नए नए विकल्पों के भंडार खोलते बाज़ार में इच्छाओं को थामे आज इंसान अनजानी मंज़िल की ओर बेलगाम दौड़ रहा है। इच्छाएं मन में पनपती हैं। मन, जिसे चंचल, हठीला कहा जाता है, जब खुश होता है तो सिर से लेकर पैर तक खुशी की लहर दौड़ा देता है। भयभीत हो तो सीने में कंपकपी भर देता है। अगर उदास हो तो सीने में कहीं पाताल में धँसते जाने का एहसास भर देता है। जो मन सिर से लेकर पैर तक हलचल पैदा करने की ताकत रखता है उसकी स्थिति आखिर है कहाँ?
शास्त्रों में इंसान के शरीर के पाँच स्तर माने गए हैं। इन स्तरों को कोश कहा गया है। अन्नमय कोश भौतिक शरीर है जिसे हम देख पाते हैं। प्राणमय कोश चेतना का कोश है। अन्नमय और प्राणमय कोश के बीच आत्मा की नगरी मानी जाती है। मनोमय कोश हमारे आवेगों और संवेगों का वाहक कोश है। विचारधारा के निर्माण में यह कोश खास भूमिका निभाता है। विज्ञानमय कोश को अंतःप्रज्ञा कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार यह कोश सृष्टि के रहस्य की अनुभूति सहज ज्ञान द्वारा कराती है। आज के युग में इन्सानों के विज्ञानमय कोश की भूमिका पर अगर नज़र डालें तो दिखता है कि आज सृष्टि के रहस्य को समझने की श्रद्धापूर्ण चाह से ज्यादा आविष्कार का घमंड और रहस्य को जानकर शक्ति केंद्रों के शोषण से लाभ कमाने की चाह इन्सानों पर हावी है। आनंदमय कोश परम चैतन्य की आध्यात्मिक अनुभूति का आधार स्थल होने के कारण साधु संतों की चर्चा का विषय रहा है। मनोमय और विज्ञानमय कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं।
प्राणमय कोश मे प्राण प्रकाश रूप में रहता है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर से प्रकाश की किरणें निकलती हैं। इसे औरा कहते हैं। शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक स्वास्थ्य पर इस आभा का तेज निर्भर करता है। इसे वैज्ञानिक शब्दावली में बायो प्लाज़्मिक रेज़ कहते हैं। किर्लियन फोटोग्राफी से यह पकड़ में आती है। 1939 में रूसी गवेषक साइमन किर्लियन ने इसका आविष्कार किया था। जड़ एवं चेतन पदार्थ से निकलने वाली अलग अलग रंगों की किरणें पहली बार इसी फोटोग्राफी से पकड़ में आई। इंसान की सोच और मानसिकता पर शरीर से निकलने वाली किरणों का रंग निर्भर करता है। पीले या सुनहरे रंग की किरणें जो अक्सर देवी – देवताओं के चित्रों में मुखमंडल को घेरे रहती है वही आदर्श औरा की स्थिति है। सूक्ष्म दृष्टि के बगैर खुली आँखों से औरा को देख पाना संभव नहीं हो पाता। आज किर्लियन फोटोग्राफी द्वारा इसे देखना संभव है।
दृश्य जगत के प्रति इंसान की धारणा उसके ज्ञानेन्द्रियों के सहारे तैयार होती है। लेकिन उसकी छोटी बड़ी धारणाओं से विकसित उसकी सोच का असर उसकी औरा पर पड़ता है। आजकल कठिन रोगों की चिकित्सा के लिए किर्लियन फोटोग्राफी से औरा का चित्र खींचकर उसके भंग होने की जगह के सहारे भी बीमारी के उत्स को समझने की कोशिश होने लगी है। एक बड़ी विडंबना यह है कि आम तौर पर समाज में यही बात प्रचलित है कि औरा सिर्फ देवी देवताओं के चित्रों में दिखने वाला काल्पनिक प्रकाश पुंज है। विश्व ने यकीनन वैज्ञानिक स्तर पर उन्नति की है लेकिन व्यक्ति के शरीर और आत्मतत्व की जो बातें ऋषि मुनियों के विचारों की तिजोरी में बंद पड़ी हैं उनपर कायदे से अनुसंधान आज तक नहीं हो पाया।
औरा को दृढ़ बनाने का सवाल दरअसल सार्थक व्यक्तित्व के गठन के सवाल से जुड़ा है। इसी संदर्भ में हठयोग में सात चक्रों का जिक्र मिलता है। सूक्ष्म शरीर में स्थित सात चक्र प्राणशक्ति के चेतना केंद्र माने जाते हैं। हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में नाथ संप्रदाय एवं कबीर के प्रसंग में हठयोग की बात आती है। लेकिन अक्सर इस प्रसंग को सतही तैर पर बताकर ही आगे बढ़ जाने का रिवाज शिक्षा क्षेत्र में प्रचलित है। हालांकि यह एक ऐसा प्रसंग है जिससे ‘जो ये पिंडे सोई ब्रहमंडे’ की बात चरितार्थ होती है। सात चक्रों के बैंगनी, गहरा नीला, आसमानी, हरा , पीला ,नारंगी , लाल रंग आसमान के इंद्रधनुष में दिखने वाले सात रंग ही हैं। इंद्रधनुष जैसे आसमान की शोभा बढ़ता है ठीक उसी तरह ध्यान या साधना से पुष्ट सात चक्र व्यक्तित्व को दृढ़ता और सौंदर्य से भरता है।
माथे के सर्वोच्च स्थल पर सहस्रार चक्र है। दो भौहों के बीच में जहां देवी देवताओं के चित्रों में तीसरे नेत्र की स्थिति मानी गई है उसके पीछे आज्ञा चक्र की स्थिति है। गौर करने लायक बात यह है कि प्राणी विज्ञान के हिसाब से यहीं भौतिक शरीर में ‘पिट्यूटरी ग्रंथि’ है जिसे शरीर को नियंत्रित करने वाली प्रमुख ग्रंथि कहते हैं। कंठ के पीछे मेरुदंड पर विशुद्धि चक्र है। हृदय के पीछे मेरुदंड पर अनाहद चक्र की स्थिति है। योगियों ने गहरे ध्यान की अवस्था में यहीं अनाहद नाद के गूंजने की बात की है। मणिपुर चक्र का स्थान मेरुदंड पर नाभी से ऊपर है। मणिपुर अर्थात रत्न की नगरी। इस चक्र को ‘प्राणशक्ति का मोटर’ भी कहते है। यही विवेक के विकास का केंद्र माना जाता है। अधिष्ठान चक्र की स्थिति जंघास्थियों के समांतर मेरुदंड पर है। इस चक्र में आत्म तत्व के संस्कार और स्मृतियाँ एकत्रित रहती हैं। इसलिए इसे अधिष्ठान चक्र कहते हैं। अर्थात ‘स्व के अधिष्ठान का स्थल’ । मूलाधार चक्र सूक्ष्म और स्थूल दोनों शक्तियों का मूल केंद्र है। यहीं कुंडलिनी का निवास माना जाता है। इसी कुंडलिनी जागरण का प्रसंग हठयोगियों में पाया जाता है। दरअसल सूक्ष्म शरीर में जहां चक्रों की स्थिति मानी गई है वहीं भौतिक शरीर की ग्रंथियां भी मौजूद है। चक्रों का प्रभाव ग्रंथियों पर पड़ता है और ग्रंथियों से हॉरमोन निकलकर रक्त में घुलमिल जाते हैं। हॉरमोन से स्वास्थ्य के संबंध की बात एक प्रमाणित सत्य है।हालांकि हठयोग की राह लेना आम लोगों के लिए संभव नहीं, पर प्राणशक्ति को सतेज करने वाले केन्द्रों की समझ और इन केन्द्रों को सुदृढ़ करने की सहज राह पर सोच विचार से सांस्कृतिक विकास के नए आयाम खुलने की संभावनाएं अवश्य बढ़ जाती है। लंबे समय से बुद्धिवाद के सहारे बाजारवाद पर हमला करने में इतनी ऊर्जा व्यय हुई है कि साहित्यिक एवं वैज्ञानिक स्तर पर प्राणशक्ति से संबन्धित बातों को समझकर शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ जीवन जीने की सहज राह खोजने की बात पर ध्यान केन्द्रित ही नहीं हो पाया। साहित्य की बौद्धिक और तार्किक बात आम आदमी को न छू पाई। जनमानस बाजारवाद से प्रभावित विज्ञापनों की धुरी पर ही घूमता रहा। आम आदमी के लिए शरीर की समझ केवल डॉक्टरों की जरूरत की विषय वस्तु बनकर रह गयी।
इंसान के शरीर के अंगों का विवरण आज जीवविज्ञान की मामूली से मामूली किताबों में मिल जाता है। लेकिन इस शरीर को चलाने वाली प्राणशक्ति , प्राणशक्ति और सूक्ष्म शरीर के संबंध की बात, सूक्ष्म शरीर में स्थित चक्रों के पोषण से प्राणशक्ति के पोषण की बात शिक्षा के पाठ्यक्रम में नहीं मिलती। आज नैतिक शिक्षा (वैल्यू एडुकेशन) कई शिक्षण संस्थानों में विषय के रूप में पढ़ाया जाता है लेकिन व्यक्ति की आत्म सत्ता को पहचानने की प्रेरणा दिये बगैर और प्राणशक्ति के पोषण की प्रचलित राहों की उपेक्षा करके ऊपर से नैतिक शिक्षा के आरोपण की कोशिश गलत है।
भौतिक विज्ञान से संबन्धित क्वांटम सिद्धांत आज निर्णय लेने की प्रक्रिया में क्वांटम की भूमिका की बात कर रहा है। एक व्यक्ति में निर्णय लेने के पहले कई विकल्प सूझना दरअसल आत्मशक्ति का बिखराव है। इस शक्ति का एक बिन्दु पर केन्द्रित होना जरूरी है। तभी व्यक्तित्व में दृढ़ता आ पाएगी । ध्यान के जरिये इस शक्ति को ही एक बिन्दु पर केन्द्रित करने की कोशिश की जाती है। गौर करें कि आज मेडिटेशन की विद्या को भी बाज़ार की शर्तों पर बेचा जा रहा है। बात साफ है कि बाजारवाद प्राणशक्ति को बचाने की राह पर भी जाल बिछा चुका है।
ब्रह्मांड के समस्त पदार्थ की तरह ही इंसान का शरीर भी परमाणु से बना है। इस लिहाज से देखें तो शिक्षण संस्थानों में विषयों को पढ़ाने का एक बड़ा उद्देश्य दृश्य जगत के जड़ और चेतन के बीच साम्य को महसूस करने के साथ साथ इंसान की विलक्षण शक्तियों का एहसास दिलाना होना चाहिए। इस उद्देश्य से शिक्षा ग्रहण करते हुए जीवन और समाज को समृद्ध करने का संकल्प रखना जरूरी है। शिक्षा का लक्ष्य आज सूचनाएँ देने तक ही सिमट कर रह गया है। शिक्षा से आत्मिक विकास और आत्म विस्तार का प्रश्न आज उपेक्षित है। निश्चित रूप से वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की गाड़ी जिस राह पर चल रही है उससे आत्मविस्तार के लिए शिक्षा की राह काफी अलग है। विद्यार्थियों में अलग अलग विषयों की सार्थक समझ पैदा करने के लिए पाठ्यक्रम के पुनर्गठन पर लगातार कार्यशालाओं के जरिए विचार विमर्श करना जरूरी है। वरना शिक्षण संस्थान पीढ़ी दर पीढ़ी बाज़ार के शर्त पर विद्यार्थियों को मार्केट के प्रॉडक्ट के रूप में तैयार करती रहेगी। इसके साथ समाज में संवेदनहीनता का जहर भरता जाएगा।
जापान, कोरिया जैसे देशों में शिक्षा क्षेत्रों में रोबोट प्रयोग में लाये जाने लगे हैं। शिक्षा का उद्देश्य अगर सूचना देना हो और उसमे आत्मविस्तार की गुंजाइश न हो तो शिक्षा कार्य के लिए कालांतर में रोबोट की नियुक्ति होना अस्वाभाविक बात नहीं है। शिक्षा भावी पीढ़ी को आकार देती है। रोबोट के हाथों बनी भावी पीढ़ी कितनी संवेदनहीन होगी और इसके प्रभाव से समाज कैसा बनेगा इस बात पर कायदे से विचार करना जरूरी है।
(लेखिका लोरेटो कॉलेज, कोलकाता में असिस्टेंट प्रोफेसर तथा सोदपुर सोलीडरिटी सोसाइटी की सचिव हैं)