जाने- अनजाने मोड़ों से गुजरने सरीखा लगता है। 

आम आदमी की जिंदगी की तीन मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है मकान। रोटी और कपड़ा तो कई बार आदमी मेहनत मजदूरी करके जुटा ही लेता है लेकिन सबसे बड़ी समस्या होती है मकान की और इस समस्या से सबसे ज्यादा वह वर्ग जूझता है जो अपने गांव का कच्चा- पक्का घर छोड़कर दूसरे शहर में रोजी- रोटी की तलाश में पहुंचता है। पेट की भूख शांत होते ही जो सबसे महंगा सपना वह देखता  है वह महज घर का नहीं ‘अपने घर’ का होता है क्योंकि किराए के घर में सालों- साल पैसा देते रहने के बावजूद वह पराया ही रहता है, जहाँ एक कील ठोंकने के लिए भी मकान मालिक की इजाज़त लेनी पड़ती है और करणीय या अकरणीय की सूची इतनी लंबी होती है कि उसपर अमल करने से ज्यादा समय उसे पढ़ने में लगता है। लेकिन तथाकथित सफेदपोश इंसान न तो पेड़ के नीचे जिंदगी बसर कर सकता है न ही सड़क पर इसीलिए उसे मकान मालिक की तमाम शर्तों को सिर झुकाकर स्वीकार ही नहीं शिरोधार्य भी करना पड़ता है। और शायद इसीलिए किराए के घर बदलते -बदलते तंग आकर एक स्थाई पते की ख्वाहिश में यह आम आदमी जो सपना देखता है वह है अपने घर का सपना। हालांकि एक कहावत हमारे समाज में खूब प्रसिद्ध है कि “मूर्ख आदमी घर बनाता है और बुद्धिमान आदमी उसमें रहता है” लेकिन आज के समय में कोई भी बेचैन बुद्धिमान की बजाय सुखी मूर्ख बनना ज्यादा अच्छा समझता है। एक दौर वह भी था जब प्रवासी मजदूर या किरानी बड़े शहरों में आकर रोजी- रोटी तो कमाते थे लेकिन यहाँ बसने का सपना नहीं देखते थे। वह शहर की कमाई से गांव में पक्का मकान , कुआँ , मंदिर आदि बनवाते थे या फिर वहाँ खेत खरीदकर खुश होते थे क्योंकि उनका सपना नौकरी की समाप्ति के बाद गांव में बसने का होता था। यह बात और है कि अपने इस सपने को पूरा करने की खातिर वह अपनी जिंदगी के छोटे- छोटे सुखों का भी त्याग कर देते थे। उनका पूरा परिवार गांव में रहता था और वह अकेले सेना के सिपाही की तरह नौकरी और जिंदगी के मोर्चे पर तैनात रहते थे। लेकर बदलते समय के साथ इस प्रवासी कामकाजी आदमी की मानसिकता के साथ- साथ उसकी जिंदगी के इस ढर्रे में भी बदलाव आया। वह अपने परिवार को यहाँ लाकर बाल -बच्चों को शहर में पढ़ा- लिखाकर, बड़ा आदमी बनाने का सपना देखने लगा ताकि प्रवासी के बदले वह शहर का वासी बन पाए और ठीक उसी समय उसे एक स्थाई पते की जरूरत भी महसूस होने लगी जिसे पूरा करने के लिए वह एक बार फिर से अपने घर का सपने देखने लगा। आम आदमी के इस छोटे से सपने की खुशी और उसे पूरा कर पाने के संघर्ष को कथाकार सुरेश ने बड़े मर्मस्पर्शी ढंग से आलोच्य कथा संग्रह की पहली कहानी “द रीयल प्लाट” में उकेरा है और उसके टूटन की कठोर हकीकत को भी बेहद तकलीफदेह अंदाज़ में बयान किया गया है। 1977 में एक फिल्म आई थी “घरौंदा” जिसमें अमोल पालेकर और जरीना वहाब बड़े अरमानों से एक घर का सपना देखते हैं और अपनी जमापूंजी उसमें झोंक देते हैं ताकि अपने नये जीवन की शुरुआत कर सके लेकिन बिल्डर उनके और उन जैसे तमाम लोगों के पैसे लेकर गायब हो जाता है और नायक- नायिका की उम्मीदों का घरौंदा आबाद होने के पहले ही बिखर जाता है। इसी तरह आलोच्य कहानी के दिवाकर बाबू अपना घर बनाने का ख्वाब तो पालते हैं लेकिन अपने ही आस -पास के ईर्ष्यालु और मौकापरस्त लोगों के षडयंत्र का शिकार होकर पैसा तो गंवा देते हैं लेकिन प्लाट नहीं खरीद पाते। इंसान के टूटते भरोसे और दुनियादारी के अभाव में ठगे जाने की नियति आज के आम आदमी की नियति को दर्शाती है जो न जाने कितने धोखे खाकर भी इस बेदर्द दुनिया में चैन से जीने का सलीका नहीं सीख पाता। दिवाकर बाबू जैसे लोग झट से दूसरों पर भरोसा करके उम्मीदों की दुनिया सजाने लगते हैं और तपन दास जैसे चालाक लोग तो जैसे इस दुनिया को उजाड़कर अपनी जेब भरने की ताक में ही बैठे रहते हैं। तो ऐसे में आम आदमी की एक ही नियति है, ठगे जाना और टूट जाना।  तो क्या आदमी भरोसा करना छोड़ देता है, बिल्कुल नहीं। वह फिर भरोसा करता है , रिश्ते बनाता है और उन रिश्तों को निभाने की भरदम कोशिश भी करता है। इसी कोशिश में “बदस्तूर चलती जिंदगी” की जोधाबाई अपने ही भाई के हाथों छली जाती है लेकिन इन तमाम धोखों के बावजूद रिश्तों की डोर को चटकने नहीं देती पर अपनी तकलीफ और हताशा को अपने घर में अभिव्यक्ति जरूर देती है। इसी तरह मानवीय सरोकारों के कारण “वह लड़की” कहानी का सूत्रधार अपने पड़ोस में रहनेवाली उस भली सी लड़की के प्रति जिज्ञासु हो उठता है जो अपने घर की छत पर खड़ी होकर सधे हुए स्वर में रोज रवींद्र संगीत गाया करती थी। उसकी सुरीली आवाज से प्रभावित डा. बाबू उसके जीवन के बारे में जानना चाहते हैं और यह जानकर दुखी हो जाते हैं कि वह भी अपने जीवन में ठगी गई है, अपने ही बॉस या प्रेमी के हाथों। वह उसकी सहायता तो करना चाहते हैं लेकिन उसके पहले ही षड्यंत्र का शिकार होकर लड़की पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर ली जाती है और रात लॉकअप में गुजारने के बाद सुबह मृत पाई जाती है। रात की ड्यूटी पर तैनात जवान ने डा. के पूछने पर बताया कि लॉकअप के अंदर जाते ही लड़की एक से बढ़कर एक दर्दनाक रवींद्र संगीत के गीत रातभर गाती रही।” (प . 24) ओर अपने जीवन का सारा दर्द अपने गीतों में उड़ेलकर वह सुबह चिरनिद्रा में लीन हो गई। इसी तरह न जाने कितनी मासूम लड़कियाँ प्रेम के नाम पर शोषित होकर, जीवन से निराश होकर दम तोड़ देती हैं और उनकी इस नियति पर उनकी गरीब माएँ शर्मसार होती हैं, जबकि शर्मसार तो उन लोगों को होना चाहिए जो ऐसी भोली -भाली गरीब लड़कियों से उनका सब कुछ छीनकर उन्हें सिसक- सिसक कर मरने के लिए छोड़ देते हैं। ऐसी लड़कियों को समाज थोड़े ही दिनों में विस्मृत कर देता है और किसी को उनका नाम भी याद नहीं रहता , संभवतः इसीलिए लेखक भी उसे ‘वह लड़की’ ही कहता है। इस कहानी की एक खूबी यह भी है कि किसी भी पात्र को किसी नाम से संबोधित नहीं किया गया है। सारे पात्र सर्वनाम या जातिवाचक संज्ञा द्वारा उल्लिखित हैं, मानो वह इतने क्षुद्र या साधारण हैं कि उन्हें किसी नाम की आवश्यकता भी नहीं है। ऐसे पात्र हमें हर गली, मुहल्ले में मिल जाएंगे। लेकिन इन लोगों की बड़ी खूबी है कि संभवतः इन्हीं के अंदर संवेदनशीलता का स्रोत भी सुरक्षित है और ऐसे लोग ही बावजूद अपनी तमाम दिक्कतों और अभावों के मनुष्यता को क्षरित होने से बचाए रखते हैं। और इसी कारण इन कहानियों में कुछ ऐसे चरित्र बिखरे हुए हैं जो अपने प्रेम और संवेदनशीलता से पाठकों को प्रभावित जरूर करते हैं। जैसे ‘अश्रुधारा’ कहानी की निसंतान चाची जो अपनी सारी ममता अपने जेठ के पुत्र सुधाकर पर उड़ेल देती हैं और बदले में कुछ नहीं चाहतीं। एक- आध बार शहर में आती तो हैं लेकिन उस परिवेश में खुद को मिसफिट पाकर गांव वापस लौट जाती हैं। हालांकि सुधाकर को वह निरंतर अपनी कुशलता का समाचार भेजकर आशवस्त और चिंतामुक्त करती हैं लेकिन वह यह समझता है कि “उनकी बूढ़ी आंखें सदैव किसी अतृप्त तृष्णा का शिकार बनी रहती हैं और इन्हीं प्यासी आँखों की कोरों से सदैव आंसुओं की धारा बहती रहती है।’ (पृ. 96) लेकिन सब जान -समझकर  उनके लिए कुछ कर पाने में असमर्थ सिद्ध होता है क्योंकि शहरी जीवन की सुविधाओं और असुविधाओं ने उसे इस तरह जकड़ रखा है कि उससे निकलने का कोई रास्ता उसे समझ ही नहीं आता। निम्न मध्यवर्गीय  शहरी जीवन और उसकी छोटी- बड़ी बहुत सी परेशानियों के चित्र कई कहानियों में अंकित हुए हैं। “बदलते चैनल” ऐसी ही कहानी है जिसमें भौतिक सुख- सुविधाओं और टेलीविजन के बदलते चैनलों में परोसे गये नकली पर चमचमाते संसार की चकाचौंध के कारण अमर का भविष्य डगमगाने लगता है लेकिन ठोकर खाने के बाद जिंदगी संभलने का सलीका भी सिखा ही देती है और उसके पिता भी उसे भटकने से बचाने का संकल्प कर उसके लिए समय निकाल ही लेते हैं। 

पेशे से अध्यापक सुरेश जी ने अपने अध्यापकीय अनुभवों को कई कहानियों में विश्वसनीयता से पिरोया है। शिक्षक   वह भी हिंदी का जिस  सामाजिक उपेक्षा और उससे उत्पन्न हीनभावना का शिकार हो जाता है वह “कसमें वादे” कहानी में खूबसूरती से उभरा है। “गुहार” में शिक्षकों के बीच में चलने वाली रस्साकशी और ईर्ष्या द्वेष के साथ- साथ एक समय में देश में गोमांस खाने को लेकर चली बहस की ओर भी व्यंग्यपूर्ण संकेत किया गया है लेकिन शिक्षकों की उठापटक जितनी ज्यादा उभरकर आई है उतना वह व्यंग्य नहीं। कई बार बेहद सहज- सरल फ्रेम में कैद कहानियां सपाटबयानी का शिकार भी हो गई हैं। जैसे “प्रार्थना” जो स्कूल शिक्षकों के धूम्रपान और उसके दुष्प्रभावों को बयान करती एक साधारण कहानी है। यह कहानी का व्यंग्य और संदेश थोड़ा और मारक और प्रेरक हो सकता था लेकिन इसके बजाय वह स्कूल की उथली राजनीति का वर्णन मात्र करके रह जाती है जिसका चित्रण दूसरी कई कहानियों में भी होता है। “कैरी आन” कहानी में भी स्कूली परिवेश और वहाँ की राजनीति/ शोषण आदि का चित्रण है। डेविड जैसे शिक्षक अपने मैनेजमेंट की चमचागिरी कर अपनी जिंदगी को किसी भी कीमत पर चलाते हुए खुद को दिलासा देते रहते हैं कि, “पद बना रहेगा तो पेट भरा रहेगा” (पृ. 32) इस तरह के चरित्र आम जिंदगी में सहजता से मिल जाते हैं जिनमें से कुछ चापलूसी के बलबूते ही जिंदगी गुजारते हैं और जो चापलूसी या समझौता नहीं करते वह धमकियों से डरकर जिंदगी की गाड़ी चलाने को विवश होते हैं, जैसे प्रमोद सर को यह “फैसला” करना है कि उन्हें मैनेजमेंट का मोहरा बनकर फिराद आलम को स्कूल से बाहर करना है या नहीं और उनका फैसला संभवतः  मैनेजमेंट के पक्ष में ही होगा क्योंकि उनकी नौकरी का सवाल जो है।  जिंदगी की चुनौतियों का सामना करते हुए इस आम आदमी की जिंदगी कई बार ऐसी उलझनों में उलझ जाती है कि वह उससे निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ पाता। “संकट के बादल” हिमांशु की जिंदगी को इस तरह घेर लेते हैं कि वह उनसे निकल ही नहीं पाता। हिमांशु के चाचा का जीवन भी जिंदगी की मुख्यधारा से कटे हताश आदमी की पीड़ा को दर्शाता है। न जाने कितने लोग इस तरह घर- बार की मुश्किलों से संत्रस्त होकर अस्वाभाविक जीवन बिताने को विवश हो जाते हैं। 

धर्म के पाखंड और उसके बलबूते फलते- फूलते पाखंडियों पर भी लेखक ने प्रहार किया है। “पुनर्जन्म” कहानी में स्वामी वंगानन्द  महाराज के जीवन के माध्यम से इस संसार में सबसे तेजी से फलते- फूलते धर्म के कारोबार पर तीखा व्यंग्य किया गया है। जिन धर्मगुरुओं को साधारण मनुष्य देवता की तरह पूजता है उनका जीवन कितना कलुषित और अपराध से घिरा हो सकता है इसके बहुत से उदाहरण आज के समाज में आसानी से मिल जाते हैं। आज बहुत से धर्मगुरु अपने अपराधों का प्रायश्चित जेल की सलाखों के पीछे कर रहे हैं। वर्तमान की इन्हीं घटनाओं की छाया इस कहानी में दिखाई देती है। इसी तरह “तकाजा” की नन मेरी उर्फ सोफिया का मिशन के फादर द्वारा किया गया शोषण और सोफिया का मानसिक संताप यह स्पष्ट कर देता है कि प्राय: हर धर्म तमाम तरह के पाखंडियों से भरा हुआ है जहाँ मेरी जैसी बहुत सी ननों या भक्तिनों को धर्मगुरुओं का शारीरक- मानसिक शोषण झेलना पड़ता है। मेरघ तो अपने दोस्त का सहारा पाकर उस नरक से भागकर, सोफिया बनकर अपने जीवन को नया आयाम देने में सफल हो जाती है लेकिन बहुत सी स्त्रियां इस यंत्रणा को आजन्म झेलने का बाध्य होती है और विरोध करनेवाली को किस तरह मौत के घाट उतार दिया जाता है यह हमने आज के दौर में देखा ही है।

सुरेश जी अपनी सजग दृष्टि से देश, समाज और परिवार की विभिन्न घटनाओं को देखते हैं और अपनी कहानियों में उन्हें चुटीले अंदाज में बयां करते हैं। व्यंग्य की धार संग्रह में कैद कुछ लघुकथाओं में और भी तीखेपन से चुभती है। ‘पंचकथा’ शीर्षक के तहत पांच लघुकथाएं संकलित हैं जो मानव मन के विभिन्न परतों को खोलती हुई उसकी अलग अलग मनोदशाओं को बड़ी तटस्थता से सामने रखती हैं। आदमी अपने छोटे- छोटे स्वार्थों के हाथों विवश होकर किस तरह अपने रिश्तेदार, दोस्त या पड़ोसी का दोहन करता है इसके कई निर्मम पर सच्चे चित्र इन कहानियों में मिलते हैं। “अंततोगत्वा” उस तथाकथित बुद्धिजीवी की कहानी है जिसने हमेशा अपने यार -दोस्तों को नीचा दिखाता है लेकिन जीवन की विषम परिस्थितियों में उसे उनकी कीमत तब समझ में आई जब सभी ने उससे कन्नी काट ली और अंततोगत्वा उसने तय किया कि वह अपनी तल्ख टिप्पणियों से बाज आएगा। जिंदगी से बड़ा शिक्षक कोई दूसरा नहीं होता और जिंदगी ही हमें सिखाती है कि हमें कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं। “राजकीय शोक” जैसी कहानियां हमारी तकनीक निर्भरता पर व्यंग्य करती हैं और “माटी कहे कुम्हार से” में जीवन की निस्सारता का वर्णन है। 

वस्तुतः सुरेश जी ने अपनी कहानियों में अपने देखे, परखे और भोगे हुए यथार्थ को भरसक पूरी सच्चाई के साथ समेटने का प्रयास किया है। कहीं- कहीं यथार्थ वर्णन की रौ में भाषा थोड़ी भदेस भी हो गई है। सुरेश जी के पात्र और सूत्रधार वैसी ही भाषा बोलते हैं जो आमतौर पर हमारे गली मोहल्लों में बोली और समझी जाती है, जो कभी बहुत मधुर और अपनी सी लगती है तो कभी- कभी कानों को चुभती भी है। कहानियां प्रायः छोटी ही हैं जिसमें लंबा चौड़ा शब्दाडंबर नहीं है। लेखक सीधे- सीधे अपने कथ्य को पाठकों के सामने परोस देते हैं। उनकी यह विशेषता उनकी सफलता भी है और सीमा भी। 

पुस्तक – बदलते चैनल और अन्य कहानियां (कहानी संग्रह)

 लेखक – सुरेश शॉ

प्रकाशक आनंद प्रकाशन

समीक्षक सम्पर्क – 58 ए/ 1 प्रिंस गुलाम हुसैन शाह रोड, यादवपुर, कोलकाता- 700032, मोबाइल-9883224359, ईमेल- [email protected]

 

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