Wednesday, April 30, 2025
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पिता औरंगजेब की कैद में जिन्दगी गुजारने वाली जहीन शायरा मुगल शहजादी जेबुन्निसा

सखी सुन 18

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, स्त्री रचनाकारों का सफर किसी भी दौर में बहुत आसान नहीं रहा है।‌ यह बात और है कि इसके बावजूद लेखिकाओं ने संघर्ष की राह पर चलते हुए भी अपने रचनात्मक सफर को निरंतर जारी रखा है।

प्रो. गीता दूबे

बहुत मर्तबा हमें ऐसा लगता है कि अगर महिला किसी समृद्ध वंश से संबंध रखती है तो उसका जीवन मुश्किलों या संघर्षों से दूर होगा लेकिन प्राय: ऐसा नहीं होता, जितना बड़ा खानदान, उतनी ही ज्यादा बंदिशे उस पर लगाई जाती हैं। राजघराने की बहू मीराबाई के संघर्ष और उनके जीवन की चुनौतियों के बारे में हम जानते ही हैं।  सखियों, आज मैं आपको मुगल शाहजादी जेबुन्निसा के बारे में बताऊंगी। जेबुन्निसा औरंगजेब की बेटी थीं और “मख़फ़ी” के नाम से कविताएँ लिखा करती थीं। सवाल यह है कि उन्हें नाम बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी। इतिहासकारों ने  औरंगजेब के बारे में जो लिखा है उससे यह पता चलता है कि उनमें धार्मिक कट्टरता इतनी ज्यादा थी कि उनके शासनकाल में कला और साहित्य पर एक तरह से बंदिश ही थी। यह बात और है कि इन बंदिशों के साये में भी साहित्य और संगीत पनपता रहा। अब यह इत्तेफाक ही है कि उनके घर में ही एक ऐसी शायरा ने जन्म लिया जिनका जीवन साहित्य को पूर्णतया समर्पित था।

बादशाह औरंगज़ेब और उसकी मुख्य मलिका दिलरस बानो बेगम की सबसे बड़ी औलाद जेबुन्निसा का जन्म 15 फरवरी 1638 में दौलताबाद में हुआ था। औरंगजेब ने उनकी शिक्षा का भार अपने दरबार की एक विदुषी हाफिजा मरियम को सौंपा था। जेबुन्निसा बेहद प्रतिभाशाली थीं। उन्होंने तीन वर्ष की उम्र में कुरान कंठस्थ कर ली थी और सात वर्ष की उम्र में वह हाफिज बन गई थीं। कहा जाता है कि औरंगज़ेब ने उनकी इस उपलब्धि पर सार्वजनिक छुट्टी की घोषणा के साथ एक बड़ी दावत का आयोजन किया था तथा जेबुन्निसा और उनकी शिक्षिका को 30-30 हजार स्वर्ण मुद्राएँ इनाम में दी थीं। औरंगजेब की इस जहीन और अध्ययनशील बेटी ने दर्शनशास्र, गणित और खगोल- विज्ञान के साथ साहित्य और संगीत का ज्ञान भी प्राप्त किया था। वह अपने समय की एक बहुत अच्छी गायिका थीं। फारसी, अरबी और उर्दू भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। उनका निजी पुस्तकालय अत्यंत समृद्ध था जिसमें विभिन्न विषयों पर बड़ी संख्या में पुस्तकें थीं। इसके अलावा उन्होंने शस्त्र शिक्षा भी प्राप्त की थी और कई लड़ाइयों में हिस्सा भी लिया था। कहा जाता है कि औरंगज़ेब अपनी इस प्रतिभाशाली पुत्री से अत्यंत प्रेम करते थे और विभिन्न विषयों पर उनसे सलाह भी लेते थे। जेबुन्निसा के दादा शाहजहां ने कम उम्र में ही उनकी शादी अपने बड़े बेटे दारा शिकोह के बेटे सुलेमान शिकोह के साथ तय कर दी थी। लेकिन सुलेमान की असमय मृत्यु के कारण यह शादी नहीं हो पाई और जेबुन्निसा ताउम्र अविवाहित रहीं।

जेबुन्निसा का महल

जे़ब-उन-निसा या जेबुन्निसा 14 साल की उम्र से ही फ़ारसी में कविताएँ लिखने लगीं। चूंकि उनके पिता को कविता पसंद नहीं थी इसीलिए वह  “मख़फ़ी” के छद्म नाम से लिखा करती थीं। उनके शिक्षकों में से एक, उस्ताद बयाज़ ने उनकी कविताओं को पढ़कर उनकी हौसला-अफजाई की थी। चूंकि औरंगजेब के समय में, दरबार में मुशायरों के आयोजन पर प्रतिबंध था, अतः जेबुन्निसा छिप- छिपाकर अदब की गोपनीय महफ़िलों में शिरक़त करती थीं। यह बात और है कि बादशाह औरंगज़ेब से यह बात छिपी नहीं रही और उन्हें यह नागवार गुजरा। इन्हीं मुशायरों  और महफ़िलों में जेबुन्निसा की मुलाकात उस समय के मशहूर शायर अक़ील खां रज़ी से हुई जिनके व्यक्तित्व से वह बहुत प्रभावित हुईं और उन्हें उनसे प्रेम हो गया। इसकी खबर जब मुगल सम्राट् औरंगजेब तक पहुँची तो उन्होंने एक मामूली शायर से प्रेम करने के अपराध में अपनी लाडली बेटी को जनवरी 1691 में दिल्ली के सलीमगढ़ किले में नजरबंद करवा दिया । कुछ इतिहासकारों की इस विषय में अलग राय है, जिसके अनुसार औरंगजेब की दमनकारी नीतियों के खिलाफ उनके बेटे शाहजादा मोहम्मद अकबर ने बगावत कर दी थी और शाहजादी को अपने भाई के साथ गुप्त पत्र-व्यवहार करने के आरोप में औरंगजेब  ने यह सजा दी थी। कारण जो भी रहा हो, शाहजादी जेबुन्निसा ने अपने जीवन के अंतिम बीस साल वहीं गुजारे और 64 वर्ष की उम्र में 26 मई 1702 को वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली। निर्वासन के दौरान शाहजादी ने अध्ययन और लेखन में अपने को पूरी तरह से डुबो दिया। वह पढ़ती भी रहीं और गजलें, शेर और रुबाइयाँ भी लिखती रहीं। 20 सालों की कैद के दौरान उन्होंने लगभग 5000 रचनाएँ लिखीं। उनकी मृत्यु के तकरीबन 22 वर्षों के बाद 1724 में उनकी रचनाओं का संकलन “दीवान-ए-मख़फ़ी” नाम से छपा। इस दीवान के प्रकाशित होने के बाद अदब की दुनिया के लोगों को जेबुन्निसा के कलामों का महत्व समझ में आया। इस दीवान के कई संस्करण प्रकाशित हुए, जिनमें 1913 में मगनलाल व जेस्सी डंकन वेस्टब्रुक का अंग्रेजी अनुवाद बहुत महत्वपूर्ण है। जेबुन्निसा के कलामों की पाण्डुलिपियाँ पेरिस की नेशनल लाइब्रेरी, ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी, तुविंगर यूनिवर्सिटी (जर्मनी) और कोलकाता की एशियाटिक सोसायटी के आर्काइव में सहेजकर रखी गई हैं। उनकी रूबाइयों में एक कैदी का दर्द और उससे उपजा दर्शन साफ नजर आता है। अंग्रेजी से उनकी कुछ रूबाइयों का अनुवाद कवि ध्रुव गुप्त ने हिंदी में किया है। आपके लिए उसमें से एक रूबाई प्रस्तुत है-

लाल किले के पास है सलीमगढ़ का किला…जहाँ कैद की गयी थी शहजादी जेबुन्निसा…एक चित्र

” अरे ओ मख्फी, बहुत लंबे हैं

अभी तेरे निर्वासन के दिन

और शायद उतनी ही लंबी हैं

तेरी अधूरी ख़्वाहिशों की फेहरिस्त

अभी कुछ और लंबा होने वाला है

तुम्हारा इंतज़ार

शायद तुम रास्ता देख रही हो

कि उम्र के किसी मोड़ पर किसी दिन

लौट सकोगी अपने घर

लेकिन, बदनसीब !

घर कहां बच रहा है तुम्हारे पास

गुज़रे हुए इतने सालों में

ढह चुकी होगी उसकी दीवारें

धूल उड़ रही होगी अभी

उसके दरवाजों, खिड़कियों पर

अगर इंसाफ़ के दिन

ख़ुदा कहे कि मैं तुम्हें हर्ज़ाना दूंगा

उन तमाम व्यथाओं का

जो जीवन भर तुमने सहे

तो क्या हर्ज़ाना दे सकेगा वह मुझे

जन्नत के तमाम सुखों

और उसकी नेमतों के बावज़ूद

वह एक तो उधार ही रह जाएगा

ख़ुदा पर मेरा !”

उनकी कविताओं में धार्मिक कट्टरता के खिलाफ प्रेम का बेबाक स्वर सुनाई देता है। वह धार्मिक आडंबरों को जिस साहस के साथ चुनौती देती हैं कि उन्हें पढ़ते हुए अनायास मीराबाई और कबीर की कविताएँ जेहन में कौंध जाती हैं। शिव शंकर पारिजात द्वारा हिंदी में अनूदित रूबाई को पढ़ते हुए इस बात को सहजता से महसूस किया जा सकता है-

“मैं कोई मुसलमान नहीं

मैं तो हूँ एक बुतपरस्त,

झुकता है सर मेरा सज़दे में

प्रेम की देवी की मूरत के सामने।

कोई ब्राह्मण भी नहीं हूँ मैं;

पहनी थी गले में जो अपने

पवित्र धागों की माला,

निकाल कर बाहर उसे

लपेट ली है मैंने अपनी जुल्फ़ो की लटें।”

सखियों, जेबुन्निसा जैसी न जाने कितनी लेखिकाओं को इतिहास की कब्र में दफना दिया गया है। उन सबके जीवन, व्यक्तित्व और लेखन के बारे में तथ्यों के पड़ताल की जिम्मेदारी हम सबकी है और उनके द्वारा सृजित साहित्य को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की भी।

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