देश का ऐतिहासिक देव सूर्य मंदिर बिहार की विरासत है। मंदिर के इतिहास पर नजर डालें तो मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। काले पत्थरों को तरासकर मंदिर का निर्माण कराया गया है। देश में भगवान सूर्य के कई प्रख्यात मंदिर हैं परंतु देव में छठ करने का अलग महत्व है। मंदिर को लेकर कई किंवदंती है। औरंगाबाद से 18 किलोमीटर दूर देव सूर्य मंदिर करीब 100 फीट ऊंचा है। मान्यता है कि मंदिर का निर्माण त्रेता युग में नौ लाख वर्ष पहले भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं किया था। मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक मंदिर को त्रेतायुगीन बताते हैं। मंदिर विश्व धरोहर में शामिल होने के कतार में है।
सूर्यकुंड तालाब है कुष्ठ निवारक
त्रेतायुग में राजा एल थे। वे इलाहाबाद के राजा थे। जंगल में शिकार खेलते देव पहुंचे। शिकार खेलने के दौरान राजा को प्यास लगी। देव स्थित तालाब का जल ग्रहण किया। राजा कुष्ठ रोग से ग्रसित थे। राजा के हाथ में जहां-जहां जल का स्पर्श हुआ वहां का कुष्ठ ठीक हो गया था। राजा गड्ढे में कूद गए जिस कारण उनके शरीर का कुष्ठ रोग ठीक हो गया। रात में जब राजा विश्राम कर रहे थे तभी सपना आया कि जिस गड्ढा में उसने स्नान किया था उस गड्ढा के अंदर तीन मूर्ति दबे पड़े हैं। राजा ने जब गड्ढा खोदा तो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की मूर्ति मिली जिसे मंदिर में स्थापित किया। इस सूर्यकुंड तालाब को कुष्ठ निवारक तालाब कहा जाता है।
तीन स्वरूपों में विराजमान हैं भगवान सूर्य
देव में छठ करने का अलग महत्व है। यहां भगवान सूर्य तीन स्वरूपों में विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह में भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में है। मंदिर में स्थापित प्रतिमा प्राचीन है। सर्वाधिक आकर्षक भाग गर्भगृह के उपर बना गुंबद है जिस पर चढ़ पाना असंभव है। गर्भगृह के मुख्य द्वार पर बाईं ओर भगवान सूर्य की प्रतिमा और दाईं ओर भगवान शंकर की गोद में बैठे मां पार्वती की प्रतिमा है। ऐसी प्रतिमा सूर्य के अन्य मंदिरों में नहीं देखा गया। गर्भगृह में रथ पर बैठे भगवान सूर्य की अद्भुत प्रतिमा है। मंदिर के मुख्य द्वारा पर रथ पर बैठे भगवान सूर्य की प्रतिमा आकर्षक है।
पश्चिमाभिमुखी है मंदिर का मुख्य द्वार
देशभर में स्थित सूर्य मंदिरों का मुख्य द्वार पूरब होता है परंतु देव सूर्य मंदिर का द्वार पिश्चमाभिमुख है। कहा जाता है कि औरंगजेब अपने शासनकाल में अनेक मूर्तियों को तोड़ते हुए देव पहुंचा। मंदिर तोड़ने की योजना बना रहा था तभी लोगों की भीड़ एकत्रित हो गई। लोगों ने ऐसा करने से मना किया परंतु वह इससे सहमत नहीं हुआ। औरंगजेब ने कहा कि अगर तुम्हारे देवता में इतनी ही शक्ति है तो मंदिर का द्वार पूरब से पश्चिम हो जाए हम इस मंदिर को छोड़ देंगे। ऐसा ही हुआ। सुबह में लोगों ने देखा तो मंदिर का प्रवेश द्वार पूरब से पश्चिम हो गया था।
देव में माता अदिति ने की थी पूजा
देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गए थे तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में छठी मैया की अराधना की थी। प्रसन्न होकर छठी मइया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र त्रिदेव रूपेण आदित्य भगवान जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहते हैं कि उस समय सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन प्रारंभ हुआ।
स्नान के बाद चंदन लगाते हैं भगवान सूर्य
देव सूर्य मंदिर में विराजमान भगवान सूर्य प्रत्येक दिन स्नान कर चंदन लगाते हैं। नया वस्त्र धारण करते हैं। आदिकाल से यह परंपरा चलती आ रही है। प्रत्येक दिन सुबह चार बजे भगवान को घंटी बजाकर जगाया जाता है। जब भगवान जग जाते हैं तो भगवान स्नान करते हैं। भगवान के ललाट पर चंदन लगाते हैं। फूल-माला चढ़ाने के बाद खुश होने के लिए आरती दिखाई जाती हैं। भगवान को आदित्य हृदय स्रोत का पाठ सुनाया जाता है। भगवान को तैयार होने में 45 मिनट का समय लगता है। जब भगवान तैयार हो जाते हैं तो पांच बजे श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए पट खोल दिए जाते हैं। रात नौ बजे तक भगवान श्रद्धालुओं के लिए गर्भगृह के आसन पर विराजमान रहते हैं। रात नौ के बाद भगवान का पट बंद कर दिया जाता है।
श्रद्धालुओं की उमड़ती है भीड़
कार्तिक एवं चैत छठ में लाखों की संख्या में श्रद्धालु व्रत करने पहुंचते हैं। छोटा सा कस्बा भक्तों की संख्या से पट जाता है। यहां लाखों श्रद्धालु छठ करने झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छतीसगढ़, महाराष्ट्र समेत देश के अन्य राज्यों से आते हैं। मान्यता है कि जो भक्त यहां भगवान सूर्य की आराधना करते हैं उनकी मनोकामना पूर्ण होती है।
(साभार – दैनिक जागरण)