मध्यकालीन विदुषी कवयित्री कविरानी देवी

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, हिन्दी साहित्य का उत्तर मध्यकाल जिसे हम  रीतिकाल के नाम से भी जानते हैं, में कुछ कवयित्रियों ने भी कलम का हुनर दिखाया था। यह बात और है कि मोटे- मोटे इतिहास – ग्रंथों के बेशुमार पन्नों पर इन कवयित्रियों के नाम कहीं दर्ज नहीं हुए। प्रश्न यह नहीं है कि उनके द्वारा लिखी गई कविताएँ, पद या गीत कला या कविता के मानदंडों पर खरे उतरते हैं या नहीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि देश और समाज की उस पराधीनता के दौर में जहाँ स्त्रियाँ सबसे ज्यादा पराधीन थीं, अगर वे कुछ भी लिख, पढ़ या बोल रही थीं तो उसका नोटिस लिया जाना जरूरी है। उनकी रचनाओं को औरताना रचनाएँ कहकर टाल देना उन स्त्रियों के प्रति अन्याय होगा जो अपने तमाम सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के उपरांत ह्दय में बसे भावों को कविता में ढालने का अवसय निकाल लेती थीं। लेकिन हमारा समाज स्त्रियों के प्रति हमेशा ही अनुदार रहा है। गाँवों में जो स्त्रियाँ लोकगीत गाती हैं, कभी कभार उसमें समयानुसार कुछ परिवर्तन भी करती हैं या कुछ  कड़ियाँ अपनी कल्पनाशक्ति से जोड़ देती हैं या फिर प्रचलित धुन पर कोई नया गीत भी लिख लेती हैं। समय के साथ वह परिवर्तन स्वीकार्य हो जाता है और गीत लोकप्रिय लेकिन उस स्त्री विशेष की रचनात्मकता को कोई याद नहीं रखता। रचना तो लोककंठ में सुरक्षित रह जाती है लेकिन रचनाकार विस्मृत हो जाता है। लोक जीवन में न जाने ऐसी कितनी प्रतिभाशाली स्त्रियाँ हैं जिनके रचनात्मक अवदान को जाने -अनजाने भुला दिया गया। यह बात और है कि साहित्य में बहुत बार यह काम  बहुत सुनियोजित ढंग से होता आया है। न जाने कितने रचनाकारों का काम तो दूर नाम तक विस्मृति के गर्त में समा जाता है। थोड़ा -बहुत काम अगर होता भी है तो उस पर समय और उपेक्षा की धूल इस कदर छा जाती है कि उनकी पहचान धूमिल हो जाती है, इसीलिए समय- समय पर इस धूल को साफ करना जरूरी हो जाता है। ऐसा करने की कोशिश में ऐसी बहुत सी प्रतिभाशाली कवयित्रियों से मैं आपको मिलवा चुकी हूँ, आज आप का परिचय करवाऊँगी, रीतिकालीन कवयित्री कविरानी देवी से।

कविरानी देवी का एक परिचय यह है कि वह कवि लोकनाथ चौबे की पत्नी थीं, जो बूंदी के राजा बुधसिंह के दरबारी या आश्रित कवि थे और एक और परिचय है कि वह भी काव्य- रचना करती थीं।  बुधसिंह का कार्यकाल संवत 1752 से 1805 तक माना जाता है। अनुमान लगाया जा सकता है कि लोकनाथ चौबे और कविरानी देवी का रचनाकाल  भी वही रहा होगा। ज्योतिप्रसाद मिश्र “निर्मल” ने अपनी पुस्तक “स्त्री-कवि-कौमुदी” में कविरानी देवी को ‘सुकवि’ मानते हुए उनका परिचय इस प्रकार दिया है- “कविरानी देवी के पति कविराज लोकनाथ चौबे एक अच्छे कवि थे। इन्हीं की सत्संग में कविरानी देवी को भी कविता करने का अच्छा अभ्यास हो गया था। ये कविता अपने पति के समान सरल, सुन्दर और सरस करती थीं।” कविरानी देवी वस्तुत: एक पति परायणा पारंपरिक भारतीय नारी थीं जिन्हें कविराज की पत्नी होने का गर्व तो था ही और वह प्रसन्नता के साथ इसका बखान भी करती थीं। उनका एक पद यहाँ उद्धृत है जिसमें वह पतिप्रेम का वर्णन करती हुई अपनी विरह भावना की अभिव्यक्ति मार्मिक ढंग से करती हैं-

”  मैं तो यह जानी हो कि लोकनाथ पति पाय,

 

संग ही रहौंगी अरधंग जैसे गिरजा ।

 

एते पै विलक्षण ह्वै उत्तर गमन कीन्हों,

 

कैसे कै मिटत ये वियोग विधि सिरजा ।।

 

अब तौ जरूर तुम्हे अरज करे ही बने,

 

वे हू द्विज जानि फरमाय हैं कि फिरजा ।

 

जो पै तुम स्वामी आज अटक उलंघ जैहौ ,

 

पाती माहिं कैसे लिखूं मिश्र मीर मिरजा ।।”

कविरानी देवी में काव्य प्रतिभा ही नहीं थीं बल्कि वह अत्यंत बुद्धिमति स्त्री भी थीं और अपने बुद्धि कौशल से अपने जीवन की समस्याओं को सुलझाने का सामर्थ्य रखती थीं। उनके बारे में एक कथा सुनने में आती है। एक बार बूंदी नरेश बुधसिंह कवि लोकनाथ को अपने साथ लेकर राज कार्य से दिल्ली गये थे। वहाँ पहुँचकर राव राजा ने चौबे जी को किसी महत्वपूर्ण कार्य का भार देकर अटक के उस पार अर्थात सिंध नदी के पार जाने का हुक्म सुनाया। कहते हैं कि यह समाचार पाकर कविरानी देवी  बेहद चिंतित हुईं। चूंकि वह अत्यंत धर्मपरायण स्त्री थीं अतः उन्हें चिंता हुई कि कहीं सिंध के उस पार जाने से उनके पति के धर्म पर कोई आँच न आए क्योंकि उस तरफ दूसरे धर्म के लोगों का निवास था। वह समय ही ऐसा था कि लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं एवं जीवन शैली को लेकर अतिरिक्त रूप से सजग थे। साथ ही खान -पान से संबंधित नियमों को भी मानते थे और भक्ष्य-अभक्ष्य आदि के प्रति भी सचेत रहते थे। ऐसे में कविरानी देवी जैसी पारंपरिक एवं धार्मिक स्त्री का चिंतित होना स्वाभाविक ही था। इस समस्या के निवारण हेतु उन्होंने एक कवित्त लिखकर‌ अपने पति को भेजा और पति ने वह कवित्त राजा बुधसिंह को सुनाया। राजा उसे सुनकर इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने लोकनाथ चौबे को अटक पार भेजने का हुक्म लौटा लिया। उस कवित्त में विदुषी कविरानी देवी ने राव‌ राजा से विनती की थी कि वे उनके पति को घर लौट आने की आज्ञा दें ताकि उनकी विरह- व्यथा दूर हो। वह कवित्त देखिए –

“बिनती करहुगे जो वीर राव राजाजी सो,

 

सुनत तिहारी बात ध्यान मे धरहिंगे ।

 

पाती ‘कविरानी’ मोरी उनहिं सुनाय दीन्हो,

 

अवसि विरह-पीर मन की हरहिगे ।।

 

वे हें बुद्धीमान सुखदान बड़भागी बड़े,

 

धरम की बात सुन मोद सों भरहिंगे ।

 

मेरी बात मानौ राव राजा सों अरज करौ,

 

लौटन को घर फरमाइस करहिंगे ।।”

सखियों, कविरानी देवी की कविताओं का कोई संकलन नहीं मिलता। इनके सिर्फ यही दो कवित्त मिलते हैं। हो सकता है इनके अन्य कवित्त समय के साथ नष्ट हो गये हों। हालांकि कविरानी देवी की कविताओं में काव्य -कौशल का चमत्कार नहीं दिखाई देता लेकिन इनकी सहज और सरस शैली अपना स्वाभाविक प्रभाव छोड़ती है। मध्ययुगीन स्त्री के दांपत्य प्रेम, विरहानुभूति, प्रतीक्षा के साथ ही मिलन की कामना की अभिव्यक्ति भी बड़े स्वाभाविक रूप में हुई है। डॉ. सावित्री सिन्हा ने कविरानी देवी के काव्य का मूल्यांकन इस प्रकार किया हैं- “इनके पदों में न तो वाग्विदग्धता है न काव्य-सरसता। अनलंकृत, सज्जाहीन किन्तु प्रवाहयुक्त कवित्त शैली में अपनी भावनाओं की सरल अभिव्यक्ति कर देने में वे सफल रही हैं। संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का यद्यपि अभाव नहीं है परंतु ब्रजभाषा के देशज शब्दों का प्रयोग भी अधिक हुआ है। उर्दू के शब्दों के प्रयोग भी यत्र -तत्र मिलते हैं। सीधी तथा सरल अभिव्यंजना ही इनके काव्य का गुण है।”

इस संबंध म़े मैं यही कहना चाहूंगी कि मध्ययुगीन वातावरण में स्त्री जीवन बहुत आसान नहीं था। तमाम तरह के बंधनों और सीमाओं के साथ जीते हुए अपनी रचनात्मकता को किसी भी रूप में जीवित रखना और लिखना ही बड़ी बात थी। अपने सीमित अनुभवों को सरल -सहज और ह्रदयग्राही भाषा में ढालने की कला कविरानी देवी में निश्चित रूप से थी और हमें निष्कपट भाव से उसकी सराहना करनी चाहिए।

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