स्त्री के अपहरण और उसके काली रूप की चर्चा सनातन धर्म के कई ग्रंथों में मिलता है। इसी प्रसंग में बहुत महत्त्वपूर्ण कथा आयी है सीता का काली के रूप में अवतार का। अद्भुत रामायण में यह कथा आयी है। अद्भुत रामायण वर्णित कथा के अनुसार रावण के वध के बाद राज्याभिषेक के उपरान्त सीता ने कहा कि कैकसी से दो पुत्र हुए थे, एक दस सिर वाला और दूसरा सहस्र सिर वाला। अब तक केवल दस सिर वाला रावण ही मारा गया है। वह तो छोटा था. सहस्र सिर वाला रावण पुष्कर द्वीप में रहा करता है। हे राम उसे मारने पर आपकी बड़ाई होगी।
सहस्रबाहु रावण से राम का हुआ था युद्ध
राम ने सीता का प्रस्ताव स्वीकार किया और पुष्पक विमान से पुष्कर क्षेत्र की ओर चल पड़े. विमान पर सीताजी भी साथ थीं। राम की सारी सेनाएं गयी। युद्ध आरंभ होने के पूर्व ही सहस्रमुख रावण ने ऐसा वायव्यास्त्र चलाया कि सारी सेना अपने अपने घर लौटकर राम और सीता की चिन्ता करने लगी। सहस्रबाहु के साथ राम का भीषण युद्ध चला, जिसमें राम मूर्च्छित हो गये।
ब्रह्मा से भी सीता का उग्र काली रूप न हो सका शांत
यह देखकर सीता ने काली का रूप विकराल रूप धारण किया और सहस्रमुख रावण के सभी सिरों को काटकर उन्हें गेंद बना कर खेलने लगीं। उनका यह भयंकर रूप सान्त नहीं हो रहा था। सीता के इस काली रूप को देखकर सभी देवता दौड़ पड़े। ब्रह्माजी ने राम की मूर्छा दूर कर दी, लेकिन सीता का वह विशाल काली रूप उनसे शान्त नहीं हो पाया। तब अंत में सभी देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना की।
सीता के काली रूप को शांत करने को आये महादेव
देवताओं ने कहा कि आप ही अब इनके रूप को शान्त करें नहीं तो सृष्टि समाप्त हो जायेगी। भगवान शिव ने देवों की प्रार्थना स्वीकार की और वे पृथ्वी पर लेट गये। काली के रूप में सीता का पैर जब भगवान शिव के हृदय पर पड़ा, तो वह लज्जा के कारण शान्त हो गयीं और उनका सौम्य रूप प्रकट हुआ। फिर वह आद्या शक्ति के रूप में राम से जा मिलीं. इस प्रकार अदभुत रामायण की कथा कहती है कि रावण का वध सीता ने काली का रूप धारण कर खुद किया।
सनातन धर्म की पांच शाखाएं विकसित हुई
साक्त संप्रदाय के जानकार पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि इस कथा में हम जिस साम्प्रदायिक समन्वय की भावना देखते हैं, उसने बाद में समाज को एकजुट करने का कार्य किया। इसी के तहत पुराणों में विभिन्न प्रकार की कथाएँ कही गयीं तथा उसी परम देव ब्रह्म के अनेक रूपों में मानवीकरण हुआ। इस पद्धति में पाँच शाखाएँ विकसित हुई- सौर, गाणपत्य, शैव, शाक्त एवं वैष्णव. एक छठी शाखा शाखा भी थी, जो आग्नेय शाखा कहलाती थी। इसमें अग्नि को भी मुख्य देवता माना गया। बाद में चलकर सूर्य तथा गणेश से सम्बन्धित शाखा विलुप्त हो गयी. शेष तीन बचे, जिनमें प्रत्येक शाखा के ग्रन्थ अपनी परम्परा को सबसे ऊपर मानने लगेय़
आगम पद्धति से सनातन की सभी संप्रदायों का समन्वय हुआ
वैदिक काल में सभी लोग वेद के मन्त्रों से परिचित थेय़ लोग उपासना में उन मन्त्रों का व्यवहार करते थे लेकिन धीरे-धीरे जब जनसंख्या बढ़ी और जनता अपने अपने कौलिक धंधे में लग गयी तो वेद मन्त्रों से दूर हुई। अतः उन्हें देवता की उपासना जोड़ने के लिए आगम पद्धति का विकास हुआ। इस आगम पद्धति में पौराणिक तथा तान्त्रिक शाखाएँ हुईं। यह सभी लोगों के लिए पद्धति थी। विगत 1000 वर्षों में सबके समन्वय की भावना आयी। इसके तहत शिव तथा शक्ति का समन्वय स्थापित किया गया, फिर शिव के साथ विष्णु की एकात्मकता के सूत्र खोजे गये।
(साभार – प्रभात खबर)