डॉ. गीता दूबे
हे बुद्ध
आजीवन रहे
मूर्ति पूजा के खिलाफ तुम।
करते रहे विरोध
जड़ संस्कारों का,
पर तुम्हारे देवत्व का वैभव
फैला हुआ है
बोधगया के कण कण में।
पूज रहा है तुम्हें
हर एक बौद्ध, अबौद्ध दर्शनार्थी।
एक बार जरूर
नवाता है माथा
तुम्हारी विशाल प्रतिमा के समक्ष
और होठों ही होठों में
बुदबुदाता हुआ
कोई जाना अनजाना मंत्र
मांगता है मन्नत
उनके पूरा होने के विश्वास के साथ।
हे बुद्ध
भला किसकी थी
यह मन्नत
कि जीते जी न सही ,
तुम्हारी मृत्यु के उपरांत
हजारों हजार वर्ष के बाद
बिकें तुम्हारी प्रतिमाएं
हर रंग रूप और आकार में
दुनिया के हर छोटे बड़े बाजार में।
और खरीदनेवाला खरी
अपनी जेब और औकात के अनुसार
खरीदकर तुम्हें
सजा ले
अपने घर की ताखों, दीवारों और शोकेसों में।
बुद्ध
क्या तुम जानते थे अपनी नियति ।
भला किसने रची
यह भयानक साजिश
तुम्हारे खिलाफ।
(कवियत्री स्कॉटिश चर्च कॉलेज की हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)