ऐ सखी सुन 12
सभी सखियों को नमस्कार। उम्मीद है कि आप सब अपनी जिंदगी में भली भांति व्यतीत कर रही होंगी और अन्य सखियों की उन्नति के लिए भी प्रयासरत होंगी। सखियों, मैं अपनी विस्मृत सखियों को याद करते हुए आज आपको “राय प्रवीण” की कहानी सुनाऊंगी। उनके बारे में बहुत से किस्से प्रसिद्ध हैं जिनमें उन्हें एक खूबसूरत राज नर्तकी, गायिका और कवयित्री के रूप में चित्रित किया गया है तो कुछ में गणिका भी बताया गया है। उनकी कविताओं में भी उनके नाम के साथ “पातुर” शब्द जुड़ा मिलता है। राज दरबार में बहुत सी स्त्रियाँ राजा के मनबहलाव के लिए होती थीं लेकिन उनमें से कविता कम ही करती थीं और वह भी ऐसी कविता और कवयित्री जिससे महान अकबर भी प्रभावित हो जाए, बिरली ही थीं।। साथ ही ऐसी दरबारी गायिकाएँ भी कम ही होती थीं जो अपने राजा के प्रति इतनी एकनिष्ठ होती थीं कि बड़े से बड़े पद और प्रलोभन को ठुकरा सकती दें, अन्यथा राजा रजवाड़े तो रूपसी गायिकाओं और नर्तकियों को तो अपनी सत्ता के बलबूते जोर जबरदस्ती अपने दरबार की ज़ीनत बन जाने को विवश कर देते थे। 16वीं शताब्दी में ओरछा (मध्यप्रदेश) के राजा मधुकर शाह के पुत्र युवराज इन्द्रजीत जो बाद में कछुआ के राजा बने, के दरबार की रौनक थीं, राय प्रवीण। एक ऐसी रौनक जो महाकवि केशव दास की शिष्या थीं और कहा जाता है कि उन्हें काव्य शास्त्र की शिक्षा देने के लिए ही केशव दास ने “कविप्रिया” और “रसिकप्रिया” की रचना की थी। उनकी कला और प्रतिभा से वह इतने प्रभावित थे कि उनकी तुलना वीणापाणि सरस्वती से करते हैं-
“नाचति गावति पढ़ति सब, सबै बजावत बीन।
तिनमें करती कवित्त इक, रायप्रवीन प्रवीन।।
राय प्रवीन कि सारदा, रुचि-रुचि राजत अंग।
वीणा पुस्तक धारिणी, राजहंस सुत संग।।”
कोकिल कंठी पुनिया के गीत सुनकर और उससे प्रभावित होकर राजकुमार इन्द्रजीत ने राज संरक्षण में उसकी शिक्षा की व्यवस्था की जिससे पुनिया की प्रतिभा और भी निखर उठी और कालांतर में वह राय प्रवीण के नाम से ख्यात हुई। वह कवयित्री और कलाकार ही नहीं थीं बल्कि अत्यंत बुद्धिमति एवं वाक्पटु भी थीं। कहा जाता है कि प्रवीण की ख्याति से प्रभावित होकर बादशाह अकबर ने उन्हें अपने दरबार में आमंत्रित किया लेकिन प्रवीण तो इन्द्रजीत के प्रति पूर्णतया समर्पित थीं, उन्हें छोड़कर भला कैसे जातीं। अपनी दुविधा उन्होंने राजा इन्द्रजीत के सामने रख दी कि कोई ऐसा रास्ता निकालें कि राज्य की रक्षा भी हो जाए और प्रवीण का पातिव्रत्य भी बचा रहे-
“आयो हौं बूझन मंत्र तुम्हें निज भवन हों सिगरी मत गोई।
देह तजौं कि तजौं कुलकानि हिये न लजौं लजिहैं सब कोई।।
सर्वार्थ और परमारथ को पर चित्त पियारि कहो तुम सोई।
जामें रहे प्रभु की प्रभुता अरु मोर पतिब्रत भंग न होई।।”
राजा ने अपनी प्रेयसी की सम्मान रक्षा के लिए उसे बादशाह के दरबार में भेजने से इंकार कर दिया तो बादशाह ने उसे पकड़ मंगाया और राजा पर जुर्माना भी ठोंक दिया। इस स्थिति को प्रवीण ने बड़े कौशल से संभालते हुए बादशाह अकबर से नहीं साह अकबर (अकबर इसी नाम से कविताएँ लिखा करता था और यह एक कवि की दूसरे कवि से की गई प्रार्थना थी) से विनती की –
“अंग अंग नहीं कछु संभु सु, केहरि लिंक गयन्दहि घेरे।
भौंह कमान नहीं मृग लोचन, खंजन क्यों न चुगे तिल नेरे।।
हैं की राहु नहीं उगै इन्दु सु, कीर के बिम्बन चोंचन मेरे।
कोउ न काहू से रोस करै सु, डरै उर साह अकब्बर से।।”
अकबर उसकी काव्य कुशलता से प्रभावित हुआ और समस्यापूर्ति के तहत उसकी परीक्षा भी ली। ज्यों- ज्यों वह परीक्षा में खरी उतरती गई, अकबर उतना ही मुग्ध होता गया और नाना प्रलोभन देकर उसे दरबार में रोके रखने का प्रयास किया। अंततः प्रवीण ने दरबार में रहने की अपनी अपात्रता को बयान करते हुए अकबर को उसके बड़प्पन की याद दिलाते हुए कहा-
“बिनती राय प्रबीन की, सुनिये साह सुजान।
जूठी पतरी भखत हैं, बारी, बायस, स्वान।।”
अब यह साहस कहें या विनम्रता या फिर इंद्रजीत के प्रति पूर्ण समर्पण, यह प्रवीण का ही वैशिष्ट्य था कि वह अपने आप को जूठी पत्तल तक कह जाती है। कहते हैं कि उसके काव्य कौशल, वैदुष्य और एकनिष्ठ प्रेम से पसीजकर अकबर ने ससम्मान उसे इंद्रजीत के दरबार में वापस भेज दिया और इन्द्रजीत पर लगाया गया जुर्माना भी माफ कर दिया।
प्रवीण की कविताओं में संयोग शृंगार के बहुतेरे चित्र मिलते थे और उन गीतों की नायिका प्रवीण तथा नायक राजा इंद्रजीत थे। भले ही वह गायिका और इंद्रजित राजा थे लेकिन दोनों के बीच प्रेम की डोर बहुत मजबूत थी। इसका प्रमाण हमें इस लोकप्रचलित कथा से मिलता है जिसके अनुसार राय प्रवीण का जब राजा इंद्रजीत से मिलन नहीं हो पाया तो वह इस दुख में सती हो गईं, उस समय राजा यात्रा पर थे। जब तक उन्हें यह खबर मिलती और वह उन्हें बचाने पहुंचते, प्रवीण राख हो चुकी थी। उस राख को हाथों में लिए राजा बिलखते रहे। कहा जाता है कि इसके बाद उनकी मानसिक स्थिति बिगड़ गयी और तकरीबन साल भर बाद उनका भी देहांत हो गया। राजा इन्द्रजीत ने 1618 में अपनी प्रेयसी के लिए एक महल का निर्माण करवाया था जिसका नाम है, राय प्रवीण महल। यह महल आज भी ओरक्षा में मौजूद है जिसकी दीवारों पर बनी तस्वीरों और महल के कोने- कोने में राजा और कवयित्री की प्रेम कथा और प्रवीण की कविताओं की अनुगूंज अब भी सुनाई देती है।
उत्कट शृंगार की कविताओं के साथ ही प्रवीण ने कुछ विवाह गीत और गारियां भी लिखी थीं। दरबारी गायिकाएँ राजा परिवार के विभिन्न समारोहों में भी गायन करती थीं और प्रवीण ने संभवतः उन अवसरों के लिए इन गीतों का सृजन किया होगा। उनके मधुर स्वर के कारण उन्हें “ओरक्षा की बुलबुल” कहकर संबोधित किया जाता था। प्रवीण के प्रेम, समर्मण, प्रतिभा और बुद्धि कौशल के लिए उन्हें हमेशा उसी ऊंचे आसन पर बैठाना चाहिए जिस पर उनके गुरू केशवदास ने बैठाया था। सुनने में आया है कि राय प्रवीण पर एक फिल्म भी बनने वाली हैं। उन्हें नमन करते हुए आज की कहानी यहीं खत्म करती हूँ, सखियों। अगले हफ्ते फिर मुलाकात होगी, एक नयी कहानी के साथ। तब तक के लिए विदा।