10 साल हो गए… उस जगह को छोड़े जहां मेरा बचपन बिता.. वो कहते है ना.. मेरी हर पहली चीज इस शहर को पता है। चकिया…बिहार में है यह जगह ।
मेरा स्कूल, मेरा कॉलेज…सब कुछ। जब भी घर से कॉलेज जाना होता था, तब 2-3 किमी पैदल चलकर जाना और आना। शाम को घर आने के बाद भी कोई थकान नहीं। होगी भी क्यों… मौसम ही इतना सुहाना होता।
और छठ… अपने घर में नहीं होती थी पूजा… पर घर में तो होती थी। पड़ोस वाली अन्टी जब गेंहू सुखाती तो मां हमें डांटती कि उधर मत जा, छठ का गेंहू सुख रहा है। फिर शाम वाला अर्घ्य… बुढी गंडक का किनारा… हल्की – हल्की पड़ रही सर्दी और पटाखे। नदी के घाट पर जब पटाखे फूटते है… तो दूर से सुनकर ऐसा लगता है जैसे हांडी के अंदर किसी ने पटाखे रखकर फोड़ा है। मैं कभी भी भोर में नहीं जागती हूं पर भोर घाट वाले दिन मां बस एक बार बुलाती और आँखें मलते हुए मैं उठ बैठती। भोर वाले अर्घ्य के लिए अंधेरा रहते हुए ही घर से निकलना… साल में शायद वो एक दिन होता था, जब सूरज को उगते हुए देखती थी। सूरज निकलने के बाद गंडक में छपछप करना और Naturally गरम पानी का वो अहसास… फिर आता था the best part of chhath… ठेकुआ…. Missing everything.
ओह बताना तो भूल ही गयी… Sir के घर से खरना वाली शाम को जब प्रसाद आता था… उसमें मेरी फेवरिट होती थी लकड़ी के चूल्हे पर बनी रोटी और गुड़ वाली खीर। Ah…heaven. आज भी वो taste ढूंढती हूं… पर कहीं मिलती ही नहीं। तस्वीर 8 साल पुरानी है जब चकिया गयी थी ।
(फेसबुक से साभार ली गयी पोस्ट। मौमिता पत्रकार हैं और कई वर्षों से हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं)