कोलकाता के बीबीडीबाग इलाके में टेलिफोन भवन के पास एक प्रतिमा है। हालांकि सफेद पत्थरों से बनी यह भव्य प्रतिमा संरक्षण में तो है मगर इसके आस – पास इसके बारे में बताने के लिए कोई बोर्ड नहीं है…अगर आप इस प्रतिमा को नहीं पहचान सके तो हम बताते हैं आपको..यह प्रतिमा बिहार के भव्य दरभंगा राज के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर की है।
राजाओं को लेकर एक नकारात्मक छवि बना दी गयी है और नतीजा यह है कि जिन राजाओं ने कुछ अच्छे काम किये हैं, हम उनको भी नहीं जानना चाहते। बिहार या हिन्दी भाषी प्रदेशों में अपने इतिहास को लेकर उदासीनता है और वे बिहार से अधिक महत्व अपने जिले को देते हैं। शायद यही कारण है कि अपने इतिहास को वे गम्भीरता से नहीं लेते। बहरहाल हम आपको बताते हैं…लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर के बारे में।
महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह – 1880-1898 तक इनका शासन रहा। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय दाता थे। रामेश्वर सिंह इनके अनुज थे। उनके परोपकारी कार्यों, प्रशासनिक क्षमताओं और उनकी संपत्ति (दरभंगा राज) के प्रबंधन की बहुत सराहना की गई है और उनकी संपत्ति का विकास हुआ। बंगाल विधानपरिषद के सदस्य रहे.
दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के संस्थापकों में से एक थे। राज दरभंगा ब्रिटिश राज के साथ अपनी निकटता बनाए रखने के बावजूद पार्टी के प्रमुख दानदाताओं में से एक थे। ब्रिटिश शासन के दौरान, कांग्रेस इलाहाबाद में अपना वार्षिक सम्मेलन आयोजित करना चाहते थे, लेकिन उन्हें इस उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा किसी भी सार्वजनिक स्थान का उपयोग करने की अनुमति से इनकार कर दिया गया था। दरभंगा के महाराजा ने एक क्षेत्र खरीदा और काँग्रेस को वहाँ अपना वार्षिक सम्मेलन आयोजित करने की अनुमति दी। 1892ई. के कांग्रेस का वार्षिक सम्मेलन 28 दिसंबर को लोथर कैसल के मैदान में आयोजित किया गया था, जिसे तत्कालीन महाराजा ने खरीदा था। महाराजा द्वारा इस क्षेत्र को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा पार्टी को ठिकाने लगाने से रोकने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा किसी भी प्रयास को विफल करने के लिए पट्टे पर दिया गया था।
तत्कालीन वायसराय किसी भी कीमत पर दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह को स्टेट काउंसिल के चुनाव (1893) में हराना चाहते थे। पहले तो लक्ष्मीश्वर सिंह के खिलाफ पटना क्षेत्र से एक मुस्लिम वकील को चुनाव के मैदान में खडा कर दिया। जब उससे भी बात नहीं बनी तो वायसराय के लोग लक्ष्मीश्वर सिंह को आम लोगों के प्रतिनिधि के बदले एक महाराजा के रूप में प्रचारित कर रहे थे। इस बात को लेकर दरभंगा महाराज ने वासराय को सबक सिखाने का फैसला किया।
लक्ष्मीश्वर सिंह को रुलिंग किंग का दर्जा नहीं मिला था। उन्हें महाराजाधिराज की उपाधि नहीं मिल सकी। उन्हें दो बार मौका मिला इस उपाधि को पाने का, लेकिन पहली बार उन्हें मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के पोते जुबैरुद्दीन गोरगन को पनाह देने और राज्य अतिथि का दर्जा देने के कारण यह उपाधि नहीं दी गई, तो दूसरी बार कांग्रेस के लिए जमीन मुहैया कराने के कारण उन्हें इस उपाधि से वंचित रहना पडा।
दूसरी बार जब उन्हें यह उपधि नहि मिली तो उन्होंने इस उपाधि की मांग छोड दी और खुद को जनप्रतिनिधि के तौर पर स्थापित कर लिया। जनता के मुद्दे उठाने लगे। तत्कालीन वायसराय इस कारण इतने परेशान हो गये कि इन्हें सदन में आने से रोकने के लिए हर प्रयास शुरु कर दिया।
वायसराय के लोगों ने जब लक्ष्मीश्वर सिंह को महाराजा कह कर चुनावी मैदान में हराने की कोशिश की, तो उन्होंने कलकत्ता में ऐसा रोड शो किया कि वायसराय भी भौंचक रह गये। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह वो चुनाव भारी मतों से जीत कर भारत के पहले जनप्रतिनिधि बने, लेकिन यह दुखद रहा कि 1898 में लक्ष्मीश्वर सिंह का निधन हो गया और दरभंगा के अगले राजा रामेश्वर सिंह को महाराजाधिराज की उपाधि मिली।
एस एम घोष (1896 में उद्धृत) के अनुसार महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह एक अच्छे सितार वादक थें। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर ने स्कूल, डिस्पेंसरी और अन्य सुविधाओं का निर्माण किया और उन्हें जनता के लाभ के लिए अपने स्वयं के धन से बनाए रखा। दरभंगा में औषधालय की कीमत £ 3400 थी, जो उस समय बहुत बड़ी राशि थी।
दरभंगा राज महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर ने दरभंगा में सभी नदियों पर बनाए गए लोहे के पुलों का निर्माण शुरू किया।
महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने 146 साल पहले शुरू की निजी ट्रेन। दरअसल, 1874 में दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने तिरहुत रेलवे की शुरूआत की थी. उस वक्त उत्तर बिहार में भीषण अकाल पड़ा था. तब राहत कार्य के लिए समस्तीपुर के बाजितपुर से दरभंगा तक के लिए पहली ट्रेन मालगाड़ी चली थी.रेलवे का जाल बिछाने में महाराज का बड़ा योगदान
महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने ही उत्तर बिहार में रेल लाइन बिछाने के लिए अपनी कंपनी बनाई और अंग्रेजों के साथ एक समझौता किया. इसके लिए अपनी जमीन तक उन्होंने तत्कालीन रेलवे कंपनी को मुफ्त में दे दी और एक हज़ार मज़दूरों ने रिकॉर्ड समय में मोकामा से लेकर दरभंगा तक की रेल लाइन बिछाई. उत्तर बिहार और नेपाल सीमा तक रेलवे का जाल बिछाने में महाराज का बड़ा योगदान है. उनकी कंपनी तिरहुत रेलवे ने 1875 से लेकर 1912 तक बिहार में कई रेल लाइनों की शुरुआत की इनमें प्रमुख दरभंगा-सीतामढ़ी, सकरी-जयनगर, समस्तीपुर-खगड़िया, समस्तीपुर-दलसिंहसराय, समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर, मुजफ्फरपुर-मोतिहारी, मोतिहारी-बेतिया, हाजीपुर-बछवाड़ा, नरकटियागंज-बगहा लाइनें प्रमुख हैं इसके अलावे भी विभिन्न जगहों से अनेक ट्रेने चलाई गई.
भले ही आज राजशाही नहीं है, लेकिन दरभंगा महाराज की संपत्ति से चलने वाले इस अस्पताल में प्रतिदिन दर्जनों मरीजों का मुफ्त में इलाज कर दवा देने की व्यवस्था जारी है। याद रहे कि 12 बीघे में फैले इस अस्पताल की स्थापना 1878 में महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह ने द राज हॉस्पीटल एंड द लेडी डेफरीन फिमेल नाम से गरीबों के लिए की। गरीबों की सेवा के लिए खोला गया दो सौ बेड का यह अस्पताल तत्कालीन बंगाल राज्य का दूसरा सबसे बड़ा चिकित्सालय था। जहां आफगानिस्तान, नेपाल आदि कई देशों से मरीज मुफ्त में इलाज कराने आते थे। डॉ. भवनाथ झा, डॉ. अमूल्या चटर्जी, डॉ. मटरा, डॉ. गोयल, डॉ. होल्द जैसे देश-विदेश के कई नामचीन चिकित्सकों ने यहां योगदान दिया है।
बहु विवाह पर रोक लगाने के लिए इन्होंने अपने कार्यकाल में दंड का प्रावधान किया। गौ रक्षा संघ के संस्थापक बने। अंग्रेजी शिक्षा व एलोपैथी चिकित्सा को बढावा दिया। इनके कार्यकाल में ही अंग्रेजी स्कूल व मेडिकल डिसपेंसरी की स्थापना हुई। भारत में जैविक क्रांति के अगुआ रहे और जर्सी गाय की नस्ल इनके कार्यकाल की सबसे बडी देन है। तिरहुत स्टेट रेलवे की स्थापना कर इन्होंने तिरहुत में विकास की एक नयी लकीर खींच दी। तिरहुत सरकार लक्ष्मीश्वर सिंह ने ही तिरहुत में औद्योगिक क्रांति का सबसे पहले सपना देखा। दरभंगा सूत कारखाने की स्थापना और नील की खेती खत्म करने का सैद्धांतिक फैसला उनके विकास मॉडल को रेखांकित करता है। इंपिरियल कॉउंसिल के पहले भारतीय सदस्य रहे तिरहुत सरकार लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर साह जफर के बडे पोते को राजनीतिक संरक्षण देकर राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता आंदोलन को जिंदा रखने का एलान किया। अफ्रीका में गांधी को मदद करनेवाले पहले भारतीय बने। कांग्रेस के पालनहार बन कर उसकी नींव मजबूत की। पूणा सार्वजनिक सभा के संरक्षक बने। रूलिंग किंग का दर्जा नहीं मिलने के बावजूद कोलकाता में गवर्नर से सलामी लेनेवाले तिरहुत सरकार हिंदू-मुस्लिम एकता के भी प्रतीक माने जाते हैं।
बहुविवाह पर लगाम लगाकर भी सामाजिक आंदोलन के ब्रांड नहीं बन पाये तिरहुत सरकार
बहुविवाह पर लगाम लगाने के बावजूद राजा राम मोहन राय की तरह महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह सामाजिक सुधार के लिए याद नहीं किये गये। जबकि खुद राजा राम मोहन राय ने अपने एक भाषण में तिरहुत सरकार के समाज सुधार को प्रेरणादायक बताया है। इस बात को बिहार के सामाजिक आंदोलनों पर काम करनेवालों ने कभी उल्लेखित नहीं किया, भारतीय परिदृश्य में वो रेखांकित ही नहीं हुए। कारण जो कुछ भी हो, लेकिन तिरहुत में बहुविवाह के खत्मे के लिए इन्होंने न केवल सामाजिक जागरुकता फैलाया, बल्कि दुल्हा, पंजीकार और परोहितों पर दंड का भी प्रावधान किया। दस्तावेज के अनुसार 19वीं शताब्दी तक तिरहुत में एक व्यक्ति 35 से 45 शादियां करते थे। पहली पत्नी तो ससुराल आती थी, लेकिन बाकी पूरी जिंदगी मायके में ही गुजार देती थी। इसे बिकौआ विवाह कहा जाता है, जिसमें गरीब अपनी बेटी का बिवाह कुलीन(एलीट) परिवार के व्यक्तियों से कराने के लिए बिक जाता था। इस घिनौनी प्रथा का सबसे दुखद पक्ष यह था कि एक कुलीन व्यक्ति की मौत पर कई महिलाएं विधवा हो जाती थी। 1876 में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने इस प्रथा काे बंद करने का प्रयास शुरु किया। सबसे पहले उन्होंने इस संबंध में सर्वे कराने का फैसला किया। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार उस वर्ष 54 ऐसे कूलीन व्यक्ति की मौत हुई जिनके कारण कुल 665 महिलाएं विधवा हुई। कोइलख गांव में एक 50 वर्षीय कूलीन व्यक्ति की मौत से 35 महिलाएं विधवा हुई, जबकि रामनगर में एक 40 वर्षीय कूलीन व्यक्ति की मौत से 14 महिलाएं विधवा हुई, महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह इन आंकडों को देखकर तत्काल अपने चाचा गुणेश्वर सिंह व गोपेश्वर सिंह के साथ मंत्रणा की और बिकौआ विवाह पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। साथ ही इसे सामाजिक आंदोलन बनाने के लिए 1000 रुपये का फंड भी आवंटित किया। सौराठ सभा में एक निगरानी ब्यूरो की स्थापना की गयी और ऐसे लोगों पर दंडात्मक कार्रवाई शुरु हुई। 1878 में सौराठ सभा में कुल 2289 विवाह का निबंधन हुआ। इनमें 107 विवाह पंजीयन बिकौआ बिवाह माना गया। 96 लोगों (पंजीकार, दूल्हा, पुरोहित) को सजा सुनाई गयी, जिनसे कुल 298 रुपये का दंड वसूला गया। 10 युवाओं को रिहा किया गया, जबकि 26 दूल्हे को महाराजा कोर्ट में भेज दिया गया। 23 नवंबर 1878 को तिरहुत में पहली बार बिकौआ विवाह करने के कारण किसी व्यक्ति को कारावास हुआ। क्या आप इसे सामाजिक आंदोलन नहीं कहेंगे।
साभार – विकिपीडिया, मैथिली ब्राह्मण महासभा, दैनिक जागरण, मुज्जफरपुर, एबीपी लाइव, बीबीसी हिन्दी
और इंटरनेट तथा फेसबुक पर उपलब्ध ई समाद की सम्पादक कुमुद सिंह के कई आलेख