कोलकाता । पश्चिम बंगाल हिंदी अकादमी सूचना एवं संस्कृति विभाग, पश्चिम बंग सरकार द्वारा आयोजित द्वितीय दो दिवसीय राष्ट्रीय रंग संगोष्ठी का आयोजन रवींद्र सदन के बंगला अकादमी में आयोजित की गयी। चार सत्रों में विभाजित संगोष्ठी का विषय “हिंदी नाटक और रंगमंच चुनौतियाँ एवं संभावनाएं ” था। इस कार्यक्रम का उद्घाटन रंग निर्देशिका और अभिनेत्री अनुभा फतेहपुरिया ने किया। विशिष्ठ अतिथि के रुप में प्रसिद्ध फिल्म निर्माता, निर्देशक व अभिनेता प्रेम मोदी ने सिनेमा और रंगमंच पर अपनी बात रखते हुए कहा, ‘थियेटर ही अच्छे कलाकार को बनाता है अच्छे कलाकार की जन्मभूमि थियेटर ही है। संगोष्ठी में बीज वक्तव्य सुमन कुमार ने दिया। उन्होने कहा, ‘बहुत कुछ है बोने के लिए धरती पर क्या बोना है, यह हमें ही देखना है। अगर प्रेम बोयेंगे तो प्रेम और घृणा बोयेंगे तो घृणा ही मिलेगी। हमें कल्पनाओं में देखा हुआ बड़ा सपना हमें ,यथार्थ में बदलने की कोशिश करनी चहिए। हमारे समाज में रंगमंच का होना बहुत जरूरी है । वक्ता के रुप में कोलकाता से डॉ. अरुण होता ने कहा कि भाषा कभी भी हमारे सामने रुकावट बन कर नहीं आती विरोध करना हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती है हमारी रचना में प्रतिरोध का होना अनिवार्य है वरना हमारे लेखन का कोई उद्देश्य नहीं रह जाता।रंगकर्मी एवं लिटिल थेस्पियन की निदेशक अभिनेत्री उमा झुनझुनवाला ने कहा कि कलाकार ,निर्देशक, नाट्यकर्ता और रंगमंच से जुड़ी हर एक चीज की जानकारी होनी चाहिए। नाटक में जितनी जरूरत अभिनेता ,निर्देशक ,मंच, लाइट और बाकी सब चीजों की होती है,उतनी ही जरूरत दर्शकों की भी होती है। प्रथम सत्र का सफल संचालन डॉ शुभ्रा उपाध्याय ने किया ।
दूसरे सत्र की अध्यक्षता डॉ. प्रताप सहगल ने की। मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित डॉ. गीता दूबे ने नाटक के अनुवाद पर अपनी बात रखते हुए कहा कि अनुवाद की समीक्षा करना कठिन है अनुवाद करना ऐसा होता है जैसे इतर एक शीशी से दूसरे शीशी में करने पर भी उसकी सुगंध पहले वाली शीशी में रह जाती है। जितेंद्र पात्र ने प्रकाशन पर अपनी बात रखते हुए कहा कि नाटक का रूपांतरण हर बार अलग-अलग तरीके से होता रहा है लेकिन इसे कहीं ना कहीं से व्यापारिक क्षेत्र की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। इस सत्र के अध्यक्ष प्रताप सहगल ने अनुवाद रूपांतरण प्रकाशक और मौलिक नाटकों पर बात करते हुए कहा कि काव्य ही काव्य का मूल है जो मंच पर नाटक करते हैं और जो पाठकों है उनके अंदर भी गतिशीलता होनी चाहिए। रस की अवधारणा भरत मुनि में थी। धीरे-धीरे रस की अवधारणा खत्म होने के कगार पर है पर पाठक अभी भी पढ़ते समय रस खोजते हैं। नाटक की पहली शर्त यह होनी चाहिए कि कि जब एक अभिनेता मंच पर जाए तो वह भावनाओं से परिपूर्ण होकर जाए ना कि अपने अंदर अहिंसा लेकर जाए। दूसरे सत्र का संचालन प्रो. अल्पना नायक ने किया।
तीसरे सत्र की अध्यक्षता महेश जायसवाल ने की। वक्ता राजेश कुमार ने नुक्कड़ नाटकों पर बात करते हुए कहा कि व्यक्तिगत शैली की तरह नुक्कड़ नाटक होना चाहिए। डॉ प्रज्ञा ने नुक्कड़ नाटक की राजनीतिक और सामाजिक चेतना पर अपनी बात रखी तथा। इस सत्र के अध्यक्ष महेश जायसवाल ने कहा कि नाटक साहित्य का एक मुख्य अंग है और हम साहित्य से अलग नाटक को नहीं देख सकते है। तीसरे सत्र का संचालन इतु सिंह ने किया। अंत में इस तीनों सत्र का धन्यवाद ज्ञापन पश्चिम बंगाल हिंदी अकादमी, कला विभाग की संयोजिका उमा झुनझुनवाला ने किया।
चतुर्थ सत्र में ‘ शोधर्थियों द्वारा रंगमंच पर शोध – पत्र का पाठ ‘ विषय के अंतर्गत पार्वती कुमारी शॉ ने ‘ अज़हर आलम के मौलिक नाटकों का विश्लेषण ‘पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया और सुलगते चिनार, नमक की गुड़िया, रूहें और चाक की समीक्षा पेश की । शोधार्थी सोनम सिंह ने अपने शोध पत्र ‘ भीष्म साहनी के नाटक पर में रंगमंचीयता ‘ पर बात रखी और ,माधवी ,हनुस, मुआविजा और कबिरा खड़ा बाजार में नाटकों के संबंध पर विचार रखे। इसी क्रम में आगे डॉ इबरार खान अपने शोध पत्र ‘समकालीन हिंदी उर्दू नाटकों में स्थित भ्रष्टाचार और बेरोजगारी ‘ को प्रस्तुत किया। उन्होंने भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से जुड़ी रचना सीढ़ियां ,ताजमहल का उद्घाटन, कानून के ताज़िर , मुआव़जे, जैसे रचनाओं पर अपनी बात रखी। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए रंगकर्मी जितेंद्र सिंह ने कहा कि शोध आगे की और पीछे की इतिहास को एकत्र करता है। संचालन मधु सिंह ने किया।
पंचम सत्र में ‘ आधुनिक रंगमंच के विकास में स्त्रियों का अवदान ‘ विषय के संबंध में संगम पांडेय ने कहा कि नाट्य शास्त्र के परिमार्जन से लेकर आज के आधुनिक रंगमंच में चाहे वह लेखन के क्षेत्र में हो, अभिनय के क्षेत्र में हो या फिर किसी नाट्य संस्था के विकास में स्त्रियों ने आगे बढ़कर काम किया है। प्रवीण शेखर ने कहा कि नाट्य लेखन के क्षेत्र में स्त्रियों ने मौलिक नाटक से लेकर अनुदित और रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है- जैसे मन्नू भंडारी, मीरा कांत ,उमा झुनझुनवाला, गुंजन अज़हर , वहीं नाटकों की समीक्षा के क्षेत्र में गिरीश रस्तोगी की मुख्य भूमिका के संबंध में अपना वक्तव्य रखें। अध्यक्षता करते हुए डॉ. सत्या उपाध्याय ने कहा कि आधुनिक रंगमंच के विकास में स्त्रियों ने व्यक्तिगत तौर पर रंगमंच के विकास में लगी हुई हैं। पश्चिम बंगाल में ही प्रतिभा अग्रवाल, उषा गांगुली, चेतना जलान, उमा झुनझुनवाला, कल्पना झा ,अनुभवा फतेपुरिया जैसे रंगकर्मी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संचालन करते हुए वसुंधरा मिश्रा ने कहा कि बंगाल की धरती में रंगकर्म को समृद्ध करने में स्त्रियों ने अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है।
षष्ट सत्र में भारतीय ‘ आधुनिक हिंदी रंगमंच के पड़ाव और चुनौतियाँ ‘ विषय के संबंध में जे पी सिंह ने कहा कि भारतेंदु युग ,प्रसाद युग और प्रसादोत्तर युग के बाद आधुनिक हिंदी रंगमंच को हम किस नाम से पुकारे, यह प्रश्न अब तक बना है यही भारतीय हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती है। वहीं डॉ मृत्युंजय प्रभाकर ने कहा कि भारतीय हिंदी रंगमंच के पड़ाव का विकास तब होगा, जब रंगमंच से कमाने वाले रंगमंच के लिए ख़र्च करेंगे। अध्यक्षता करते हुए प्रताप जायसवाल ने कहा कि नाटक करना आज स्वयं में एक चुनौती है,सच की जुबान है नाटक ,नाटक का मंचित होकर अर्थ का विस्तार होते जाना रंगमंच का एक पड़ाव है। भारतीय रंगमंच में भाषा कभी भी बाध्यता नहीं बनी । दर्शकों का विस्तार को बढ़ाना सबसे बड़ी माँग है आज के रंगमंच की । इस सत्र का संचालन डॉ सुफिया यास्मीन ने किया। अंत में उमा झुनझुनवाला ने कोलकाता के सभी कॉलेज के प्रोफ़ेसरों के प्रति आभार व्यक्त किया और विद्यार्थियों को प्रेरित किया।