महाराजा सर रामेश्वर सिंह ठाकुर ( 16 जनवरी 1860 – 03 जुलाई 1929) दरभंगा के सन १८९८ से जीवनपर्यन्त महाराजा थे। अपने बड़े भ्राता लक्ष्मीश्वर सिंह की मृत्यु के उपरान्त वे महाराजा बने। वे भारतीय सिविल सेवा में भर्ती हुए थे और क्रमशः दरभंगा, छपरा तथा भागलपुर में सहायक मजिस्ट्रेट रहे। लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की कार्यकारी परिषद में नियुक्त होने वाले वे पहले भारतीय थे।
वह 1899 में भारत के गवर्नर जनरल की भारत परिषद के सदस्य थे और 21 सितंबर 1904 को एक गैर-सरकारी सदस्य नियुक्त किये गए थें जो बंबई प्रांत के गोपाल कृष्ण गोखले के साथ बंगाल प्रांतों का प्रतिनिधित्व कर रहे थें।
वह बिहार लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, ऑल इंडिया लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष, राज्य परिषद के सदस्य, कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल के ट्रस्टी, हिंदू विश्वविद्यालय सोसायटी के अध्यक्ष, एम.ई.सी. बिहार और उड़ीसा के सदस्य और भारतीय पुलिस आयोग के सदस्य (1902–03) थें। उन्हें 1900 में कैसर-ए-हिंद पदक से सम्मानित किया गया था। वह भारत पुलिस आयोग के एकमात्र सदस्य थें, जिन्होंने पुलिस सेवा के लिए आवश्यकताओं पर एक रिपोर्ट के साथ असंतोष किया, और सुझाव दिया कि भारतीय पुलिस सेवा में भर्ती एक ही परीक्षा के माध्यम से होनी चाहिए। केवल भारत और ब्रिटेन में एक साथ आयोजित किया जाएगा। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भर्ती रंग या राष्ट्रीयता पर आधारित नहीं होनी चाहिए। इस सुझाव को भारत पुलिस आयोग ने अस्वीकार कर दिया।
उन्हें 26 जून 1902 को नाइट कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एंपायर (केसीआईई) के नाम से जाना गया, 1915 की बर्थडे ऑनर्स लिस्ट में एक नाइट ग्रैंड कमांडर (जीसीआईई) में पदोन्नत किया गया और उन्हें नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर का नाइट कमांडर नियुक्त किया गया।
महाराजा रामेश्वर सिंह एक तांत्रिक थें और उन्हें बौद्ध सिद्ध के रूप में जाना जाता था। वह अपने लोगों द्वारा एक राजर्षि माने जाते थें। ब्राह्मणों के महान महाराजा,श्रोत्रिय के वंशानुगत नेता होने के नाते, उन्हें मिथिला में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में पूरे ब्राह्मण समुदाय के प्रमुख के रूप में मान्यता प्राप्त थी । उन्होंने लाहौर में हुई प्रथम अखिल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन की अध्यक्षता की और मैयूमेंसिंग में आयोजित बंगाल ब्राह्मण सम्मेलन की अध्यक्षता की। वह पूरे भारत में रूढ़िवादी हिंदुओं के स्वीकृत नेता थे । वे भारत धर्म महामण्डल के आजीवन अध्यक्ष चुने गए , जो एक अखिल भारतीय धार्मिक संगठन था और इसके साथ ही बनारस में अपने मुख्यालय के साथ देशभर में इसकी शाखाएं थी और जिनके साथ कई राजा / महाराज जुड़े थे । उन्होंने भारत के विभिन्न धर्मों और पंथों के बीच एकता को बढ़ावा देने के लिए कलकत्ता और इलाहाबाद में आयोजित धर्म संसद की अध्यक्षता की थी । नेपाल के महाराजा शमशेर जंग बहादुर और ग्वालियर , कश्मीर, जयपुर के महाराज और अन्य उन्हें अपने गुरु या धार्मिक प्रमुख के रूप में देखते थे . पटियाला के सबसे बड़े सिख शासक महाराजा भूपेंद्र सिंह उनके तंत्र मार्ग के अनुनायी थे और सभी उनकी स्थिति के कारण उन्हें सम्मान देते थे । वे एक महान साधक थे उनके सहयोग से जॉन वुडरूफ , पेन नाम आर्थर अवलोन ने तंत्र पर कई मूल ग्रंथो का अंग्रेजी में अनुवाद कर पुस्तकें प्रकाशित की और पश्चिम जगत को तंत्र – मन्त्र के मान्यता को प्रमाणित किया और इसे मानने के लिए विवस कर दिया। श्यामा मंदिर यह बिहार के दरभंगा जिला, मिथिला में अवस्थित है | कहा जाता है कि श्यामा माई का मंदिर श्मशान घाट में महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता के ऊपर बना है, महाराजा रामेश्वर सिंह दरभंगा राज परिवार के साधक राजाओं में एक थे। स्थानीय बताते हैं कि राजा के नाम के कारण इस मंदिर का नाम रामेश्वरी श्यामा माई पड़ा। दरभंगा के राजा कामेश्वर सिंह ने 1933 में इस मंदिर की स्थापना की थी।इस मंदिर में मां श्यामा की पूजा तांत्रिक और वैदिक दोनों ही रूपों में की जाती है।
. हिंदू विश्वविद्यालय बनारस की स्थापना और शुरुआती दिनों में इनके बलिदान, नेतृत्व और श्रम के महान बलिदानों का परिणाम है।ये इसके आजीवन संरक्षक थे . वाइसराय ने इन्हे इसका कुलपति बनने की भी पेशकश की थी । रियासत दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह ने पाँच लाख से अधिक रुपये बी.एच.यू. को दान दिया था, मगर बनारस में भी उनके नाम का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
बहरहाल, ऐतिहासिक दस्तावेजों को उद्धृत करते दरभंगा के मनोज झा कहते हैं: ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर यह सर्व-विदित है कि तिरहुत का विमानन इतिहास दरअसल बिहार का विमानन इतिहास है। कुछ अर्थों में यह भारत का विमानन इतिहास है। भारत में कार्गो सेवा प्रदान करने की बात हो या फिर देश का पहला लग्जरी विमान का इतिहास हो, यहां तक की आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के सरकारी विमान की बात हो, तिरहुत, दरभंगा और उसके विमान के योगदान का उल्लेख के बिना इनका इतिहास लिखना संभव नहीं है। तिरहुत के विमानन इतिहास की शुरुआत तिरहुत सरकार महाराजा रामेश्वर सिंह के कालखंड में ही होती है। तिरहुत सरकार का पहला विमान एफ-4440 था। जो 1917 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय मूल के सैनिकों के लिए खरीदा गया था। यह एक संयोग ही है कि तिरहुत सरकार का पहला विमान जहां भारतीय फौजी के लिए खरीदा गया था, वही दरभंगा एविएशन का आखिरी विमान भी भारतीय वायुसेना को ही उपहार स्वरूप दिया गया।
रियासत दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह जब 9 जून, 1912 को ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ (अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) आए थे, तो इस विश्वविद्यालय के ‘स्ट्रैची हॉल’ (जो आज भी मौज़ूद है) में उन्होंने बहुत नफ़ीस अँगरेज़ी में उपस्थित जनसमहू के बीच एक भाषण दिया था और उसी अवसर पर उन्होंने ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ को बीस हजार रूपये दान दिया था। तब हिंदुस्तान में 18 रूपये, 93 पैसे में एक तोला सोना मिलता था. इस हिसाब से उन्होंने करीब 1053 तोले सोने की कीमत के बराबर रूपये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को दान दिया था। 1053 ग्राम सोने की क़ीमत आज तकरीबन 52,650,300 (पाँच करोड़, छब्बीस लाख, पचास हजार, तीन सौ रूपये) है। दरभंगा नरेश महाराज रामेश्वर सिंह द्वारा दिया गया यह दान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को किसी ग़ैर मुस्लिम द्वारा दिये गये दानों में सबसे बड़ा और सर्वोच्च स्थान रखता है!
इसकी स्थापना मात्र के लिए दरभंगा के महाराज महेश्वर सिंह ने विशाल भूमि दान नहीं दी थी। 1906 में महेश्वर सिंह के पुत्र और तत्कालीन महाराजा रमेश्वर सिंह ने भी इस संस्थान को दरभंगा भवन जैसा उपहार दिया था। जिसकी लागत उस समय करीब 2.5 लाख आंकी गयी थी। अब सबसे बडी बात, 1, अगस्त 1906 को ही दरभंगा भवन के उदघाटन समारोह में दरभंगा के महाराजा रमेश्वर सिंह ने इस संस्थान में मेडिकल स्टडी को बढावा देने के लिए छात्रवृत्ति शुरु की। 9 हजार का फण्ड विश्वविद्यालय में स्थापित किया गया था। उस समय, सर अशुतोष मुखर्जी (श्यादमा प्रसाद मुखर्जी के पिता) कुलपति थे। इसे महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह मेमोरियल फंड कहा जाता था। बैंक आफ बिहार की स्थापना जरूर की थी। बाकीपुर में इस बैंक को बिहार की अलग पहचान आर्थिक जगत में हो इसी उद्देश्य से स्थापित किया गया था। यह अलग बात है कि स्टेट बैंक आफ इंडिया मे सबसे पहले इसी बैंक का विलय हुआ,1928 में लॉर्ड इरविन ने स्थापित किया था कैंसर संस्थान
पीएमसीएच का रेडियोथेरेपी विभाग देश में सबसे पहले स्थापित होने वाले कैंसर संस्थानों में से एक है। राज्य में कैंसर मरीजों की सेंकाई को शुरू करने का श्रेय कर्नल वावघन को जाता है। उन्होंने ही 1913 में 10 ग्राम रेडियम रेडियोथेरेपी के लिए रांची में लाये थे। इंस्टीट्यूट की स्थापना पहले रांची में हुई थी लेकिन, कैंसर मरीजों की सहूलियत के लिए 1928 में इसे पटना में शिफ्ट कर दिया गया। पटना मेडिकल कॉलेज व अस्पताल को रेडियम इंस्टीट्यूट के नाम से भी जाना जाता था।
1928 में तत्कालीन वायसराय सर लार्ड इरविन के पटना दौरे के समय इसकी विधिवत स्थापना हुई थी। उस समारोह में रेडियम इंस्टीट्यूट के भवन के लिए दरभंगा के महाराजा कुमार विश्वेश्वर सिंह ने 50 हजार और महाराजाधिराज बहादुर सर रामेश्वर सिंह ने एक लाख रुपये का दान दिया था।
महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह ने पटना में न केवल मेडिकल कॉलेज खोलने के लिए प्रयाप्त राशि दी, बल्कि पटना शहर के लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो इसकी भी व्यवस्था की। कुछ दिन पहले अखबार में यह समाचार पढ़ा की पटना के दो वार्ड पार्षद गंदा पेयजल के खिलाफ उपवास करेंगे तो महाराजा रामेश्वर सिंह की उस इच्छा का स्मरण हो आया। महाराजा कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन में रखे दस्तावेज से पता चलता है कि पहली बार पटना के लोगों को पीने के लिए स्वच्छ जल मुहैया कराने की पहल राजनगर सरकार महाराजा रामेश्वर सिंह ने की। उन्होंने उस जमाने में इसके लिए 50 हजार रुपये पटना नगर निगम को दिये..बेशक नगर निगम और पटना की जनता उस इतिहास को भूल चुकी है, लेकिन दस्तावेज हमें पटना के विकास में राजनगर के योगदान को याद दिला देते है.. महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह के योगदान का आकलन अब भी बाकी है।
(स्त्रोत साभार – द रॉयल ब्राह्मण फेसबुक पेज, जानकीपुल डॉट कॉम, कुमद सिंह का फेसबुक पेज, राज पैलेस राजनगर फेसबुक पेज, खंडेलवाल डायनस्टी फेसबुक पेज)