कोलकाता : श्री शिक्षायतन महाविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा 6 और 7 अगस्त 2020 को दो दिवसीय राष्ट्रीय ई. संगोष्ठी का आयोजन किया गया। पहले दिन के कार्यक्रम का विषय रहा रेणु द्वारा रचित कहानी ‘तीसरी कसम’ । डॉ. प्रीति सिंघी ने संचालन करते हुए विषय को प्रस्तावित किया। प्रथम वक्ता के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डाॅ. सुधा सिंह ने ‘तीसरी कसम में प्रेम की अवधारणा’ के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत चर्चा करने के क्रम में तीसरी कसम को आलोचकों द्वारा प्लातोनिक प्रेम कहने पर आपत्ति जतायी क्योंकि प्रेम का सम्बन्ध मनोविज्ञान से है और जहाँ यह घटता है, वह समाज है जिससे प्रेम में मनोविज्ञान और समाज दोनों की उपस्थिति रहती है । प्रेम में मनोविज्ञान की विवेचना में उन्होंने बताया कि मनुष्य के अस्तित्व के साथ यानी बच्चे के गर्भ से निकलने के साथ ही अलगाव या एककी भाव का जन्म भी हो जाता है,इसी एकाकीपन के भाव को पार कर लेने का नाम प्रेम है । वे प्रेम को भावनात्मक रूप में स्वत:स्फूर्त मानती हैं जबकि इसके सामाजिक पक्ष को एक सोची समझी गतिविधि कहती हैं । डॉ॰ सुधा यह स्पष्ट किया कि रेणु द्वारा कहानी में हिरामन का हीराबाई के अपूर्व सौन्दर्य देखकर उसके अक्षत कौमार्य की परिकल्पना करना एक प्रयास है स्त्री की कौमार्य को देह जी बजाय उसकी अनुभूति,उसके व्यवहार में स्थापित करने का ।यह रेणु का पितृसत्ता के विरूद्ध बगावत ही है ।
दूसरे वक्ता के रूप में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रोफेसर डाॅ. आशीष त्रिपाठी ने ‘व्यक्ति कथा समाज गाथा’ पर अपनी बात रखते हुए रेणु द्वारा सांस्कृतिक उपनिवेशन का प्रतिरोध कर सांस्कृतिक वि-उपनिवेशन की बात उठायी और कहा कि रेणु ने यथार्थ के सांस्कृतिक पहलू पर जोर दिया है । तीसरी कसम में हीराबाई और हिरामन की कहानी महुआ घटवारिन की कहानी का आधुनिक रूपांतरण है । महुआ घटवारिन में स्त्री शोषण एवं कोमल प्रेम की कहानी को समझे बिना तीसरी कसम कहानी को नहीं समझा जा सकता है । हिरामन का मन इसलिए महुआ घटवारिन को याद करता है और हीराबाई को कंपनी की औरत न समझ कर उसके दिव्य दैव्य छवि की परिकल्पना करता है । ऐसा नहीं है कि इस कहानी में पुरूष मानसिकता से रेणु परिचित न हों ।जमींदार द्वारा हीराबाई के लिए प्रयुक्त शब्दों में पितृसत्तात्म मानसिकता भी कहानी में बखूबी मिलती है और इसीलिए हीराबाई के लिए हिरामन द्वारा दिए गये संबोधन उसे ज्यादा पसंद है पलटदास के सिया सुकुमारी संबोधन के बनिस्बत । स्त्री के विरुद्ध कहे गये वाक्यों के लिए हिरामन लड़ जाता है । कार्यक्रम के समापान के पड़ाव में प्रश्नोत्तरी सत्र रखा गया और अन्त में विभाग की प्रो. अल्पना नायक ने सभी वक्ताओं ,श्रोताओं और कार्यक्रम से जुड़े समस्त सदस्यों के प्रति धन्यवाद व्यक्त किया । दो दिवसीय राष्ट्रीय ई संगोष्ठी के दूसरे दिन का विषय रहा – ‘मानस का हंस’ जिसमें संचालक के रूप में डॉ. रचना पाण्डेय ने पुस्तक के उदाहरण के साथ तुलसीदास के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए अमृतलाल नागर के ‘मानस के हंस’ को पढ़े जाने की महत्ता को बताते हुए संचालन किया। दूसरे दिन के पहले वक्ता लखनऊ विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्रोफेसर डॉ.सूर्य प्रकाश दीक्षित ने रामचरित मानस के तुलसी और नागर के मानस के हंस पर विस्तृत चर्चा की इसके साथ ही तत्कालीन परिस्थितियों को उजागर करते हुए यह बताया कि जब रचनाकार रचता है तो कौन कौन से कारक उसे प्रभावित करते हैं। अपनी रचनाओं में हाशिए के लोगों के विरूद्ध असंवेदनशीलता के आरोपों से तुलसी को बरी करने के लिए इस उपन्यास में नागर जी ने तुलसी के धर्मनिरपेक्ष एवं वर्ग निरपेक्ष तथा स्त्री का सम्मान करने वाले की छवि प्रस्तुत की है । दीक्षित जी ने इस उपन्यास को सामाजिक इतिहास के आधार पर लिखी रचना माना है । उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही कि अमृतलाल नागर की रचना मानस के हंस में काम और राम के बीच का द्वन्द्व ही अन्ततः किस प्रकार तुलसी को महान कवि बनाता है। उन्होंने नागर की रचनाओं में किस्सागोई की विशेषता एंव पूरी रचना को सिनेरियो टाईप कहा और यह भी कहा कि नागर के यहाँ संवाद शैली मे रचनाएँ लिखी गयी जिसकी भाषा खड़ी बोली होती हुए भी एक विशेष प्रकार की नागरी भाषा,नागर जी की अपनी भाषा लगती है ।
दूसरे वक्ता सुरेन्द्रनाथ सान्ध्य कॉलेज,कोलकाता के डाॅ प्रेमशंकर त्रिपाठी ने बहुत ही सुन्दर और तथ्य परक ढंग से मानस के हंस की व्याख्या की । उन्होंने राम के प्रति तुलसी की निष्ठा की बात बताई । साथ ही नागर जी मृत्यु का जो आह्वान करते है उसके रहस्य को नागर जी के साथ के अपने संस्मरणों के माध्यम से व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि मानस के हंस में मोहिनी प्रसंग नारी के प्रति आकर्षण की एक बानगी प्रस्तुत करता है तथा यह बताया कि भक्ति जरूरी है पर अन्धभक्ति की कोई जगह नहीं होनी चाहिए । मनुष्य को हमेशा अपने समाज के प्रति सचेतन होना चाहिए । उन्होनें तुलसी की काम से राम तक की यात्रा को उजागर किया है । प्रेमशंकर त्रिपाठी जी ने यह स्पष्ट किया कि यहाँ तुलसी ने काम, क्रोध, लोभ, मोह इन सारी विकृतियों से लड़ते हुए मानस के हंस को पाया है। महामारी में तुलसी के लोकरक्षक रूप का चित्रण नागर जी द्वारा किए जाने का प्रसंग भी वे उठाते हैं ।इसके बाद डाॅ प्रीति सिन्घी ने प्रश्नोत्तरी सत्र को बहुत अच्छे ढंग से सम्भाला जहाँ लोगों ने बेहद विवेक पूर्ण प्रश्न पूछे । प्रो. सिंधु मेहता ने कार्यक्रम के अन्त में सभी को धन्यवाद देते हुए कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की।