क्या तौलिये का भी होता है जनाना मरदाना इस्तेमाल?
तो क्यों नहीं करतीं इस्तेमाल तौलिया??
आयी होगी हँसी बहुतों को
कइयों ने देखा होगा कनखियों से चेहरा बिचकाए
मुझे भी लगा था समय विश्वास करने में
की थी मैंने गहरी खोजबीन और
इंतजार कि शायद ये उटपटांग-सा शीर्षक बदल ले खुद को।
घर के तमाम कपड़े धोती
परिवेश बनाती निभाती
औरतों के जीवन में नहीं है एक अदद तौलिया।
कर रखा हैं उन्होंने स्वयं को बहिष्कृत
तौलियों की जरूरी रंगीन दुनिया से
लेकिन क्यों
क्या हम-आप पहचानते हैं ऐसी औरतों को
जो मुँह अंधेरे उठती हैं, पीती हैं गरमा-गरम लेकिन
थोड़ी-सी चाय और लग जाती हैं
गुछाने अपना संसार
जो कई बार कुछ बर्तनों को मांजने की बजाय
बस खंगलाकर चला लेती हैं अपना काम जैसे तैसे
कपड़े धोती तो हैं लेकिन निचोड़ने की बजाय
टांग देती हैं उन्हें खूटियों पर यों ही घंटों
खा लेती हैं थाली की बजाय कटोरियों
में खाना खड़े-खड़े यहां-वहां
हड़बड़ी इतनी कि पता ही नही चलता कि
बनाने और खाने के बाद भी खाना क्या था और बना कैसा था
उन्हें जैसे नहीं आता तौलिये का इस्तेमाल वैसे ही नहीं आता थाली को बरतना
जबकि बरतती हैं वे दुनिया जब तब।
पहनती हैं ऊँची साड़ियाँ और आकार विहीन ब्लाउज़
इस आकारहीनता में बचा लेती हैं आज़ादी
और रफ़्तार की सुविधा
यानी उनका पूरा तंत्र दौड़ता है
और समय नही है उनके पास कि
गुछा लें खुद को एक पल ठहर कर।
ऐसे ही यकबयक दिख जाते हैं उन्हें गालों पर पड़ते
सुफ़ैद चक्कत्ते, जो जब चाहे चले आते हैं घूम फिर कर
बना देते हैं उन्हें बेहद बदसूरत।
ऐसे ही पिछली बार भी आ पड़े थे मरे
और मलीं गयीं थी वही दो दवाइयां जो दी
थी बूढ़े कमजोर डॉक्टर ने।
इन धब्बों को देख वो हर समय खुद को कोसती हैं
कि पहले क्यों नहीं दिख गये उन्हें ये दाग
हर बार देखने में देर कैसे हो जाती है
तो क्या वे कभी ठीक से अपना चेहरा भी नहीं देखती
इतनी बेकद्री खुद की…क्यों
इतने सारे क्यों और क्या उन्हें बेचैन कर देते हैं।
जैसे खाने के कौर में फंसे किरकिराते पत्थर को हम बाहर फेंकने की बजाय निगल लेते हैं उसी तरह वे भी निगल जातीं हैं सारे सही सवालों और उनके गलत जवाबों को
और फिर से वे उन्हीं दो पुरानी दवाइयों की खोज में गाफ़िल हो जाती हैं
लाख खोजबीन के बाद मिली दवाइयों में एक दो हज़ार बीस में ही मर चुकी है
फिर खरीदनी पड़ेगी और ये फिर न जाने कब आएगा।
जरूरी चीजों की लिस्ट में शामिल हो जाती है ये दवा जो जब आएगी तब आएगी और तब ही लगेगी।
वे हर बार पहनती हैं स्वेटर उल्टा , ब्लाउज उल्टा।
इतनी बार, बार-बार उल्टा कि आप अगर ध्यान दें तो खीझ उठें कि कभी तो उलट कर पहना गया उल्टा स्वेटर , उल्टा ब्लाउज भूल से सीधा भी हो जाता होगा..
फिर सीधा क्यों नहीं दिखता कभी तन पर
क्या जब स्वेटर या ब्लाउज की तह सीधी होती है तो
बस आदतन ये औरतें उन्हें उलटकर पहन लेती हैं
सीधा और चलन का निभा नहीं कभी इनसे
इसलिए अनजाने ही जानी बूझी उल्टी राह पकड़ ली बस।
ये वही हैं जो सीखा ही नहीं पायी बच्चों को खाने का सऊर।
उन्हें बखूबी मालूम है भोजन की सियासत, अपनी रामकहानी में सीता की त्रासदी और राम का जयकार ।
इसलिए बेटों को पहाड़ भर ऊचां देती हैं भात, भर-भर कटोरियाँ दाल, सब्जी, अंडे
यह जानते हुए कि आदमजात इतनी खा तो नहीं पाएंगे लेकिन उन्होंने पलटकर न माँगा तो भूखे रह जायेंगे,
बेटों को मांगने की आदत नहीं और
मर्दों का भूखा रहना अच्छी बात नहीं।
बची जूठन, जो बच ही जाती है हमेशा, तो बेटियाँ बहुएँ हैं ना..
जिन्हें देती हैं खाना बेटों की छोड़ी जूठी थाली में छितराकर बेहद भद्दे तरीके से
पंछोछर सब्जी सबसे पहले देती हैं और उसके बाद पानी मारी हुई मरी हुई दाल
बाकि सब्जियां बेटे के बाद खुद को परोसती नहीं बल्कि सबके सामने, सबको ललचाते हुए छिपाकर खाती हैं
इससे तृप्त होती है उनकी आत्मा।
उन्होंने देखा है अपनी पुरनिया गिहथिनों को ऐसे ही घर बनाते, सत्ता संजोते
उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता जब उसके दिए पनियाले दूध से चाय बनाते हुए बहु-बेटियों के लिए चाय ही नहीं बचती
उनके अंदाजे का लोहा सारे कुल-खानदान के लोग ऐसे ही थोड़ी ना मानते हैं
उन्हें मालूम है कि कुल की डोर लड़के खींचते हैं और लड़कियां तो गांठ हैं जितनी कम पड़े उतना ही अच्छा
न पड़े तो धन्नभाग
इसीलिए उनके कुल में बेटे लड़कियाँ बियाते नहीं बियाह करके लाते है
उन्हें पसंद नहीं ये नामाकूल बहुएँ-बेटियाँ-अलाय बलाय
वैसे ही जैसे नहीं भाते उन्हें चेहरे के वो सुफ़ैद चकत्ते जो आ ही जाते है जब तब
जैसे वो भूल जाती है बार-बार देखना अपना ही चेहरा
और जैसे उन्हें कभी नहीं आया थाली को बरतना।