डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व की बात आते ही आंँखों के समक्ष एक विशाल कैनवास उभर कर आता है, जहाँ उत्तर प्रदेश और बंगाल की समवेत छवि तो उभरती ही है साथ ही एक मेधावी छात्र, सुसंस्कृत पुत्र,पांडित्य के गुणों से भरपूर एक संवेदनशील और सजग चेहरा उपस्थित हो जाता है। साहित्य लेखक की कलम से निकले शब्दों का वह संदेश है जो व्यष्टिगत होकर समष्टिगत रूप ले लेता है। उसकी सृजनशीलता नये प्रतिमानों को स्थापित करने और नये युग के लिए नये आयाम रचता है।
2018 में भारत सरकार द्वारा हिंदी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र को ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। मूर्ति देवी पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ, महात्मा गांधी सम्मान, विद्या निवास मिश्र सम्मान, साहित्य भूषण से सम्मानित डॉ. मिश्र का लेखन बलिया का मिजाज, पृष्ठभूमि, गांँवों के स्वाभिमान, मूल्यों और मानस को निकट से समझने वाला है।
हिंदी के शिक्षक, साहित्यकार और समीक्षक डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र का जन्म सन् 1936 को बलिहार, बलिया, उत्तर प्रदेश में हुआ। निबंध, पत्रकारिता जीवनी संस्मरण संपादन अनुवाद आदि विविध विधाओं में लिखा।
हिंदी भाषा के प्रति उनका अगाध प्रेम साहित्य का वह स्वर्णाक्षर पृष्ठ है जिनके लिए शब्दकोश के सारे विशेषण भी कम है।संवेदनशील, मूल्य परक और सर्जनात्मक ऊँचाई और भारत की सर्वश्रेष्ठ परंपरागत ‘मनीषा’ के संवाहक डॉ. मिश्र सबसे पहले एक बड़े इंसान हैं। कलकत्ता के बंगवासी कॉलेज में अध्यापक रहे उनके साहित्यिक अवदान की महत्ता और गुणवत्ता हिंदी शिक्षा जगत में अपनी विशिष्ट पहचान रखती है। उम्र के अंतिम पड़ाव की अवस्था में भी साहित्य और समाज के लिए जो व्यक्ति सोचता है कि वह निश्चित ही अपनी माटी को प्रेम करने वाला है।
मैंने जब उनसे पूछा कि आपकी तबीयत कैसी है? तो कहने लगे ‘अब तो बूढ़ा हो गया हूँ।’ सच है कि शरीर से तो बुढ़ापा है लेकिन आंँखों की चमक अभी भी गंँवई खुश्बू से ओतप्रोत है। साहित्यकार की सृजनात्मक शक्ति जब तक सक्रिय है, वह युवा ऊर्जा से भरपूर है। तभी तो एक और नयी पुस्तक ‘सांँझ की जम्हाई और सर्जनशील उजास’ जिसका प्रकाशन लेखक के जन्मदिन के दिन (5,नवंबर, 2017) पर हुआ, मुझे देते हुए बहुत ही उत्साहित लगे। वही पान की लाली से लसित दोनों ओष्ठ और मुढ्ढे पर आराम से बैठ कर फोन की घंटी उठाना। कहीं कोई शिथिलता नहीं,लगा उस छोटे- से कमरे से पूरे देश का संबंध है, भारतीय संस्कृति की गूँज सुनाई पड़ रही थीं।
मैंने कहा कि कलकत्ता में तो कोई भी ऐसी साहित्यिक संस्था नहीं है जिसने आपको नहीं बुलाया होगा। ख़ास कर भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद, अपनी भाषा, कुमार सभा पुस्तकालय, मित्र परिषद्,बांधाघाट हनुमान पुस्तकालय, हिंदी बंग परिषद्, राम मंदिर आदि असंख्य गैर सरकारी संस्थाओं और सरकारी संस्थाओं के साथ- साथ सरकारी बैंकों में आपको बड़े ही सम्मान के साथ विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित करते रहे हैं।
मूर्ति देवी पुरस्कार से सम्मानित विद्या संस्कारी और विद्वता के पथ पर चलने वाले हिंदी जगत में आपकी परंपरा के विद्वानों में आपका विशिष्ट स्थान है।
केवल एक संस्था ‘साउथ बेलेघाटा वेलफेयर सोसायटी’ के संस्थापक अध्यक्ष रहे। जिस समय देश में बावरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी और उस समय बंगाल में हिंदू – मुस्लिम दोनों ही शरणार्थी बड़ी संख्या में बंगाल में शरण के लिए आए, उस दुख की घड़ी में डॉ मिश्र ने दोनों के लिए ही शिविर का आयोजन किया।’जनसत्ता’ ने ‘घायल संवेदना का दर्द’ शीर्षक से पूरे पृष्ठ का कवरेज दिया जिसे कवर करने के लिए ‘जनसत्ता’ की पूरी टीम आई थी जो बहुत बड़ी बात थी ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि डॉ. मिश्र समाज और समाज की भाषा से सरोकार रखने वाले लेखक रहे हैं। वे रिक्शे वाले से लेकर भंगी और एक जून रोटी खाने वाले सभी से बात करते हैं, जाड़े में ठिठुरने वालों के लिए सोचते हैं। कोलकाता के धनाढ्य लोगों से कहकर उनके लिए कंबल आदि का इंतजाम भी करवाते हैं। साथ ही पढ़ने के लिए, नौकरी के लिए लोगों की यथासंभव मदद भी करते हैं। आज भी हनुमान पुस्तकालय की असंख्य मूल्यवान पुस्तकों के पुनरुद्धार लिए आपके मन को मैंने उद्वेलित होते हुए देखा। इस पुरानी संस्था को बचाने के लिए आपने तुलाराम जालान जी को भी पत्र लिखा था। शिक्षा और साहित्य को समृद्ध करने के साथ – साथ आप अपने जीवन में सदैव ईमानदारी और न्याय का ही पक्ष लेते रहे। आप किसी भी संस्था या संगठन के विचारों से प्रभावित नहीं रहे बल्कि जिस किसी भी मंच ने आपको आमंत्रित किया, वहाँ अपने विचारों और सिद्धातों पर ही अडिग रहे।
हिंदी की विशिष्ट संस्था भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता से लेखक का जुड़ाव तब से था जब उसकी शुरुआत केमक स्ट्रीट में स्थित एक भाड़े के घर से हुई थी। सीताराम सेकसरिया जी ने अपने स्नेही विद्वान कृष्ण बिहारी मिश्र जी को बुलाया और परिषद् के साथ जुड़ने का वचन लिया। सीताराम सेकसरिया जी और भागीरथ कानोड़िया जी इस संस्थान के कर्णधार रहे और दोनों के ही भरोसे पर खरे उतरे डॉ मिश्र। लेखक के गुरु आचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी सीताराम सेकसरिया जी के प्रति आदर भाव रखते थे। भारतीय भाषा परिषद्(1975 में स्थापित) से लेखक का आदिकाल से नाता रहा और सभी प्रमुख साहित्यिक आयोजनों में बतौर विशिष्ट अतिथि या अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित भी होते रहे। बीच में संबंध टूटे भी लेकिन सीताराम सेकसरिया के ज्येष्ठ पुत्र अशोक सेकसरिया के कारण फिर जुड़े।यहाँ तक कि डॉ. मिश्र ने इसी संस्था के कर्मचारियों के साथ होने वाली अनीति और दुर्नीति के लिए आंदोलन में भी योगदान दिया। वे सहृदयता की मूर्ति हैं उन्होंने कर्मचारियों के हितों के पक्ष में फैसला करवाया। इसी तरह कहीं भी दुर्निती दिखाई पड़ने पर विरोध प्रकट करने में भी पीछे नहीं हटते।
मंच चाहे किसी भी विचारधारा का हो, जलेस या राजनीतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक कोई भी संस्था यदि आमंत्रित करती है तो डॉ. मिश्र पूरी निष्ठा के साथ जाते हैं और अपनी बात रखते हैं। वे साहित्यकार के रूप में अपनी बात कहते हैं।
पत्रकारिता पर उनका शोध ग्रंथ ‘हिंदी पत्रकारिता:जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण भूमि’ हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुआ है। देश के सभी शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में इस पुस्तक का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में होता रहा है। इसके अतिरिक्त’ पत्रकारिता :इतिहास और प्रश्न ‘,’ गणेश शंकर विद्यार्थी’, ललित निबंध संग्रह ‘बेहया का जंगल’ , ‘मकान उठ रहे हैं’ , ‘आंगन की तलाश’ , ‘अराजक उल्लास’ , ‘नेह के नाते अनेक’ ,’ हिंदी साहित्य: बंगीय भूमिका’ आदि विशिष्ट पुस्तकें लेखक की हिंदी सेवा का प्रमाण है।
एक और कालजयी ग्रंथ ‘कल्पतरु की उत्सव लीला ‘की रचना लेखक की अमूल्य देन है जो समाज की नब्ज को समझते हुए साहित्य में एक नया अध्याय है। हिंदी साहित्य में रामकृष्ण परमहंस के विचारों और चिंतन की आवश्यकता को समय की मांग समझते हुए लेखक ने बंगाल में रहकर परमहंस पर लिखने का साहस किया। यह खतरा एक संवेदनशील और सजग साहित्यकार ही उठा सकता है। आधुनिकता की आंँधी में भारत की युवा पीढ़ी के समक्ष परमहंस के अध्यात्म को प्रतिष्ठित कर समाज को अपनी संस्कृति और अध्यात्म के संरक्षण के लिए संदेश दिया है। इसी ग्रंथ को भारतीय ज्ञानपीठ ने सर्वोच्च पुरस्कार ‘मूर्ति देवी’ से सम्मानित किया। पुरस्कार समारोह का आयोजन भारतीय भाषा परिषद् के सभागार में हुआ जो लेखक के चाहने वालों से भरा हुआ था।
हरिवंश जी (सांसद) प्रमुख संपादक प्रभात खबर ने अपने लेख में लिखा था , ‘डॉ. मिश्र से उनका परिचय उनके ललित निबंध संग्रह ‘बेहया का जंगल’ के माध्यम से हुआ जो सर्जनात्मक ऊंँचाई और भारत की सर्वश्रेष्ठ परंपरा गत मनीषा की झलक है। हिंदी पत्रकारिता की समृद्ध परंपरा, मूल्य, त्याग और तेज को सामने लाने का काम जिस तरह से कृष्ण बिहारी मिश्र जी ने किया और कर रहे हैं, वैसा कोई दूसरा नाम हिंदी विद्वानों में दिखाई नहीं देता, पर उनके इस योगदान का महत्व तो बाद में जाना, समझा या आत्मसात कर पाया। ‘
हिंदी से संबंधित किसी भी विषय पर आपका वक्तव्य हिंदी के प्रकांड विद्वानों आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, आचार्य चंद्र बलि पांडेय, डॉ. विद्यानिवास मिश्र जैसे विद्वानों के सूत्रों को जोड़ता हुआ लगता है। आचार्य डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्य भला पीछे कैसे रह सकते हैं? डॉ. मिश्र का व्यक्तित्व भारतीय परंपरा के श्रेष्ठ मूल्यों, आदर्शों और सत्यों पर टिका है, यही कारण है कि जब वे किसी संस्थान में अपना अध्यक्षीय भाषण देते हैं तो उसमें लेखक का गंभीर अध्ययन , चिंतन झलकता है।
भारतीय संस्कृति संसद संस्था, कोलकाता ने’ कल्पतरु की उत्सव लीला’ ग्रंथ पर ‘मेरी सृष्टि मेरी दृष्टि’ कार्यक्रम का आयोजन किया जो उनकी रचनाशीलता और चिंतन पर आधारित था। लगभग दो घंटे तक आपका वक्तव्य लोग सुनते रहे। तन और मन से संवेदनशील लेखक का व्यक्तित्व एक अभिभावक जैसा है।उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान का हिंदी साहित्य जगत और समाज डॉ. मिश्र को अपने ही परिवार का समझता है और उनके पास उनके घर में मिल कर अपना सौभाग्य समझते हैं। एक बार कवि और लेखक अशोक वाजपेयी जी की पत्नी कोलकाता आईं और आपसे मिल कर गईं तो अपने छोटे घर के प्रति कहीं-न-कहीं आपको लगा कि उन्हें कष्ट होगा, परंतु यह लेखक का सदा से भ्रम रहा है कि मेरा छोटा कमरा कहीं किसी को परेशान न करे।परंतु आज जिन्होंने भी डॉ. मिश्र के साहित्यिक कृतित्व और व्यक्तित्व से सरोकार रखा है, उन्हें इस बात का पता है कि यह छोटा – सा कमरा उनके जीवन में क्या महत्व रखता है। यह लेखक के लिए विद्या मंदिर है, आपके गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी भी इस कमरे में रहे हैं, अज्ञेय जी, ब.व.कारंत आदि विद्वानों का आगमन होता रहा है।इस कमरे का वातावरण विशुद्ध साहित्यिक और अध्यात्म की सुरभि से सुरभित है। भारतीय मनीषा रचनाकारों को “कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू” मानती है जो भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही है। रचनाकार ऋषि-मुनियों मुनियों की परंपरा का निर्वहन करने वाला स्वयंभू सदृश होता है।
साहित्य सेवी भाषाई संस्कारों से युक्त डॉ. मिश्र गुरु परंपरा को निभाने वाले अपने विद्या कर्म के लिए समर्पित हैं। एसी रूम में गांँव की सोंधी खुश्बू नहीं आती, महानगर में रहकर गांँव को सहेजने का दुष्कर कार्य बहुत कम लोग ही कर पाते हैं, डॉ मिश्र ने इसका पुरजोर प्रयास किया।
कोलकाता में भोजपुरी संस्था की ओर से आयोजित कार्यक्रम में राजनेता और गायक मनोज तिवारी के आगमन पर आपकी उपस्थिति उस कार्यक्रम की शोभा बनी। मुझे स्मरण आता है राजस्थान ब्राह्मण संघ के कार्यक्रम’ परंपराओं में आस्था’ में डॉ. मिश्र मेरे कहने से आए थे और वह आशीर्वाद ही था।आपके कर – कमलों से लोकार्पण करवाने के लिए संस्था अपने को गौरवान्वित समझती है। ‘परंपराओं में आस्था’ पुस्तक मेरे और परम विदूषी दुर्गा व्यास के संपादन में लिखी गई थी, समाज का बड़ा कार्यक्रम था आपकी उपस्थिति मात्र से ही कोलकाता का हिंदी समाज स्वयं को भाग्यशाली मानता है।
यह भी सच्चाई है कि डॉ. मिश्र बड़े ही नाजुक प्रकृति के भी हैं, जब तक तबियत ठीक नहीं समझते, संस्था के आमंत्रण को स्वीकृति नहीं देते।
कोलकाता के हिंदी साहित्य जगत में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रबुद्ध विद्वानों में आचार्य कल्याण मल लोढा और डॉ विष्णुकांत शास्त्री जैसे प्रकांड पंडितों का भरपूर हाथ रहा है, लेकिन डॉ. मिश्र एक कॉलेज में अध्यापन करते हुए भी साहित्य साधना में एक साधक की तरह रत रहे। साहित्यिक यात्राओं से भी कतराते रहे, कोलकाता के सेठ- साहूकारों से भी दूर रहे। यह अलग बात है कि आपकी विद्वता और ईमानदारी ने कोलकाता के गरीब से लेकर अमीर तक के लोगों के दिल जीते हैं। उसी का परिणाम है कि आपको सभी हिंदी संस्थाएँ आमंत्रित करने में अपना सौभाग्य समझती हैं। कोलकाता का हिंदी जगत डॉ. मिश्र के साहित्यिक व्यक्तित्व से लाभान्वित है। हिंदी के विद्यार्थियों को कभी भी हिंदी उच्च शिक्षा या पीएचडी में कोई असुविधा होती है तो वे सलाह लेते हैं, काम रुकता नहीं है।
भारतीय संस्कृति संसद, कोलकाता की हिंदी की एक और संस्था है जो भारतीय संस्कृति की परंपरा को अक्षुण्ण रखने तथा साहित्य -संगीत – कला की त्रिवेणी को विकसित करने के लिए अनवरत सक्रिय कार्य कर रही है। इसका प्रमुख कारण है कि यहाँ विगत साठ वर्षों से मूर्धन्य साहित्यकारों, कला, संगीत और संस्कृति के विद्वानों को आमंत्रित किया जाता रहा है। 8 मई, 1955 में इस संस्था की स्थापना स्वनामधन्य श्री माधोदासजी, श्री रामनिवास ढंढारिया, श्री हरि प्रसाद माहेश्वरी, श्री गोकुल दासजी जैसे महापुरुषों के सद्प्रयास से हुआ। बंगाल के विश्रुत विद्वान एवं मूर्धन्य इतिहास विद् डॉ. कालीदास जी नाग संस्था के प्रथम अध्यक्ष नियुक्त हुए। देश के वरिष्ठ एवं विशिष्ट साहित्यकार, विचारक, समीक्षक, कवि सभी भारतीय संस्कृति संसद के आमंत्रण को सहर्ष एवं सोत्साह स्वीकार करते थे। डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने संसद के आमंत्रण पर लिखा था कि मेरी नई उपलब्धि का सम्मान जहाँ होना चाहिए था, वहाँ तो मुझे अँगूठा दिखाया जा रहा था और कलकत्ता में हिंदी की एक साहित्यिक संस्था मेरा सम्मान करना चाहती थी।धर्म तल्ला में स्थित यह संस्था काव्य – कथा – कला – संगीत-संस्कृति आदि के महत्वपूर्ण सेमिनार आयोजित करती रही है।
वर्तमान समय में इस संस्था का संरक्षण डॉ. विट्ठल दास मूँधड़ा जी कर रहे हैं। पं. जसराज जी और डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र जी का सम्मान एक साथ इसी संस्था ने किया।भारत का कोई भी ऐसा विद्वान नहीं है जिसे संसद ने आमंत्रित न किया हो। हिंदी के प्रचार – प्रसार के लिए संसद निरंतर कार्य शील है। डॉ. मिश्र कोलकाता के वरिष्ठ साहित्यकार हैं जिनका रचना – संसार बड़ा फलक लिए हुए है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र की हार्दिक इच्छा थी कि डॉ. मिश्र रामकृष्ण परमहंस पर कुछ लिखें। डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने यह इच्छा उस समय व्यक्त की जब कृष्ण बिहारी मिश्र के साथ वे माँ के दर्शन के लिए दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के उसी प्रांगण में थे, जहांँ माँ भवतारिणी का विशाल परिसर था। संभवतः डॉ. विद्यनिवास मिश्र माध्यम बने थे। डॉ. मिश्र ने बंगाल के परमहंस की बतकही शैली को बंगाल की संस्कृति के रंग में नहाये बलिया की माटी से बने अपनी बोली और भाषा को बचाने का भगीरथ प्रयास ‘कल्पतरु की उत्सव लीला’ के बहाने किया जो आपके वृद्धावस्था की ऊर्जा का द्योतक है।
डॉ. मिश्र से मैंने कहा आपने जो लिखा वह अवकाश प्राप्ति के पश्चात लिखा, पहले लिखते तो आपकी पुस्तकों की संख्या बढ़ जाती। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि समझती हो न वसुंधरा, ठाकुर की कृपा हुई है उसी माँ ने आदेश दिया है, तभी लिखा गया। जो लिख गया उसी माँ की कृपा है …… वही लिखवाती है। एक जगह वे कहते हैं, ‘कोयल अपनी बोली नहीं भूलती चाहे वह महानगर में ही क्यों न रहती हो।’ मुझे लगता है कि डॉ. मिश्र की यही गंँवई संवेदना आधुनिक युग जीवन जीने वालों के लिए ऐसी सीख है जो हमें मनुष्य बनाने की ओर ले जाती है।पद्मश्री से सम्मानित डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र का साहित्य हिंदी भाषा की संवेदना के प्रति संकल्पबद्ध है और आने वाले युग में इसकी अनिवार्य भूमिका रहेगी।
7 मार्च 2023 में आपने भौतिक जगत् छोड़ दिया और एक नई अनजानी राह पर चल पड़े। ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी आत्मा को शान्ति मिले। विनम्र श्रद्धांजलि।