स्वर्गीय परमेश्वरन जी की याद में…

शुभांगी उपाध्याय

मूल रचना : डॉ. एम.लक्ष्मी कुमारी
हिंदी अनुवाद: शुभांगी उपाध्याय

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित: |
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ||

यह श्लोक जो स्मृति मंडपम में स्वर्गीय एकनाथजी की समाधि पर अंकित है, वह माननीय परमेश्वरन जी के जीवन पर भी प्रतिध्वनित होता है।

१९८० के दशक में, जब माननीय परमेश्वरन जी दीन दयाल संस्थान, नई दिल्ली के निदेशक थे तब से मेरा उनके साथ परिचय हुआ। तत्पश्चात, विवेकानंद केंद्र में मुझे बड़े भाई के समान ही उनका स्नेह प्राप्त होता रहा। वे मुझसे दस वर्ष ज्येष्ठ थे, किन्तु प्रेम और आदरपूर्वक वे सदैव मुझे “दीदी” कहकर ही पुकारते थे। विवेकानंद केंद्र के लिए यह बड़े ही सौभाग्य की बात है कि माननीय परमेश्वरन जी १९९५ से केंद्र के अध्यक्ष रहे और साथ ही युवा भारती तथा अन्य केंद्र प्रकाशन के संपादक भी।

स्वामी विवेकानंद ने जिस प्रकार दिसंबर १८९२ में भारत को देखा था, ठीक उसी प्रकार एक बार पुनः इस भूमि के छोर से भारत को देखने का एक दुर्लभ और अनूठा प्रयास आरम्भ हुआ, किन्तु एक सूक्ष्म अंतर के साथ, अब वहां स्वतंत्र भारत के शानदार भाग्यारोहण के दो महान स्थल – विवेकानंद शिला स्मारक और प्रतिष्ठित विवेकानंद केंद्र की स्थापना हो चुकी थी। विवेकानंद शिला स्मारक न केवल हमारे राष्ट्र अपितु पूरे विश्व को स्वामी विवेकानंद के महान दृष्टिकोण के प्रति आकर्षित करता है। उस दृष्टि की व्यावहारिक अभिव्यक्ति के लिए और बाद में महान देशभक्त और प्रचारक श्री एकनाथ रानाडे द्वारा निरूपित आध्यात्म प्रेरित सेवा संगठन विवेकानंद केंद्र की स्थापना, हमारे देश के विवेकशील युवाओं के लिए की गई जो अपनी मातृभूमि और समाज की सेवा के लिए खुद को समर्पित करना चाहते हैं।

स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरबिंदो की तरह ही परमेश्वरन जी भी उस अस्तित्व की एकता में दृढ़ विश्वास रखते थे जो ब्रह्मांड में व्याप्त है, जिसे हम अपनी इंद्रियों, मन और बुद्धि से अनुभव कर पाते हैं। वह एक गहरी वास्तविकता है जिसका बाह्य रूप से दिखाई देना केवल आंशिक अभिव्यक्ति और एक महत्वपूर्ण प्रतीक मात्र है। हमारी महान मातृभूमि के प्रति उनकी धारणा को मैं स्वयं उनके ही शब्दों में उद्धृत करती हूँ: “हम मानते हैं कि राष्ट्र एक आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है।  यह पैदा होता है, इसे बनाया नहीं जाता। यह एक जैविक, जीवित, बढ़ती, गतिशील इकाई है, पश्चिम के विपरीत जहां एक राष्ट्र को सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक कारकों का उत्पाद माना जाता है। हिंदू राष्ट्र अंध ऐतिहासिक ताकतों के संगम के आधार पर विविध लोगों का केंद्र नहीं है। पिघलने वाले बर्तन की आधुनिक अवधारणा यहां लागू नहीं होती, जिसमें समुदायों को एक ही पूरे में अथवा एक ही मोज़ेक में पिघलाया जाता है और विभिन्न लोग यांत्रिक रूप से सह-अस्तित्व में होते हैं। यहां राष्ट्र एक दिव्य बीज से उत्पन्न एक जैविक है जो अंकुरित होता है और शाखाओं को बाहर निकालता है एवं रंगीन फूलों के साथ अपने पत्ते फैलाता है।”

उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में त्याग और सेवा के आदर्श, जो स्वामी विवेकानंद को बहुत प्रिय थे, को बहुत गहराई से आत्मसात किया था। यह सर्वविदित है कि माननीय परमेश्वरन जी सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रवादी हैं वेद हमारे राष्ट्र का वर्णन मानवता के कल्याण को ध्यान में रखने वाले महान ऋषियों द्वारा किए गए तप के परिणाम के रूप में करते हैं। एक राष्ट्र धीरे-धीरे विकास की प्राकृतिक प्रक्रिया में परिवार और समुदाय से ऊपर उठकर अंत में केवल एक ही परिवार के रूप में पूरे विश्व को गले लगाने में सक्षम हो जाता है।  यह “कुटुम्ब” ही है जो एक विश्व परिवार में विकसित होता है। इसका आधार एक से अनेक बनने की आध्यात्मिक अवधारणा है। उस उच्च आध्यात्मिक आदर्श के बिना किसी भी प्रकार का कौशल अथवा यांत्रिक संस्थान की इमारत “एक दुनिया” या राष्ट्रों का परिवार” नहीं हो सकती।  उनके लेखन से पता चलता है कि जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान किया है। उनके लेखन ने स्वामी विवेकानंद के “बनो और बनाओ” आदर्श को अपनाया और इसी कारणवश उनकी रचनाएं भविष्य में एक शानदार भारत के निर्माण हेतु सेवा और त्याग की मृदु भावना को जागृत करने में सक्षम है।

उनका लेखन और वक्तव्य विज्ञान तथा आध्यात्मिकता का एक स्वादिष्ट मिश्रण प्रदान करते हैं। उनमें से कई रचनाएं शिक्षा, राजनीति या पारिस्थिति विज्ञान पर रची गयी हैं परंतु विशिष्ट भारतीय दृष्टिकोणानुसार उसका मूल, आध्यात्मिक जागरूकता पर ही केंद्रित है। उनके अनुसार गीता एक व्यापक विश्व-दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। वह आध्यात्मिकता और भौतिकवाद की दोहरी जरूरतों को संतुलित करती है। गीता का कर्मयोग उन असंख्य विकृतियों के लिए रामबाण इलाज है, जिनका सामना हम अपने प्रतिदिन के कार्य में करते हैं। वे हमें अपनी दिन-प्रतिदिन की समस्याओं को गीताचार्य रूपी मीनार से देखने का आग्रह करते हुए कहते हैं की यह सब मूर्खतापूर्ण बातें है और हमें हमारे बहुमूल्य मानसिक और बौद्धिक संकायों को इसमें बर्बाद नहीं करना चाहिए। यह दृष्टि विशेष रूप से युवाओं को पैसा बनाने और नशे की लत के सांसारिक विकर्षणों की खोज पर केंद्रित है। स्वामीजी की ही भांति परमेश्वरन जी भी देश की रुग्ण शिक्षा व्यवस्था, समाज, अर्थशास्त्र, धर्म, हिंदुत्व, नारीवाद आदि विषयों पर अपनी चिंता व्यक्त की है।

हिन्दू धर्म द्वारा अपने अनुयायियों को प्रदत्त ईष्ट देवता की अवधारणा और उनके पूजन-अर्चन की स्वतंत्रता के बारे में वे अक्सर लिखा करते थे। ईश्वर का माँ के रूप में पूजन-अर्चन करने से हिंदू धर्म को अतिबृहत बल प्राप्त हुआ। इसका सीधा प्रभाव नारीत्व के उत्थान पर पड़ा, जिसकी अन्य धर्मावलंबी कल्पना भी नहीं कर सकते। उन्होंने इस ओर भी ध्यान आकर्षित किया कि कैसे इस उत्थान के पश्चात भी यहां की महिलाओं को विदेशी संस्कृतियों के आक्रमणों के कारण, सदियों से असुरक्षा का अनुभव होता रहा, और उनके नारीत्व को घोर अपमान झेलना पड़ा, जिससे उन्हें आज भी मुक्ति नहीं मिल पाई है। अपने जैसे अन्य सामर्थ्यवान राष्ट्रवादियों की तरह ही, माननीय परमेश्वरनजी भी युवाओं को जगा देने वाले आह्वान देने में कभी भी असफल नहीं हुए, उन्होंने कहा कि युवा उस भव्य भारतीय आदर्श पर खरा उतरे, जिसका दृष्टिपात स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरबिंदो और अन्य महापुरुषों ने किया। उन्होंने युवाओं से राष्ट्र और समाज सेवा तथा भारत माता को एक बार पुनः जगद्गुरु के पद पर सिंहासनारूढ़ करने हेतु स्वयं को समर्पित करने का आग्रह किया।

अपने मजबूत इरादों और दृढ़ विश्वास के बावजूद भी वे अपने तथाकथित वैचारिक दुश्मनों सहित अन्य लोगों के साथ भी विनम्रतापूर्वक व्यवहार ही रखते थे। यही कारण है कि वे ‘अजातशत्रु’ थे, कोई उनका दुश्मन नहीं था। श्री रामकृष्ण, शारदा माँ और स्वामीजी जैसे महान शिक्षकों के प्रति समर्पण भाव ने उनके व्यक्तित्व की कोमलता को बढ़ा दिया था। हम दोनों ने ही श्रीरामकृष्ण मठ से दीक्षा ली थी, और यही स्वर्णिम सूत्र हमें एक असामान्य भाई-बहन के रिश्ते में बांधता था। यह सूत्र सदा मेरी प्रेरणा का स्रोत रहेगा क्योंकि मैं उसके बारे में बार-बार सोचती रहती हूँ।

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