लोस चुनाव विशेष : मतदाता सूची में महिलाओं का नाम फलाने की बीवी, पहले चुनाव आयुक्त ने हटवाया

पहला चुनाव कराने में 6 महीने लगे
नयी दिल्ली । वोटर लिस्ट में महिलाओं के नाम फलाने की बीवी, फलाने की माता या फलाने की बेटी…आपको शायद यह पढ़कर बेहद अटपटा लगे, मगर देश के पहले आम चुनाव के वक्त वोटर लिस्ट में महिलाओं का नाम सीधे-सीधे नहीं लिखवाया जाता था। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं का परिचय कुछ इसी तरह से दिया जाता रहा है। लेकिन, एक व्यक्ति की कोशिशों ने यह तस्वीर बदलकर रख दी। वह थे देश के पहले चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन, जो नाम से भले ही सुकुमार थे, मगर फैसलों से बेहद सख्त।
बात तब की है, जब 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हो चुका था। उस वक्त अंतरिम सरकार चल रही थी। ऐसे में यह सोचा गया कि देश का शासन लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार द्वारा चलाया जाए। लोग यह मानते रहे कि यह काम कुछ ही महीने का है। हालांकि, नई सरकार का गठन इतना भी आसान नहीं था। जनवरी, 1950 में चुनाव आयोग बना और होनहार सुकुमार सेन को देश का पहला चुनाव आयुक्त की कमान दी गई।
वोटिंग लिस्ट के पहले मसौदे में 40 लाख महिलाओं के नाम दर्ज नहीं हो पाए
सुकुमार सेन के सामने चुनाव क्षेत्रों के नामांकन से लेकर वोटर लिस्ट बनाने जैसी कई बड़ी चुनौतियां थीं। आखिरकार कड़ी मशक्कत के बाद मतदाता लिस्ट का पहला मसौदा प्रकाशित हुआ तो पता चला कि इसमें 40 लाख महिलाओं के नाम दर्ज होने से रह गए। इन महिलाओं को फलाने की बेटी या फलाने की बीवी के रूप में दर्ज किया गया था। आजादी से पहले कुछ इसी तरह से महिलाओं के नाम लिखे जाते थे। मगर, ये आजाद भारत था। सुकुमार सेन अड़ गए और कहा कि महिलाओं को उनके अपने नाम से ही जाना जाएगा। इसके बाद से आम चुनावों में महिला वोटर्स के नाम ही उनकी पहचान बने।
आजादी के वक्त देश में 17 करोड़ वोटर्स, सेन ने मतदाता  को बनाया ताकतवर
आजादी के वक्त देश में 17 करोड़ वोटर्स थे, जो आज की तारीख में करीब 98 करोड़ हो चुके हैं। इतना लंबा सफर तय करने में चुनाव आयोग की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इससे ज्यादा भूमिका सुकुमार सेन जैसे ईमानदार और दृढ़ कर्तव्य वाले चुनाव आयुक्तों की रही। सुकुमार सेन ने वोटर्स को ताकतवर बनाने का बीड़ा उठाया। 17 करोड़ वोटर्स को 3200 विधायक और लोकसभा के लिए 489 सांसद चुनने थे। इन वोटर्स में से महज 17 फीसदी ही साक्षर थे। ऐसे में चुनाव आयोग को मतदान के खास तरीके ईजाद करने पड़े। आयोग ने चुनाव कराने के लिए 3 लाख से ज्यादा अफसरों और चुनावकर्मियों को ट्रेनिंग दी गई।जब अंग्रेजों ने उड़ाया मजाक तो सेन ने दिया करारा जवाब
सुकुमार सेन की कवायद का अंग्रेज मजाक उड़ाते कि आने वाले वक्त में दुनिया लाखों अनपढ़ लोगों के मतदान की बेहूदी नौटंकी देखेगी। किसी ने कहा कि भारत में यूनिवर्सल वोटिंग राइट्स कराने का आइडिया ठीक नहीं है, क्योंकि उस समय तक यूरोप के बहुत से देशों और यहां तक कि खुद को लोकतंत्र का बड़ा नुमाइंदा कहलाने वाले अमेरिका में भी महिलाओं को वोटिंग राइट्स नहीं थे। मगर, सुकुमार सेन लोगों के खिल्ली उड़ाने की परवाह नहीं की और न ही उन्होंने सफल चुनाव कराने के लिए किसी तरह का कोई समझौता ही किया।
पहले आम चुनाव में हर प्रत्याशी के लिए मतपेटी
पहले आम चुनाव में सुकुमार सेन ने यह फैसला किया कि हर एक मतदान केंद्र में हर उम्मीदवार के लिए एक मतपेटी खी जाएगी और मतपेटी पर प्रत्याशी का चुनाव चिह्न छपा होगा। हर वोटर को एक खाली मतपत्र दिया जाएगा, जिसे वह अपने पसंद के उम्मीदवार की मतपेटी में डालेगा। इस काम के लिए 20 लाख स्टील के बक्सों का इस्तेमाल हुआ। चुनाव चिन्ह और बाकी ब्यौरों को दर्ज करने के लिए मतपेटी को पहले सरेस कागज या ईंट के टुकड़े से रगड़ना पड़ता था। शुरुआती दो चुनावों के बाद यह तरीका बदल दिया गया। अब मतपत्र पर हर उम्मीदवार के नाम पर मुहर लगानी होती थी। यही तरीका अगले 40 सालों तक अपनाया जाता रहा। 90 के दशक के आखिर में आयोग ने ईवीएम का इस्तेमाल शुरू किया और 2004 तक पूरे देश में ईवीएम का इस्तेमाल होने लगा।
सुकुमार सेन ने आखिर सारी तैयारियों के बाद अक्टूबर, 1951 से फरवरी, 1952 तक चुनाव कराया। यह 1952 का ही चुनाव कहा जाता है, क्योंकि ज्यादातर चुनाव 1952 में हुआ। चुनाव कैंपेन, वोटिंग और मतगणना में 6 महीने लग गए। लोगों ने इस चुनाव में जमकर भागीदारी की। कुल वोटर्स में से 50 फीसदी से ज्यादा ने वोट डाले। यूनिवर्सल वोटिंग राइट्स वाले इस चुनाव ने आलोचकों के मुंह बंद कर दिए। पूरी दुनिया तक यह मैसेज गया कि भारत ने कामयाबी के साथ इतना बड़ा चुनाव करा लिया। 1952 का चुनाव पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।
(साभार – नवभारत टाइम्स)

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