सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, उम्मीद है कि महामारी के कारण उत्पन्न भय और संत्रास के माहौल में बिना घबड़ाए या डरे आप परिस्थितियों का सामना पूरी सकारात्मकता के साथ कर रही होंगी। सखियों, वर्तमान समय में जिस तरह का माहौल है, उसमें डर सबको लगता है। अगर कोई कहे कि वह निर्लिप्त और भयमुक्त है तो यह पूरी तरह से सच नहीं होगा। मनुष्य अपने और अपने अपनों के लिए निरंतर आशंकित, भयभीत और चिंतित रहता है और किसी ना किसी अदृश्य शक्ति से उनकी कुशलता की कामना या प्रार्थना भी करता रहता है।
सखियों, माना जाता है कि मनुष्य जन्म के बाद मुख्यत: चार मनोभावों से घिरा होता है, वे हैं- क्रोध, दुख, आश्चर्य और भय। लेकिन कभी -कभी यह भय तमाम मनोभावों पर हावी हो जाता है। भय के कई कारण होते हैं। बहुत से सामान्य कारणों के अलावा हर आदमी के लिए भय का अपना निजी कारण भी होता है जो उसके अवचेतन में छिपकर बैठा रहता है और आजीवन दुस्वप्न की तरह उसका पीछा करता रहता है। कभी -कभी यही भय या डर फोबिया में भी बदल जाता है, मसलन किसी को ऊँचाई का फोबिया होता है तो किसी को बंद लिफ्ट में फंस जाने का तो किसी को नदी या समुद्र का और उसका कोई ना कोई कारण अवश्य होता है। संक्षेप में कहें तो भय से कोई नहीं बचा है। संसार के अधिकांश कार्यों या घटनाओं के पीछे कोई ना कोई भय काम करता है। और बहुत बार आदमी किसी और से नहीं अपने अंदर बैठे इस डर रूपी राक्षस से डरता है, तभी तो आबिद सिद्दीक कहते हैं-
“उस के डर ही से मैं मोहज़्ज़ब हूँ
मेरे अंदर जो एक वहशी है।”
भय का मनोविज्ञान कहता है कि बहुधा किसी भी खतरनाक या खौफनाक स्थिति, वस्तु या जानवर से उसका भय अधिक डरावना होता है, जैसे मौत से ज्यादा मौत का भय खौफनाक होता है। मौत तो जब आनी होगी तब आएगी ही लेकिन उस मौत के खौफ या भय से आदमी बहुत बार मौत के पहले ही दम तोड़ देता है। ऐसे ही हमारे बहुत से वहम या मानसिक भय ही हमारी जान के दुश्मन बन जाते हैं, वह चाहे साँप- बिच्छू का डर हो या भूत और जिन का। जैसे हम सब जानते हैं कि हमारे देश के ज्यादातर साँप जहरीले नहीं होते लेकिन आदमी साँप के जहर से नहीं मरता बल्कि उसके भय से जान से जाता है। इस विषय में बहुत सी कहानियां कहीं -सुनी जाती हैं। एक छोटी सी कहानी मैं भी सुनाऊंगी।
“एक गांव में एक आदमी बरसात के पहले अपनी झोपड़ी के छप्पर की मरम्मत कर रहा था। शाम होनेवाली थी और आसमान बादलों से घिरा हुआ था इसीलिए ऊपर थोड़ा अंधेरा सा था। वह जल्दी -जल्दी फूस और बाँस की खप्पचियों को रस्सी से बाँध कर छप्पर को दुरुस्त कर रहा था ताकि रात होने से पहले अपना काम समाप्त कर ले। इसी क्रम में एक बार उसने जैसे ही पास ही छप्पर में खोंसी हुई रस्सी अपने हाथ में ली तो उसे लगा कि उसके हाथ में किसी कीड़े ने काटा है। काम समाप्त करने की हड़बड़ी में उसने ध्यान नहीं दिया और अपना काम पूरा करके ही नीचे उतरा। एक साल बीत गया और एक बार फिर वह उसी छप्पर की मरम्मत के लिए ऊपर चढ़ा। संयोग से उस दिन दोपहर का समय था और चटख धूप खिली हुई थी। काम करते- करते उसने एक स्थान पर पुरानी बंधी रस्सी को जांचने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया तो देखा कि खपची से एक साँप का सूखा पंजर बंधा हुआ है। उसके दिमाग में तड़ाक से पिछले वर्ष की घटना कौंध गई कि उसके हाथ में रस्सी बांधते हुए एक कीड़े ने काटा था। उसे एकदम से समझ में आ गया कि उसने रस्सी की जगह साँप से खप्पचियों को बाँधा था और उसी ने उसे डंसा था। इस स्मृति ने उसे इतना भयभीत कर दिया कि वह गश खाकर ऊपर से नीचे गिर पड़ा और तत्काल हदस के कारण उसकी मृत्यु हो गई। सखियों, कल्पना कीजिए कि साँप ने उसे साल भर पहले काटा था लेकिन उसके भय ने साल भर बाद उसकी जान ले ली। इसीलिए साँप से ज्यादा जहरीला या खतरनाक है, उसका भय।
सखियों, भयभीत होने और उस भय से मर -मर कर जीने के बजाय उस पर काबू करना जरूरी होता है और जो आदमी इस भय को काबू में कर लेता है, वही बहादुर कहा जाता है। अरस्तू भी कुछ ऐसा ही कहते हैं
“मुझे लगता है कि वह बहादुर है जो अपने दुश्मनों से हारने वाले की तुलना में अपने डर पर काबू पाता है, क्योंकि सबसे बड़ी जीत खुद पर है।”
सखियों, हर हाल में हमें अपने इस भय पर काबू पाने की जरूरत है। बहुत बार ऐसा होता है का माँएं अपने बच्चों को भूत, चुड़ैल, शेर आदि का डर दिखाकर अपने काबू में करने की जुगत निकालती है ताकि बच्चा उनकी बात मान लें। खाना खा ले, दूध पी ले या समय पर सो जाए लेकिन बहुत बार बचपन के ये डर ताउम्र बच्चों का जीना हराम किए रहते हैं इसीलिए बच्चों की परवरिश डराकर करने की बजाय उन्हें निर्भय होकर जीना सिखाने की आवश्यकता है। जब वे निर्भय होंगे तो विषम से विषम परिस्थिति में डर कर बैठने की जगह साहस के साथ उसका मुकाबला करते नजर आएंगे। जलील मानकपुरी जैसे शायर इसी डर को चुनौती देते हुए कहते हैं-
“क़यामत का मुझे डर क्या जो कल आनी है आज आए
तुम्हारे साथ की खेली है मेरी देखी-भाली है।।”
पहली बात यह है कि इस भय से भागना नहीं है। इसका डट कर मुकाबला करने की आवश्यकता है। और मुकाबले से भी पहले जरूरत है, इसे स्वीकारने की। शत्रु के अस्तित्व को हम स्वीकार करेंगे तभी उससे लड़ेंगे भी और जीत भी हासिल करेंगे। सलमान अख्तर बहुत खूब फरमाते हैं-
“जब ये माना कि दिल में डर है बहुत
तब कहीं जा के दिल से डर निकला।”
तो सखियों, इस डर पर काबू पाना भले ही मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं है। डर तूफान का हो या मौत का या फिर इम्तिहान का, बिना काबू किए वह हमें ताउम्र दौड़ाता रहेगा। इसीलिए इसका सामना करके, इसे हराकर ही हम खुशी हासिल कर सकते हैं। सरदार अंजुम की बातों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए आइए हम हर किस्म के डर से मुकाबले की हिम्मत जुटा लें और कह उठें-
“ज़िंदगी इक इम्तिहाँ है इम्तिहाँ का डर नहीं
हम अँधेरों से गुज़र कर रौशनी कहलाएँगे।।”
इसी संदर्भ में सोहनलाल द्विवेदी की पंक्तियों को भी फिर से पढ़ने और उससे शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत है जिनमें वे डर को जीत कर फिर फिर कोशिश करने की प्रेरणा देते हैं-
“लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।”
मौजूदा हालात की बात करें तो बीमारी के कारण भय का जो माहौल बना है वह हमें बीमारी से ज्यादा नुकसान पहुँचा रहा है इसीलिए हमें सावधान होने की आवश्यकता है। भय की इस संक्रामक बीमारी से मुक्त होकर ही हम इस बीमारी या महा