प्राचीन काल से ही लोकनाट्य, कला व संस्कृति से मानव का आत्मीय जुड़ाव रहा है। हर प्रदेश की अपनी अलग भाषा-संस्कृति रही है, जो उस ख़ास आंचलिक या ग्रामीण क्षेत्र की समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है। तभी तो राज्य में भिन्न-भिन्न कलारूपों के कारण इसकी विशेषता राष्ट्रीय फलक पर अपनी अमिट पहचान बनाती है। बिहार के मिथिलांचल व पूर्वांचल के अलावा भी भोजपुर क्षेत्रों में प्राकृतिक मौसम, त्यौहार, शादी-विवाह, पर अलग-अलग प्रकार के गीत गाए जाते रहे हैं। इनमें कुछ गीत व नाट्य महिला प्रधान होते हैं। इनके सभी पात्र महिलाओं द्वारा ही रचे जाते हैं, और उसका अभिनय भी महिलाएं ही करती हैं। ‘डोमकच’ बिहार का एक ऐसा ही घरेलू लोकनाट्य है, जो विशेषकर घर-आंगन में की जाने वाली प्रस्तुति है। इस नाट्य को अमूमन अब भी मिथिलांचल के गांवों-क़स्बों में किया जाता है। जब लड़के के विवाह के समय आमतौर पर सभी पुरुष बारात लेकर दुल्हन के घर चले जाते हैं, तब घर की महिलाएं ख़ुद को एक रात के लिए पितृसत्ता द्वारा ओढ़ाए गए मर्यादा के सभी आवरणों से मुक्त करती हैं। घर पर छूट गई महिलाएं एक रात के लिए रात्रि जागरण करती है। इनमें वे कई तरह के स्वांग, लोकगीतों के बहाने अपनी अव्याख्यायित इच्छाओं को स्वर देती हैं। इनमें से कोई एक या दो महिलाएं पुरुष का वेश धारण करती हैं। पुरुष-वेश धारण करने वाली महिलाओं में ज़्यादातर लड़के (दूल्हा) की बहन या बुआ (फुआ) होती हैं। वो अपने घर के बड़े-बुज़ुर्गों का शर्ट, धोती-कुर्ता, गमछा, बनावटी मूंछ और लकड़ी की लाठी भी साथ रखती हैं। महिलाएं पहले अपने घर फिर उसके बाद पड़ोस के घर जाकर अन्य सभी महिलाओं को छेड़ती हैं। इनके गीत और भंगिमाएं बहुरंगी होते हैं। डोमकच का ख़ास तौर पर महिलाओं को बेसब्री से इंतज़ार रहता है। जब वे पारंपरिक पितृसत्ता द्वारा ओढ़ाई गई मर्यादा से मुक्त होकर लोकनाट्य रग में स्वच्छंद होकर सांस लेती हैं। डोमकच सामान्यतः अन्य नृत्यों से अलग महिला प्रधान होते हुए भी हास्य-व्यंग्य व छींटाकशी वाले गीतों से भरा पड़ा है। लेकिन इसकी लोकप्रियता इतनी है कि यह पड़ोसी राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़ सहित नेपाल के सीमांचल तराई इलाक़ों में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता के साथ विवाह के अवसर पर ही वर पक्ष के घर की महिलाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। डोमकच को एक बार फिर से संवारने की आवश्यकता है, ताकि इस जैसे हमारे अन्य आंचलिक और क्षेत्रीय लोकनाट्य दुनिया भर के रंगकर्मियों और साहित्यकर्मियों के लिए शोध का विषय बनें तथा लोक-आकर्षण का मुख्य केंद्र भी हों।
(साभार – दैनिक भास्कर)