सुषमा त्रिपाठी
सर्वेक्षण के मुख्य निष्कर्ष
83 प्रतिशत डॉक्टर मानसिक या भावनात्मक थकान की शिकायत
87 प्रतिशत महिला व 77 प्रतिशत पुरुष डॉक्टरों को मानसिक थकान ,
50 प्रतिशत सप्ताह में 60 घंटे से अधिक काम करते हैं
15 प्रतिशत 80 घंटे से अधिक काम करते हैं
कोलकाता । स्वास्थ्य और शिक्षा किसी भी देश की प्रगति का आधार हैं। अस्पतालों में नर्स को सिस्टर और पुरुष नर्स को ब्रदर कहा जाता है यानि वे हमारे रक्षक हैं। जब आप हाथ- पैर हिला भी नहीं सकते तब यही ब्रदर और सिस्टर आपकी जीवनरेखा बन जाते हैं। कई बार तो ऐसा लगा कि ये डॉक्टर, नर्स ब्रदर – सिस्टर से कहीं अधिक माता – पिता जैसी देखभाल करते हैं। दिल्ली का निर्भया कांड याद है…? निर्भया डॉक्टर बनना चाहती थी और अभया एक जूनियर डॉक्टर थी। घंटों की शिफ्ट के बाद वह आराम करने गयी थी जब उसके साथ दरिंदगी की गयी। खबरें कुछ और कहती हैं और सच्चाई कुछ और दिखती है। हम अपने स्वास्थ्य को लेकर लापरवाह रहते हैं और अस्पतालों में जाकर चमत्कार की उम्मीद करते हैं। हम भूल जाते हैं कि वह भी हमारी तरह इंसान हैं, उनकी जिंदगी है, दिक्कतें हैं। गौर कीजिएगा कि आप और हम गुस्से में किस तरीके से उन लोगों के साथ किस अभद्रता के साथ पेश आते हैं जो हमारी मदद करते हैं। बेहतर नतीजों के लिए एक सुरक्षित परिवेश जरूरी है पर आंकड़े कुछ और कहते हैं।
राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस सर्वेक्षण से पता चलता है कि 80 प्रतिशत से ज़्यादा डॉक्टर मानसिक थकावट की शिकायत करते हैं, जिसमें छोटे शहरों भारत के आधे डॉक्टर हफ़्ते में 60 घंटे से ज़्यादा काम कर रहे हैं—जो राष्ट्रीय औसत से कहीं ज़्यादा है—फिर भी लगभग 43 प्रतिशत का कहना है कि उन्हें कमतर आंका जाता है। ये निष्कर्ष राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस के उपलक्ष्य में जारी किए गए देश भर के 10,000 से ज़्यादा स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों पर किए गए अपनी तरह के पहले सर्वेक्षण से सामने आए हैं। एक प्रमुख मेडिकल ब्रांड, कन्या की रिपोर्ट एक चिंताजनक प्रवृत्ति को उजागर करती है: मानसिक थकान का बढ़ता स्तर, सुरक्षा संबंधी चिंताएँ और काम का अत्यधिक बोझ, जो चिकित्सा पेशेवरों—विशेषकर युवा और महिला डॉक्टरों—को उनकी सीमाओं से परे धकेल रहा है। 25-34 वर्ष की आयु के डॉक्टर सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। वे न केवल सबसे लंबे समय तक काम करती हैं, बल्कि सबसे ज़्यादा पछतावे का स्तर भी बताती हैं। 70 प्रतिशत डॉक्टरों का कहना है कि उन्हें चिकित्सा पेशे के लिए किए गए व्यक्तिगत त्यागों पर पछतावा है। 35 वर्ष की आयु के बाद यह स्तर काफ़ी कम हो जाता है, जो शुरुआती करियर में बर्नआउट को एक प्रमुख चिंता का विषय बताता है। महिला डॉक्टरों को अक्सर शौचालय की स्वच्छता और अपने कपड़े बदलने व आराम करने के स्थानों में सुरक्षा की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह आगे कहती हैं, “यह खासकर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में सच है, जहाँ महिला डॉक्टरों को बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं दी जातीं।”तीन में से एक डॉक्टर को अपने या परिवार के लिए प्रतिदिन 60 मिनट से भी कम समय मिलता है। छोटे शहरों के 85 प्रतिशत डॉक्टर थकान की, 43 प्रतिशत कम वेतन और कम मूल्यांकन महसूस करते हैं। दस में से सात चिकित्सा पेशेवरों का कहना है कि वे कार्यस्थल पर सुरक्षित महसूस नहीं करते। 70 प्रतिशत महिला डॉक्टर काम पर असुरक्षित महसूस करती हैं। टियर 2 और 3 शहरों की 72 प्रतिशत महिला डॉक्टर असुरक्षित महसूस करती हैं—महानगरों की तुलना में 10 प्रतिशत ज़्यादा। 75 प्रतिशत को चिकित्सक बनने का है।83 प्रतिशत डॉक्टर मानसिक या भावनात्मक थकान की तो 87 प्रतिशत महिला व 77 प्रतिशत पुरुष डॉक्टरों को मानसिक थकान होती है। 50 प्रतिशत चिकित्सक सप्ताह में 60 घंटे से अधिक काम करते हैं और 15 प्रतिशत 80 घंटे से अधिक काम करते हैं। अक्सर, एक महिला डॉक्टर की वैवाहिक स्थिति उसके काम के मूल्यांकन को प्रभावित करती है, न कि उसके साल भर के प्रयासों और कड़ी मेहनत को मान्यता देती है। इस क्षेत्र के कई लोग मानते हैं कि एक महिला डॉक्टर, चाहे उसकी वास्तविक योग्यताएँ कितनी भी हों, एक कुशल सर्जन नहीं हो सकती। यहाँ तक कि डीन और वरिष्ठ डॉक्टर भी महिला छात्रों को स्त्री रोग जैसे विशेषज्ञताओं की ओर आकर्षित करते हैं, और उन्हें सर्जरी या अन्य पुरुष-प्रधान विशेषज्ञताओं को अपनाने से हतोत्साहित करते हैं।” इसके अलावा, महिला डॉक्टरों को अक्सर शौचालय की स्वच्छता और अपने कपड़े बदलने व आराम करने के स्थानों में सुरक्षा की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह आगे कहती हैं, “यह खासकर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में सच है, जहाँ महिला डॉक्टरों को बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं दी जातीं।”