पेशेवर जीवन के दो दशक से अधिक का समय बीत चला है तो आज कई बातें उन महत्वाकांक्षी युवाओं और अवसरवादी संस्थानों से कहने का मन हो रहा है जो अपने संस्थानों के विश्वसनीय एवं निष्ठावान पुराने कर्मचारियों की भावनाओं के साथ शतरंज खेलते हैं । कर्मचारी जो रसोई में तेजपत्ते की तरह होते है, पहले उनको चढ़ाया जाता है, नींबू की तरह निचोड़ा जाता है और फिर जब वह सीनियर बनते हैं तो दूध में मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। आजकल सबकी शिकायत रहती है कि निष्ठावान लोग नहीं मिलते। जो नये लोग मिलते हैं..वह संस्थान को प्रशिक्षण संस्थान समझकर सीखते हैं और चल देते हैं। एक बार आइने में खड़े होकर देखिए और आपको पता चल जाएगा कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है। सबसे बड़ी बात यह है कि मालिकों को अब खुद से पूछना चाहिए कि क्या वह इस लायक हैं कि उनको कोई समर्पित कर्मचारी मिले जो उनके संस्थान के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दे। कॉरपोरेट जगत वकालत कर रहा है कि कर्मचारियों को 70 घंटे काम करना चाहिए..सवाल है क्यों करना चाहिए…और सबसे बड़ी बात आखिर इसके बाद कर्मचारियों को क्या मिलना है? क्या जिन्दगी में पैसा ही सब कुछ है और चंद रुपये अगर मिल भी जाएं तो क्या आप गारंटी देते हैं कि ऐसे कर्मचारियों को कभी काम से नहीं निकाला जाएगा? अगर आप खुद वफादार नहीं हैं तो आपको वफादारी की उम्मीद क्यों होनी चाहिए। .ऐसे लोगों को कर्मचारी नहीं…वफादार कुत्तों की जरूत है..दिमागी तौर पर बीमार लोग हैं ये।
आजकल एक मुहावरा चला है कि अंधा अपनी देख पाने पर लाठी फेंक देता है…आधी बात हम पूरी करते हैं..दरअसल लाठी अंधे को बेबस समझकर तब अपना उल्लू सीधा करने लगती है…उसका सहारा नहीं रह जाती..वो उसे हांकने लगती है…अंधे की मजबूरी का फायदा उठाने लगती है..उसे लगता है कि अंधे तो हज़ार हैं..कोई न कोई मिल ही जाएगा और जब वो मिल जाए तो कल तक वो जिसका सहारा थी उसके सर पर बजने भी लगती है तो अंधे को अपनी जान बचाने के लिए मजबूर होकर लाठी छोड़नी पड़ती है…वो गिरने का जोखिम उठा रहा होता है कि ईश्वर दूसरी और कहीं बेहतर लाठी भेज देते हैं..मगर गिरने नहीं देते
इसी तरह संस्थान अपने पुराने कर्मियों के साथ गेम खेलते हैं…नए चेहरे लाकर उनको बेइज्जत किया जाता है…नए लोगों को मौका देने के नाम पर पुराने लोगों से हर चीज़ छीनी जाती है…जिसने पूरा जीवन दे दिया आपके संस्थान को चमकाने में…वो आपके लिए दूध की मक्खी हो जाता है..आप अपना वेतन और सुविधाओं के साथ समझौते नहीं चाहते मगर पुराने लोगों की पदोन्नति और वेतन आपको चुभते हैं…नए लोग आपकी शह पाकर पुराने लोगों के साथ खेलते हैं..और आप पुराने लोगों पर ईर्ष्या का टैग लगा देते हैं…फिर मानसिक और आर्थिक उत्पीड़न शुरू होता है और मजबूरन आपके संस्थान की नींव की ईंट बना वो व्यक्ति आपकी बेईमानी की आग में खत्म होकर रह जाने से बेहतर आपको छोड़ना समझता है…
एक बात जो नए लोग शॉर्टकट में इस गेम का हिस्सा बन रहे हैं..वो जान लें कि पुराने तो आप भी होंगे..धक्का आपको भी दिया जाएगा..सफ़लता सीढ़ियों से चढ़कर आएगी तो गिरेंगे तो भी सीढ़ी सम्भाल लेगी..शॉर्टकट लिफ्ट है…बीच में ही रुकेगी तो दम घुट भी सकता है और गिरे तो सीधे खत्म हो जाएंगे…वो सीढ़ी…कोई और नहीं आपके वही सीनियर हैं…जिनको अपमानित कर आप खुद को विजेता समझ रहे हैं..ऊंचाई कभी किसी की नहीं होती…कितने भी बड़े हों एक दिन उतरना ही पड़ेगा और तब आपको सहारे की जरूरत पड़ेगी तब क्या करेंगे? जिनको आप पायदान समझ रहे हैं…वो तब आपके साथ क्यों रहेंगे…इतनी हड़बड़ी क्यों है? धोखेबाज आप दोनों हैं पुराने लोग नहीं।
सीनियर किसी नदी का पत्थर नहीं होते जो आपको अपनी पीठ दें कि आप उन पर चढ़कर कॅरियर की नदी पार करें, वह सीढ़ी भी नहीं होते कि आप उनकी पीठ को पायदान बनाकर चापलूसी का सहारा लेकर सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जाएं। मत भूलिए कि आप भी एक दिन वरिष्ठ होंगे और आज आप जिनकी चापलूसी के लिए तलवे चाटने में लगे हैं, वही कल आपको धक्के मारकर निकाल देंगे और पहचानेंगे तक नहीं। एक दिन आएगा जब आपकी चालाकियां पकड़ी जाएंगी और आपको भी वैसे ही धक्के मारकर निकाला जाएगा जैसे आपने अपने सहकर्मियों को निकलवाया था, उनको अपमानित करवाया था । लालच की लिफ्ट पर चढ़कर आप इतने अंधे हो गये कि जिस मकान ने आपको आसरा दिया…आप उसी को गिराने की साजिशें रचने लगे? अगर इतना ही सामर्थ्य है तो अपनी इच्छा शक्ति से अपनी मेहनत से अपने लिए स्थान बनाइए…आप जो कर रहे हैं या आपने जो किया..उसे ही विश्वासघात कहते हैं…जब आप किसी के न हुए तो अपने लिए इतनी उम्मीदें क्यों?
अगर अगर आप पैकेज के पीछे कुत्तों की तरह भाग रहे हैं तो कॉरपोरेट में कुत्तों की तरह ट्रीटमेंट पाने के लिए तैयार रहिए क्योंकि कोई भी आपको करोड़ों का पैकेज आपका चेहरा देखने के लिए नहीं देगा। जो लोग पैकेज की वकालत करते हैं, वह भूल जाते हैं कि कार्यास्थल का परिवेश, अच्छे सहकर्मी, सीखने का माहौल..भी बहुत जरूरी है। ऐसी जगह जहां आप काम करने के साथ सांस ले सकें…खुलकर जी सकें…बहुत जरूरी है….। पैकेज पर ध्यान देना जरूरी है…मगर इसके साथ जरूरी है कि आपको एक सुरक्षित परिवेश भी मिले। बाकी राजनीति तो हर जगह है, यह आप पर है कि आप कितना सीखते हैं, और किस तरह आगे जाते हैं। जहां भी दीजिए शत -प्रतिशत दीजिए..नहीं दे सकते तो जगह खाली कीजिए..ब्रेक लीजिए और फिर आगे बढ़िए।
बहुत से युवा और वरिष्ठ भी एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी, एक संस्थान से दूसरे संस्थान बस भागते ही रहते हैं…इससे होता क्या है कि आपकी क्षमता और आपकी जवाबदेही के साथ आपके गुडविल पर भी सवाल खड़े होते हैं । जब काम छोड़ें तो एक वाजिब कारण तो होना ही चाहिए। अपने निजी अनुभव से कह रही हूँ..जब कोई आप पर विश्वास करता है और आप उसे छोड़कर कहीं और जाते हैं और बताए बगैर जाते हैं तो बहुत तकलीफदेह होता है। इसकी पीड़ा भी किसी रिश्ते के छन से टूटने जैसी होती है । अगर आपको जाना ही है और आपका संस्थान बहुत अच्छा है, सहयोग करता है तो इसका आदर कीजिए। समय लीजिए और सबसे पहले अपना बैकअप तैयार कीजिए..अपना विकल्प तैयार कीजिए..मानसिक रूप से तैयार कीजिए और बहुत अच्छे वातावरण को बनाए रखकर आगे बढ़िए…बगैर किसी शिकायत के…और अपने रिश्ते बरकरार रखिए..यही चीजें काम आती हैं अंत में। आप देखेंगे…आपके कठिन से कठिन दौर में आपके सहकर्मी, आपके सहयोगी..आपके सीनियर आपके साथ होंगे…तब भी जब आपके अपने आपके साथ न हों..।
मेरा सुझाव यह है कि कहीं भी नौकरी से पहले यह जरूर देखें कि उस दफ्तर में सीनियर लोगों के साथ कैसा बर्ताव होता है क्योंकि सीनियर तो काम करते हुए आप भी होंगे। माना कि कॉरपोरेट में रिश्ते नहीं बनते या हमें अपने काम से काम रखना चाहिए मगर दफ्तर में हम मशीन बनकर तो काम नहीं कर सकते। मुझे तो लगता है कि कार्यस्थल पर ही कई बार अच्छे दोस्त मिल जाते हैं, अच्छे सीनियर मिल जाते हैं जो कई बार सिर पर छत की तरह बन जाते हैं । अच्छे मेंटर का मिलना, अच्छा सीनियर मिलना भाग्य की नहीं, सौभाग्य की बात है, उनका आदर कीजिए…सीखिए मगर इस्तेमाल मत कीजिए क्योंकि हम औऱ आप जो करते हैं,,,वही कर्म लौटकर आता है।