साहित्य और सिनेमा का रिश्ता गहरा तो है मगर साहित्य से सिनेमा सालों से दूर रहा है। या यूँ कहें कि यह रिश्ता वृत्तचित्रों और धारावाहिकों तक सिमटकर रह गया है तो गलत नहीं होगा। ऐसे में आजादी के बाद 50 के दशक को ध्यान में रखकर लिखी गयी कहानी को आधार मानकर पूरी की पूरी फिल्म और फीचर फिल्म बनाना मॉल संस्कृति में लिपटे तथाकथित आलोचकों को एक बेवकूफाना हरकत लग सकती है। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियाँ आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं…उनकी कहानी पर बनी तीसरी कसम भले ही उस समय फ्लॉप रही हो मगर आज वह क्लासिक कही जाती है….एक बार फिर उनकी कहानी पंचलाइट पर बनी फिल्म सिनेमाघरों में आ चुकी है। दरअसल, पंचलैट वह अतीत है जहाँ उनको भारत की ओर मुड़कर देखना अपनी हार लगे या कड़वा सच तो शायद ज्यादा सही है। गाँव अब वृत्तचित्रों में भी अच्छा लगता है और वहाँ से एक ही स्टोरी कई बार निकल सकती है – मरते हुए किसान….इसके अलावा कुछ और देखना शायद लोग चाहते ही नहीं मगर महतो टोला सच इस अंदाज में कहता है कि जब आप हॉल से बाहर निकलते हैं तो वह गाँव और माहौल देर तक आपके अंदर रहते हैं। पंचलैट ऐसी ही क्रांति है।
गत 17 नवम्बर को रिलीज हुई फिल्म को पर्याप्त शो भले न मिले हों मगर इसने उस वर्ग को एक बार फिर सिनेमाघरों की ओर मोड़ा है जो सिनेमा की स्तरहीनता को कोसता हुआ मुँह मोड़कर बैठा है। लोग 100 किमी जाकर सिनेमा के टिकट खरीद रहे हैं और यह जिद एक जरूरी सी है जिसकी जीत के लिए अरसे बाद साहित्यकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने जैसे कमर कस ली है…पंचलैट की उपलब्धि इस एकता को वापस लाना ही है। एक ऐसा नायक जिसके पास सिक्स और एइट पैक्स एब्स नहीं हैं….नायिका ऐसी जिसके पास चमचमाती साड़ी नहीं है और लोकेशन के नाम पर गाँव का घुप्प अँधेरा…। भला ऐसी फिल्में मल्टीप्लेक्स में चलेंगी? ऐसी फिल्म जिसके कलाकार फिल्म के प्रचार के लिए खुद सड़क पर निकल पड़े हैं….जिनका प्रोमोशन एक आम फिल्म की तरह हो रहा है…जहां किसी पांच सितारा होटल की जरूरत नहीं है और एक ऐसी फिल्म जिसका प्रोमोशन आम आदमी कर रहा है…यह पंचलैट की सफलता है कि घर के बड़े बच्चों का हाथ पकड़कर सिनेमाघरों में ले जा रहे हैं…पंचलैट ने उल्टी गंगा बहा दी है। मासूमियत, हंसी, सादगी…एक दूसरे का हाथ पकड़ना और दूसरे के आंसू पर रोना उल्टी गंगा ही तो है…गाँव ऐसा जहाँ लोग एक पेट्रोमैक्स जलाना तक नहीं जानते है और जलाने के लिए उसके सामने भी झुकते हैं जिसे जुर्माना न देनने पर निकाल दिया जाता है। वही गोधन मौसी के कहने पर सारे गिले -शिकवे मिटाकर गाँव के लिए पंचलैट जलाने चला भी आता है…ऐसी सरलता उल्टी गंगा बहाना नहीं है तो क्या है?
तो हम भी फिल्म देखकर आए…हॉल में ज्यादा दर्शक नहीं थे मगर जो भी थे…गम्भीर थे…कोई सीटी नहीं…कोई पॉपकॉर्न भी नहीं…और फिल्म के बाद सीटों पर जमे रहना…बता रहा था कि कुछ तो है जो उनको पीछे मोड़ रहा है…शहरों में रहने वालों के दिलों में गाँव छिपा रहता है……गाँव उनके लिए ऑक्सीजन है…तभी सप्ताह में या महीने भर में एक बार छुट्टी मिली नहीं कि वे गाँव भागते हैं….हरे –भरे खेतों में…चौपाल में और मिट्टी के उन घरों में भी…जहाँ उनका बचपन बीता है…पंचलैट ने उस गाँव को जिन्दा कर दिया। गाँव में घुप्प अंधरा….और अंधेरे का साथी….पेट्रोमैक्स जो एक लक्जरी है…सभी के पास है…बस महतो टोला के पास नहीं है…और इसे लेकर उनका मजाक भी उड़ाया जाता है..पंचायत जब गोधन से जुर्माना माँगती है तो उसके पीछे भी पंचलाइट खरीदने की भावना ही है…पंचलैट नाक का सवाल है…।
जब अाप अमितोष पाल को राज कपूर के गेटअप में देखते हैं….अनायास ही मुस्कुराहट आ जाती है मगर ये वाले राज कपूर थोड़े फास्ट हैं….उनकी डॉयलाग डिलिवरी में भी राज कपूर का अन्दाज है मगर उनके किरदार की मजबूती उस गँवई सादगी में है जो उनकी आँखों में है…बगैर किसी मुलम्मे के…वह सिर्फ गेटअप से नहीं आ सकती…इसके लिए किरदार में घुसने की जरूरत है। अनुराधा मुखर्जी ने भी उनका साथ मुनरी के रूप में बखूबी दिया है…खासकर उस दृश्य में जहाँ गोधन से लम्बे अरसे बाद पहली बार मिलती हैं। इस दृश्य में अनुराधा का अभिनय और उनके हाव – भाव बस देखने लायक हैं। यशपाल शर्मा और रवि झांकल जैसे कलाकारों का अभिनय तो मँजा – मँजाया है…गोधन द्वारा कल्पना झा उर्फ सरपंचाइन के किरदार को भौजी कहने पर यशपाल शर्मा के चेहरे पर जो भाव आते हैं..वह बड़े मजेदार हैं…एक ऐसा व्यक्ति जो त्रिशंकु जैसा ही है…पत्नी से प्यार है मगर पत्नी को सबसे छुपाकर रखना चाहता है और उसकी हर ख्वाहिश को पूरा भी करना चाहता है।
अपने दृश्यों में सब अभिनय करते हैं मगर सरपंचाइन का अभिनय आप उन दृश्यों में भी देखते हैं जहाँ उनके संवाद नहीं हैं…यही थियेटर का अनुशासन है और हर बार की तरह कल्पना ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। संगीत बेहद सुरीला और कर्णप्रिय है जो कानों को राहत देता है….हर गीत में गाँव में मेलजोल की संस्कृति आपको नजर आती है…खासकर गा भइया गा गीत में। भाषा में बिहार की विभिन्न बोलियाँ हैं और रासलीला में तो ब्रज और मथुरा ही उतर आए हैं। रासलीला का यह दृश्य उसकी मौलिकता के साथ दिखाना पंचलैट की सफलता है..। फिल्म किसी सेट पर नहीं बल्कि गाँव में ही फिल्माई गयी है। छायांकन फिल्म के विषय के अनुरूप ही है….जो लोग कभी गाँव नहीं गए और जिनके भीतर गाँव या भारतीय संस्कृति नहीं है…उनके लिए फिल्म को समझना थोड़ा कठिन है…पंचलैट ऐसी फिल्म है जो सही अर्थों में मास की फिल्म ही है और क्लास उसके दायरे में सिमट आता है। तीन पन्नों की कहानी को फैलाना और उसकी मौलिकता को बरकरार रखते हुए फैलाना आसान काम नहीं था मगर राकेश कुमार त्रिपाठी ने यह किया है। निर्देशक प्रेम मोदी ने सभी कलाकारों से उम्दा अभिनय करवा लिया है। ऐसी फिल्में ऑक्सीजन की तरह हैं…और पंचलैट साहित्य का सिनेमाई कोलाज है…जिसे ऑक्सीजन लगातार मिलते रहना चाहिए…उम्मीद मिलती रहनी चाहिए। प्रदूषण से थक गए हों और छुट्टी नहीं मिल रही हो तो पंचलैट देख आइए…ऑक्सीजन मिल जाएगा।
ट्रेलर हम दिखा दे रहे हैं…
https://youtu.be/AiRgMLfma-E