सेवासदन : आज भी बड़ा प्रश्नचिह्न है समाज पर यह कृति

-दीपा गुप्ता
प्रेमचंद जी ने 1916 में “बाजार-ए-हुस्न” लिखा, जिसका उन्होंने एक साल बाद हिन्दी रुपांतरण कर 1917 में “सेवासदन” नाम से प्रकाशित किया। प्रेमचंद कि यह उपन्यास लोगों को सस्ती शिक्षा देने के लिए नही लिखा गया।कुछ लोग को लगता है सेवासदन की मुख्य समस्या वेश्यावृत्ति है,वास्तव मे ऐसा नही है।सेवासदन की मुख्य समस्या नारी की पराधीनता है।
प्रेमचंद जी ने सुमन की समस्या को व्यक्तिगत न बनाकर सामाजिक बनाया है।उन्होंने ने दिखाया है कि कैसे सामाजिक परिस्थितियां ही सुमन को सुमनबाई बनने. को मजबूर करती है।मध्यवर्गीय नारी के जीवन की विभिन्न समस्याओं के साथ धर्माचार्यो, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों का आंडम्बर ,दहेज प्रथा,अनमेल विवाह, मनुष्य का दोहरा चरित्र…. इत्यादि समस्याओं का भी मार्मिक वर्णन किया गया है।

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सेवासदन एक सनायिक उपन्यास नहीं है, जिसकी उपादेयता अपने समय और अपने युग के साथ समाप्त हो जाये।इसमे वर्तमान के प्रकाशन की अपूर्व क्षमता है। आज के संदर्भो में इसकी प्रासंगिकता एवं उपयोगियता को नकारा नही जा सकता है।आज जीवन मूल्यों का तेजी से विघटन हो रहा है। ऐसी स्थिति में सेवासदन हमारे सामने एक सार्थक उदाहरण के रुप में प्रस्तुत है।यदी हम इस तत्थ को स्वीकार नही करते तो इसका अर्थ यह होगा कि या तो सेवासदन के साथ हमारी सहानुभूति एक ढोंग है या हम आज भी सेवासदन के युग में ही जी रहे है।सेवासदन में हमारी रुची बनाए रखने में संवेदनात्मक का उतना योग नही जितना उसके नैतिक मुल्यों का है।
प्रेमचंद जी द्वारा सालों पहले लिखा गया यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना की अपने समय।उस समय जिस दहेज प्रथा का शिकार सुमन और उसका परिवार हुआ था उसी भांति आज भी ऐसे कितनी सुमन है हमारे समाज में जो रोज दहेज प्रथा की बलि चढ़ जाती है।’ “आज जैसे यह प्रथा सी बन गयी हो कि लड़का जितना ज्यादा पढ़ि लिखा होगा उतना ही दहेज की रकम भी।” इस उपन्यास जरिए प्रेमचंद जी ने उन शिक्षितों की हकीकत जाहिर कर दी जो विवाह और सतीत्व के नाम पर लेन-देन करते है। जो ऊपर से तो दहेज की कुप्रथा की बुराई करते लेकिन उसे कायम रखने के लिए हमेशा बहाने ढूंढ़ लिया करते है।
कहने के लिए तो आज महिला चांद तक पहुंच गयीं हैं।लड़को से कंधा मिला कर चलती है।देश चला सकती है। वास्तव में आज भी उन्हें खुल जीने का हक नही है।रात अकेले बाहर नही जा सकती है। जैसा कि उपन्यास में हमें देखने को मिलता है।सुमन के घर देर लौटने से गंजाधर कितना तमासा करता है।
आज हम अंतरिक्ष मे बस्ती बनाने का सपना देख रहे पर ढोंगी बाबाओं से आज भी समाज घिरा हुआ है।महंत रामदास जैसे अनेकों बाबा आज भी हमारे समाज मे मजूद है।जो धर्म के आड़ में न जाने क्या क्या करते है।
उपन्यास की वास्तविक समस्या ही यह है- लड़कियों को कुए में ढ़केलने और फिर स्टिंग और पतिव्रता धर्म के गीत गाना।इस समूचे व्यापार में लड़की की इच्छा अनिच्छा का सवाल ही नई उठता है।बलिपशु को तरह जिस खूंटे से भी बांध दी जाए, उसे बँधना पड़ता है।
प्रेमचंद ने विस्तार से दिखलाया है कि इस समाज व्यवस्था में संपत्ति के रक्षक सदाचार की आड़ में वेश्यावृत्ति को प्रश्रय ही नही देते ,वेश्याओ को जन्म भी देते हैं ।और जिस समाज में विवाह का मतलब कन्या विक्रय हो,उससे वेश्यावृत्ति कौन उठा सका है।? सेवासदन एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है जिसका उत्तर आज भी हमारे समाज के पास नही है।

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