भगवान श्री कृष्ण को लेकर जालोर के इतिहास में कई कथाएं प्रचलित है। बताया जाता है भगवान श्री कृष्ण जिले के कई गाँवों से होकर गुजरे थे। महाभारत तथा पौराणिक कथानुसार आर्यों की यादव शाखा के नेता बलराम और श्री कृष्ण मरूकांतर ((रेगिस्तानी क्षेत्र))होकर गुजरे।
पौराणिक कथाओं में ऐसा उल्लेख है कि कृष्ण भगवान भाद्राजून में अपनी बहन सुभद्रा से मिलने आए थे। ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण की सहमति से जब अर्जुन यादव कुमारी सुभद्रा का हरण कर सुभद्रा-अर्जुन गाँव में दोनों ने विवाह किया था। इसी कारण इस स्थान का नाम सुभद्रा-अर्जुन पड़ा जो कालांतर में भाद्राजून हो गया। सुभद्रा का हरण करने की बात को लेकर भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलभद्र कृष्ण से नाराज हुए। तब भगवान कृष्ण सुभद्रा के पास गए। माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण अपनी बहिन से मिलने इसी मार्ग से होते हुए गए थे।
हल्देश्वर मठ के महंत शीतलाईनाथ के अनुसार भागवत कथा में वर्णित है कि भगवान श्री कृष्ण अपनी बहन के पास जाने से पहले हल्देश्वर मठ में कुछ देर विश्राम किया था। उन्होंने अपने रथ व घोड़े को हल्देश्वर मठ जालोर के पास छोड़ा था। यहां से वे जालोर स्थित जलंधरनाथजी के धुने पर दर्शन करने गए, जहां उन्होंने जलंधरनाथजी से आशीर्वाद लिया। इसके बाद वे रायथल होते हुए भाद्राजून गए और अपनी बहन तथा अर्जुन को आशीर्वाद दिया।
नाथ बताते है कि ऐसा कहा जाता है उस समय हल्देश्वर मठ के आस पास जंगल ही था, जालोर किले की दूसरी तरफ था। मोहनलाल गुप्ता लिखित पुस्तक जालोर जिले का सांस्कृतिक इतिहास में सुभद्रा अर्जुन के भाद्राजून में विवाह करने तथा अपनी बहन सुभद्रा को आशीर्वाद देने से पूर्व कृष्ण का जालोर के वर्तमान हल्देश्वर मठ में विश्राम करने का वर्णन लिखा है।
यह स्थान महाभारतकाल में द्वारिका-हस्तिनापुर मुख्य मार्ग पर स्थित था।
कहा जाता है कि बलदेवजी का दैवीय हल किसी को भी 500 योजन की दूरी तक पकड़ लेता था। ऐसे में इस स्थान की दूरी द्वारिका से 500 योजन से अधिक होने के कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस स्थान पर ही रुकने को कहा था। उस समय यह पर्वत अनेक ऋषि-मुनियों की तपोस्थलि हुआ करता था। तपस्वियों की उपस्थिति के बीच सुभद्रा व अर्जुन का गन्धर्व विवाह निकट के गाँव के पुरोहित ने सम्पन करवाया था।
विवाह उपरांत दक्षिणा रूप में अर्जुन ने पुरोहित को अपना शंख भेंट किया और देवी सुभद्रा ने नाक की बाली भेंट स्वरूप दी थी। कालांतर में जिस स्थान पर पुरोहित रहते थे, उस स्थान का नाम शंख व बाली से शंखवाली पड़ा। वहीं धुम्बड़ा पर्वत स्थित जहां विवाह सम्पन हुआ उस स्थान का नाम सुभद्राअर्जुनपुरी पड़ा जो अपभ्रंश होते-होते वर्तमान में भाद्राजून के नाम से जाना जाता है। भाद्राजून गांव के निवट धुम्बड़ा पर्वत स्थित महाभारतकालीन सुभद्रा माता का ऐतिहासिक मंदिर जन-जन की आस्था का केंद्र है।