भाग -7
सभी सखियों को राम राम। सखियों इस मुए करोना ने अभी भी हमारा जीना हराम कर रखा है। न जाने कब इस जंजाल से हमारा पिंड छूटेगा। इस रोग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि आम रोगों में तो लोग आपसे मिलने -जुलने, आप का हाल पूछने आप के घर आते हैं और इस तरह आपका मन बहला रहता है। लेकिन करोना के रोगियों को सबसे अलग-थलग रखा जाता है ताकि इस संक्रामक रोग के खतरनाक कीटाणु दूसरों तक पहुँचकर उन्हें भी अपनी गिरफ्त में ना ले लें। और सखियों यह तो आपको पता ही होगा कि इस पूरी प्रक्रिया को नाम दिया जाता है, आइसोलेशन। तो इस महामारी ने हमें एक और शब्द सिखा दिया, वह है क्वारंटाइन और आइसोलेशन। हालांकि जब प्लेग की बीमारी फैली थी, उस समय भी क्वारंटाइन के लिए लोगों को क्वारांटाइन कैंप में जाना पड़ता था। लेकिन इस बार तकरीबन तमाम संपन्न लोगों को यह सुविधा मिली है कि अगर उन्हें घर पर सभी सुविधाएँ उपलब्ध हो सकें तो वह अपने घर में ही आइसोलेशन में रह कर बीमारी का इलाज करवा सकते हैं।
सखियों, यह आइसोलेशन कई बार लोगों को बहुत भारी गुजरता है और वे शिकायत करते हैं कि उन्हें इस तरह अछूतों की तरह अलग-थलग रहने को विवश होना पड़ता है। लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में मुझे एक बात याद आ रही है जिसे मैं आपके साथ साझा करना चाहती हूँ। आज जो बात लोगों को बेहद यंत्रणादायक लग रही है और वे इसकी शिकायत करते नजर आ रहे हैं इस आइसोलेशन को तो हम महिलाएँ न जाने कब से झेल रही हैं। स्त्री देह की प्राकृतिक बनावट और मानव संतति के विकास हेतु जो प्राकृतिक वरदान महिलाओं को मिला है उसके कारण तकरीबन हर परिवार में उन विशेष दिनों में, सदियों से उन्हें आइसोलेशन में रहने को विवश किया जाता रहा है ।मेरा संकेत तो आप समझ ही गई होंगी, सखियों। हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों के रजस्वला होने को इस तरह से देखा जाता है मानो वे अशुद्ध हो गईं हों और इस कारण तीन से लेकर के पाँच या साय दिनों की अवधि तक उन्हें बहुत सारे कामों से अलग रखा जाता है। कुछ वर्षों पहले तक ग्रामीण भारत के अधिकांश हिस्सों में इस सामाजिक नियम का पालन किया जाता था कि इस स्थिति विशेष में महिलाओं के निवास के लिए घर के बाहर एक झोपड़ी बनाई जाती थी जिसमें उन्हें अपना ऋतुकाल गुजारना पड़ता था और एक तय समय के बाद वे नहा धो कर, स्वच्छ होकर पुनः सामान्य जीवन में प्रवेश कर सकती थीं। हालांकि शहरी परिवेश में इस नियम में थोड़ा सा बदलाव जरूर आया है। स्थानाभाव के कारण वे रहती तो अपने घर में ही हैं लेकिन बहुत से कामों या स्थानों से उन्हें अलग -थलग रखा जाता है। मसलन, वे रसोईघर या पूजा घर में प्रवेश नहीं कर सकतीं, खानपान की बहुत सारी चीजों का स्पर्श भी नहीं कर सकती। अचार, बड़ी, पापड़ आदि नहीं छू सकती, पीने का पानी खुद नहीं ले सकतीं। और इन सब के पीछे यह वजह बताई जाती थी कि वे पदार्थों उनके छूने से अपवित्र हो जाएंगे और अन्य लोगों के खाने- पीने के काबिल नहीं रह जाएंगे। अभी भी बहुत से घरों में यह माना जाता है कि रजस्वला स्त्री अगर अचार आदि छू लेगी तो खराब हो जाएगा और ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाएगा। जहाँ तक स्त्री को घर के काम काज से अलग रखने की बात थी, तो इसके पीछे शायद किसी जमाने में यह कारण जरूर रहा होगा कि उसे आराम मिल पाए लेकिन आराम देने के नाम पर उसे इस तरह सामान्य परिवेश से काट दिया जाना कहाँ तक न्याय संगत है ? गाँवों में तो अब भी यह नियम है कि रजस्वला स्त्रियों को स्नान नहीं करना चाहिए और शायद इसीलिए मंदिर या रसोई में जाने की मनाही थी। स्नानादि न करने के पीछे एक बड़ा कारण यह था उस जमाने में किसी घर में व्यक्तिगत नहानघर या शौचालय नहीं होते थे। नदी यख तालाबों आदि में ही स्नान संपन्न किया जाता था। अगर इस समय वे वहाँ नहाने धोने के लिए जाती पूरा जलाशय दूषित हो जाता। लेकिन वर्तमान दौर में भी क ई परिवारों इस दौरान स्नान न करने के नियम का पालन किया जाता है।
हम लोगों की समस्या यह है कि हम बहुत सारे नियमों का पालन बिना सोचे समझे या तर्क किए करते हैं भले ही उनकी जरूरत या उपयोगिता बदलते दौर में हो या न हो। एक ओर तो हम आधुनिकता का परचम लहराते हैं तो दूसरी ओर रूढ़ियों का पालन भी श्रद्धा से करते हैं। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है लेकिन स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन की गति बहुत धीमी है। भारतीय समाज में एक बड़े तबके की स्त्रियों को सामाजिक नियमों की इन सांकलों में कैद होकर चंद दिनों के लिए ही सही अपने ही परिवार में अछूत की जिंदगी जीनी पड़ती है। जब छूआछूत को कानूनन अपराध माना जाता है तो भला स्त्रियों के साथ यह निर्दय व्यवहार क्यों। एक बात समझ में नहीं आती सखी कि जिस स्थिति के कारण उन्हें अस्पृश्य समझ जाता है उसके बिना तो मानव जाति का विकास ही संभव नहीं है। तो सखियों, क्या आपको नहीं लगता कि यह स्थिति जो कहीं -कहीं परिवर्तित हो रही है उसे पूरी तरह से बदलना चाहिए। सिर्फ स्त्रियों को ही नहीं, आज करोना के कारण आइसोलेशन झेलने वाले तमाम लोगों को इस सदियों पुरानी आइसोलेशन की परंपरा का बहिष्कार करने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। विदा सखियों, आप से अगले हफ्ते फिर मुलाकात होगी।
सखी गीता, ऐसा लिखती हो कि दिल दिमाग़ की चूलें हिला देती हो। ऊपर से आधुनिक दिखने वाला भारतीय समाज रूढ़ियों और परंपरा के नाम पर भीतर से कितना दक़ियानूसी है, ख़ासकर स्त्रियों के मामले में।करोना का आइसोलेशन तो एक बार का है और मजबूरी का है, लेकिन स्त्रियों का आइसोलेशन हर महीने का और बाध्यतामूलक है। हाँ, करोना के क्वारनटाइन को स्त्रियों के इस आइसोलेशन से जोड़ उससे जुड़े रूढ़िवादी और अवैज्ञानिक सोच को सामने ला कर बदलने की बात करना अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। अब तो हर शनिवार की प्रतीक्षा रहती है, सखी!