आत्मा की सोच सकारात्मक बनाने के लिए शरीर का सही होना जरूरी है

एक पत्रकार बनने की ख्वाहिश ने महिमा को दिल्ली पहुँचाया। दिल्ली में उसने पढ़ाई की और लगा कि उसके लिए जनसम्पर्क क्षेत्र अधिक सही है। पढ़ाई पूरी की और जोर – शोर से काम पर भी लग गयी मगर इस दौरान वह अपना ख्याल रखना भूल गयी और ऐसी बीमारी का शिकार हो गयी जिसने सफर की शुरुआत में ही उसके कदम बाँध दिये। मगर….रुकिए कहानी यहाँ से शुरू होती है…महिमा रुकी नहीं…उसने बीमारी को टक्कर दी और आज एक बार फिर वापस मैदान में कूद चुकी है। महज 25 साल की उम्र में लकवाग्रस्त होने की स्थिति मानसिक तौर पर किसी को तोड़ने के लिए काफी है मगर महिमा टूटी नहीं बल्कि उसने बीमारी को तोड़ दिया। महिमा ने अपनी कहानी अपराजिता के साथ साझा की और उसे हम उसकी जबानी ही आप तक ला रहे हैं…यह हौसलों की कहानी है..गौर से सुनिए..

1. मैं पटना से महत्वाकांक्षा लिए दिल्ली २०१५ में आयी थी। पत्रकारिता में बचपन से ही रुचि रही है। जैसे-जैसे पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं को समझा – खुद को जन संपर्क के लायक समझा। उच्च शिक्षा के लिए मैं देश के प्रतिष्ठ संस्था ” भारतीय जन संचार संस्था ” से पी जी डिप्लोमा किया। उसके बाद शुरू हुई असली ज़िन्दगी, स्टूडेंट लाइफ का ख़त्म होना और कॉरपोरेट ज़िन्दगी का आगमन।

2. शुरुआती दौर में काम करने के साथ साथ सीखने की भी तलब थी। हालाँकि – काम में सीखने का कभी कोई अंत नहीं होता पर कहते हैं न, नया नया जब बच्चा चलना शुरू करता है तब से ही वो दौड़ने की होड़ में लग जाता है। मेरा भी कुछ ऐसा ही हाल था। उस वक्त मैं सीखने के साथ साथ परफॉर्म करने का प्रेशर भी ले लेती थी और शायद इसी का परिणाम था कि मैं खाने -पीने पर ध्यान नहीं देती थी।

3.  थ्रोम्बोसिस का दौर हर मरीज़ की तरह मेरे लिए भी कठिन रहा पर मेरे लिए कठिनाइयों से ज्यादा सिखाने वाला दौर रहा। इस दौर में मैंने सीखा – कैसे नयी शुरुआत की जाती है। बुरे से बुरे शारीरिक कष्ट झेले , आप कल्पना कर सकते हैं – जिसने कभी भी टीकाकरण के अलावा कभी इंजेक्शन नहीं लिया उसे कैसा लगता होगा हफ़्तों इंजेक्शन लेने वक्त। उठ कर बैठना तो दूर ,एक इंच भी बिस्तर से खुद के दम पर हिल नहीं पाती थी। करीब दो महीने तक दूसरों की मदद से नहाना खाना, शौच करना हो रहा था। ज़ाहिर करना काफी मुश्किल होगा कि कैसे पूरा परिवार अस्त व्यस्त हो रखा था मेरे इस बीमारी के कारण।

4. परिवार का और दोस्तों का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कोइ ऐसा दिन नहीं था जब मुझसे पहले मेरे माँ – पापा और चाचा नहीं जगते और मेरे सोने के बाद ही उनकी आँख लगती। मुझे आज भी याद है जब पहली बार दायां हाथ हल्के से उठा था तब मम्मी ने फ़िज़ियोथेरेपिस्ट को लडडू खिलाया था , और जब पहली बार वॉकर के सहारे कड़ी हुई थी, तब पूरे मुहल्ले में मिठाइयां बटी थी।

5. लोगों ने आश्चर्य जताया था – कि जो लड़की कल तक हँस खेल रही थी ,वो आज ऐसी हालत में कैसे आ गयी। जो मेरे करीब थे – उन्होंने साफ़ बोल दिया कि ये सब मेरे शरीर के प्रति गैर ज़िम्मेदराना स्वभाव के कारण हुआ था। वहीँ जिनकी नज़रों में मैं बिगड़ी हुई लड़की थी – उन्होंने तो मेरा चरित्र प्रमाणपत्र भी दे दिया था। लोगों को पता नहीं क्यों ये समझना गवारा नहीं हो रहा था कि – ये सब डिहाइड्रेशन का एक्सट्रीम केस था।

पहली बार दायां हाथ हल्के से उठा था तब मम्मी ने फ़िज़ियोथेरेपिस्ट को लडडू खिलाया था , और जब पहली बार वॉकर के सहारे कड़ी हुई थी, तब पूरे मुहल्ले में मिठाइयां बटी थी।

6. सबसे ज्यादा सपोर्ट परिवार, दोस्तों , डॉक्टर्स , फ़िज़ियोथेरेपिस्ट और आया आंटी से मिला।

7.अभी मैंने नौकरी फिर से ज्वाइन कर ली है और साथ ही रिकवरी फेज़ के ख़त्म होने का इंतज़ार का रही हूँ ताकि मुझे डॉक्टर से फिटनेस सर्टिफिकेट मिल जाए।

8. सन्देश कुछ खास नहीं पर यही कि हलके से सिरदर्द को भी नज़रअंदाज़ न किया जाए और समझें कि आत्मा की सोच को सार्थक होने में शरीर काफी मायने रखता है।

बीमारी के बारे में

सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस  – सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस एक असामान्य मस्तिष्क विकार है। वयस्कों में इस स्थिति की शुरूआत की औसत आयु 39 साल है। महिमा के मामले में इतनी कम उम्र में ऐसी भयनाक बीमारी होना बड़ा ही रेयर केस था।  सेरेब्रल थ्रॉम्बोसिस तब होता है जब मस्तिष्क के वीनस साइनस में खून का थक्का जम जाता है। यह रक्त को मस्तिष्क से बाहर निकलने से रोकता है। शिराओं और रक्त कोशिकाओं पर दबाव बढ़ जाता है, जिससे सूजन और शिराओंमें रक्तस्त्राव होने लगता है। लगभग 25 फीसद मामलों में इस रोग का सबसे आम लक्षण है- सिरदर्द। आईएमए के अनुसार, लगभग 80 फीसदी रोगियों को पूरी तरह से ठीक करना संभव है। इस रोग की पुनरावृत्ति की दर लगभग 2-4 फीसद है। आंकड़ों के मुताबिक, यह एक लाख की आबादी में किसी एक व्यक्ति को होता है। इस बीमारी से ग्रसित करीब 5 फीसदी लोग बीमारी बिगड़ने पर मर जाते हैं, जबकि 10 फीसदी मरीज की मौत बाद में होती है। पुरुषों की तुलना में यह रोग महिलाओं में अधिक होता है।

 

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