Monday, April 21, 2025
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पीहू पापिया की दो कविताएं

पथभ्रष्ट 
हां मैं पथभ्रष्ट थी
सरापा पंक से सनी हुई
कोयले की खान में भी पड़े थे कदम
घने दलदल से खुद को बाहर खींचा है मैंने
बदनामी की परवाह किए बगैर
अनुभवों की बाढ़ में डुबकी लगाई है।
नज़रिये का झूठ सच
बड़ा पेचीदा विषय है
मैंने राह अलग पकड़ी थी
उलटी गंगा बहाई है
अंधे कूप की हवा भी खाई है
गहरी खाइयों के दर्शन किए है मैंने
ज्वलंत नरक तक हो आई हूं
असुरों से भी पाला पड़ा है मेरा।
अपशब्दों का शब्दकोष पढ़ा है मैंने
ज़बान इनके प्रयोगों का मज़ा चख चुकी है
खुद को छोड़ दुनिया भर को
अपनी तबाही का जिम्मेदार ठहराया है
षड् रिपुओं से यारी थी अपनी
ईर्ष्या और तुलना के साथ
रोज़ का उठना बैठना था
आलोचना सभा के हम
सरताज हुआ करते थे।
कलंक का बोझा लिए फिरती हूं
अज्ञानता वशीभूत होकर
नर बलि चढ़ाई है मैंने
पाप की गागर फूट चुकी मेरी
मेरे पास मेरे अपने तर्क थे
जो प्रत्येक वर्तमान की सच्ची गवाही देते हैं।
फिर भी ईश्वर ने प्रेम निभाया है
मुझ सरफिरे को
सच्चा मार्ग दिखाया है।
सदियों के कलंकित जागरण के बाद
क्या सुकून की निद्रा के लिए
क्षमा का बिस्तर मिलेगा?
हां मैं अंगुलिमाल हूं
क्या मुझे वाल्मीकि बनने का अवसर मिलेगा?
………………
चल रही है रगड़ाई
चल रही है रगड़ाई बन्धू
मत घबराना
खुशनसीब हो तुम
चुने गये हो
सब्र धर
करता जा काम
इस पिसाई का बड़ा अर्थ है
बाधा नहीं चुनौती है
लाख टके का मौका है
मुफत का कुछ भी
कभी होता है भला
चुकाना पड़ता है मोल
हर ख्वाहिश का
जो रखे हौसला
उसी की नैया पार लगे
बस थोड़ा सा
सह जा
बह जा
आगे तेरे नाम लिखे
बहुतेरे धमाल है बन्धु।
शुभजिता

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