एक दूसरे को सशक्त बनातीं कोलकाता की यह माँ – बेटी की जोड़ी

कोलकाता : सशक्त होने का मतलब है कि आप दूसरों को भी सशक्त बनायें और अपने लक्ष्य के प्रति हर परिस्थिति में अडिग रहें। महुआ बनर्जी ऐसी ही महिला हैं जिन्होंने तमाम विरोधों को सहते हुए न सिर्फ अपने सपने पूरे किये बल्कि अपनी बेटी मेघतिथि में भरोसा रखा और उसे आत्मनिर्भर बनाया। मेघतिथि बनर्जी एक पत्रकार होने के साथ ही एक संगीतकार भी हैं। कई मीडिया माध्यमों में काम कर चुकी हैं और व्होल 9 यार्ड से जुड़ी हैं। मेघतिथि के लिए उनकी माँ ही सब कुछ हैं और अपनी माँ महुआ बनर्जी की प्रेरक कहानी उन्होंने शुभजिता से साझा की। दरअसल, ये दोनों महिलाएँ ही सशक्तीकरण का अनुपम उदाहरण हैं तो सुनिए माँ की कहानी, बेटी की जुबानी –
मैं आपको कोई ऐसी असाधारण कहानी नहीं बताने जा रही हूँ बल्कि यह तो एक हमारे लिए एक आम सफर है जिसमें कोई जीतता है तो कोई अब भी जीत के इन्तजार में है। हमारा सफर 19 साल पहले शुरू हुआ था। तब मैं पाँचवीं कक्षा की छात्रा थी और मेरी माँ महुआ बनर्जी बस एक आम गृहिणी थी मगर चीजें बदलीं जब उन्होंने शिक्षिका बनने के सपने को पूरा करने की सोची। मेरे पिता ने मेरी माँ के सपने को पूरा करने में कभी माँ का साथ नहीं दिया 2000 तक शिक्षिका बनने का मेरी माँ का सपना सिर्फ घर में ही कुछ प्राइवेट ट्यूशनों और 2-3 बच्चों को पढ़ाने तक सीमित था मगर जब मैं इस काबिल हुई कि मैं अपना ख्याल खुद रख सकूँ, माँ ने अपनी यात्रा आरम्भ की। अगर किसी ने इस दौर में माँ का साथ दिया तो वे मेरे ग्रैंडपैरेन्ट्स थे। माँ ने अपनी पहली नौकरी चपलामयी गर्ल्स हाई स्कूल में प्राथमिक विभाग में शिक्षिका के तौर पर शुरू की और उनकी पहली तनख्वाह तब महज 250 रुपये थी मगर यह सपना भी सरकार के आदेश से ढह गया जिसके मुताबिक पैरा शिक्षकों के भरोसे कोई विद्यालय नहीं चल सकता। माँ को सरकार द्वारा नियुक्त शिक्षकों के लिए जगह बनाने के लिए नौकरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने काम की तलाश शुरू कर दी और आईपर नामक गैर सरकारी संगठन से बतौर फंड रेजर जुड़ गयीं मगर जल्दी ही वह उद्भाष नामक एक अन्य गैर सरकारी संगठन के लिए बच्चों को पढ़ाने लगीं। 5 साल तक अपनी तमाम घरेलू जिम्मेदारियाँ निभाते हुए उन्होंने एक साथ दो नौकरियाँ जारी रखी और बस यहीं से हुई बदलाव की शुरुआत। आईपर के बाद 2015 तक उन्होंने दो अन्य गैर सरकारी संगठनों के लिए काम किया और इसमें से एक था होप फाउंडेशन। मैंने उनको पंचानन ग्राम के लोगों के साथ खुशनुमा पल बिताते हुए देखा है जहाँ वह महिलाओं के स्कूल और प्रशिक्षण केन्द्र का प्रभार सम्भालती थीं। कॉलेज के दिनों में मैंने माँ को कोलकाता के खिदिरपुर के हेस्टिंग्स पुल के बच्चों को पढ़ाते और मानव तस्करी, यौन उत्पीड़न के खिलाफ, शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ते देखा है। बच्चे ही नहीं बल्कि बच्चों के परि वार भी माँ से बहुत स्नेह रखते थे। उनको शादियों में बुलाया जाता और वे जाती भी थीं। मुझे याद है वह दिन जब माँ के एक सहकर्मी ने फोन करके मुझे बताया कि वह बच्चों को पढ़ाते हुए बीमार पड़ गयीं और मैं उनको वापस लाने के लिए दौड़ी मगर जब पहुँची तो आस -पास का वातावरण देखकर अजीब सा महसूस करने लगी मगर जब मैं वहाँ पहुँची तो मैंने देखा कि वो लोग, जिनके पास सिर छुपाने के लिए छत नहीं थी, जगह नहीं थी, वे घर से दवा लाये थे, अपने हिस्से का भोजन मेरी माँ को खिला रहे थे जो कम से कम उनके लिए थी। इससे मेरा हृदय पिघल गया क्योंकि मुझे पता था कि मेरी माँ अपने प्यार से संसार को ठीक कर सकती हैं। वर्ष 2015 में पता चला कि मेरे पिता को कैंसर है और माँ ने उनके पास रहने के लिए अपने काम से विराम लिया। मेरे पिता, जो मेरी माँ के बाहर जाकर काम करने के सख्त खिलाफ थे, उनकी आँखों में भी अब माँ के लिए सम्मान था। 2016 में मेरे पिता का निधन हो गया।
जब माध्यमिक में अच्छे नतीजे नहीं होने पर सबने मुझे नाकारा मान लिया तो माँ ने मुझमें विश्वास रखा। एकमात्र वही थीं जिन्होंने तमाम अड़चनों के बावजूद संगीत कक्षाओं में मेरा दाखिला करवाया। उन्होंने अपनी कमाई से मेरे लिए पहला हारमोनियम खरीदा और आज अगर 1 प्रतिशत लोग भी मुझे कलाकार के रूप में पहचानते हैं तो इसका श्रेय माँ को ही जाता है। उन्होंने मुझे बगैर किसी हिचक के एक स्वतन्त्र स्त्री बनना सिखाया।
अब मैं अपने बारे में बताऊँ तो मैं अपने विद्यालय में एक औसत छात्रा थी जो गणित और अंग्रेजी में बेहद कम अंक लाती थी। संगीत के लिए मुझे तारीफ मिलती थी तो पढ़ाई में कमजोर होने के कारण रिश्तेदार मुझे ताने दिया करते थे लेकिन माँ ने हमेशा मुझमें भरोसा रखा। वह मेरी जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए समर्पित रहीं। चूँकि मैं बारहवीं तक बांग्ला माध्यम से पढ़ाई की थी इसलिए बारहवीं के बाद उन्होंने रामकृष्ण मिशन में अंग्रेजी भाषा और कम्प्यूटर सीखने के लिए दाखिला करवाया, साथ ही किसी खास विषय पर जोर देने की जगह मुझे पत्रकारिता पढ़ने दिया।
माँ मेरे लिए हमेशा चट्टान की तरह खड़ी रहतती हैं। चाहे मानसिक झंझावात हो, किशोरावस्था की परेशानी या पेशेवराना समस्याएँ. वह मेरी एकमात्र रक्षक, मार्गदर्शक और मेरी सबसे अच्छी दोस्त हैं। मुझे कभी उनसे झूठ नहीं बोलना पड़ा। वह किसी को स्पेस देने का महत्व जानती हैं और उन्होंने मुझे कभी त्याग करना नहीं सिखाया। वह अपनी शर्तों को जीती रही हैं और मेरे लिए वह सशक्त महिला होने का सबसे बड़ा उदाहरण हैं, मैं उनके बगैर कुछ भी नहीं।

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