सहिष्णुता, सौहार्द, समरसता ऐसे शब्द हैं जो किसी भी समाज और देश को मजबूत बनाते हैं। यह तब होता है कि वह देश या समाज अपनी नीतियों को निष्पक्षता के साथ निर्मित और लागू करे। समस्या तब होती है जब समरसता के नाम पर दो अलग – अलग मतों को जबरन साथ लाने का प्रयास किया जाता है या एक को दबाकर, दूसरे को महत्वहीन बना दिया जाता है। सत्य को ढकने या लीपापोती करने के परिणाम घातक होते हैं। यह सब हालिया घटनाओं को देखते हुए कहना पड़ रहा है। दो अलग – अलग विचारधाराओं के लोग अपनी अस्मिता के साथ अलग रहकर भी सौहार्द के साथ रह सकते हैं क्योंकि तब उन दोनों का अपना अस्तित्व होगा, पहचान सुरक्षित रहेगी। सारी समस्याओं की जड़ असुरक्षा का बोध होता है। तुष्टीकरण की राजनीति ने इसे मजबूत किया है और नतीजा है हमारे आस – पास होने वाली हिंसक घटनाएं।
ऐसी परिस्थिति में आम आदमी को ही इन परिस्थितियों के बीच उस धागे को सहेजना होगा मगर इसके लिए कदम दोनों ओर से उठाने होंगे, तभी कुछ हो सकता है। अगर आपको यह गलतफहमी है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी या कोई भी संगठन आपके विश्वास की रक्षा के लिए सड़क पर उतर रहा है तो यह सम्भल जाने का समय है। एक दूसरे की रक्षा के लिए अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर आगे बढ़ने की जरूरत है। ओवेसी हों या राज ठाकरे हों, महबूबा मुफ्ती हों, सबकी अपनी राजनीति है, अपने हथकंडे हैं और इन सबके बीच हम हैं। बस इतनी सी बात समझने की जरूरत है कि न तो हनुमान को अजान से दिक्कत है और न अजान को राम नवमी की यात्रा से…क्योंकि रास्ते अलग हो सकते हैं मगर लक्ष्य तो वही एक है ईश्वर…ईश्वर सत्य देखता है, प्रपंच नहीं..। हमारा धर्म, हमारा मजहब..सब एक ही होने चाहिए भारत…मानवता…और कुछ नहीं।