चलो! रजनी ढालि का बेटा अलाउद्दीन आया है
अलाउद्दीन ढालि शेख गा रहे हैं। नजरें उदास हैं और स्वर अस्त होते सूर्य की तरह मद्धिम। फिर भी गीत का हर मर्मस्पर्शी भाव उजागर हो रहा है,
हे नाथ! यदि इस भव सागर में भेजते हो दोबारा,
कृष्ण भक्त मां के गर्भ से ही जन्म दिलाना मेरा।
कृष्ण और राम, दोनों के प्रेम के दीवाने हैं अलाउद्दीन। उनकी भक्ति में हृदय को तपाकर जीवन के 93 बसंत पार कर चुके हैं। जीवन के शेष दिनों के लिए उनका एकमात्र सहारा हैं, ब्रज के ब्रजदानंदन। वह कौन हैं? कहां हैं? उनके दर्शन के लिए पलक-पांवड़े बिछाकर अब भी प्रतीक्षा कर रहे अलाउद्दीन गाते हैं,
हे प्रभु, रूप तुम्हारा निहारता रहूं,
और रहूं उसी वृक्ष के नीचे,
हे दयाल गुरु, पृथ्वी का चिर कंगाल बना दो मुझे…
पचास के दशक में बंगाल के ग्रामीण जीवन में तरजा गान और कवि गान मनोरंजन के लोकप्रिय साधन थे। इनमें कलाकार गायन के बीच तर्कों से एक-दूसरे को पछाड़ने की कोशिश करते। प्रतिद्वंद्वी से सवाल-जवाब होता। इसका जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। ऐसे ही वातावरण में उन दिनों के मशहूर कलाकार रजनी ढालि के पुत्र अलाउद्दीन ने तालीम लेनी शुरू की। उनके पिता के गुरु हेमचंद्र सिंह ने उन्हें तरजा गान की बारीकियां सिखाईं।
अलाउद्दीन ने सैकड़ों-हजारों टीका-टिप्पणियों के साथ रामायण, महाभारत, गीता, पुराण में महारत हासिल की। उन्हें सफलता भी हाथों-हाथ मिली। अविभाजित 24 परगना ज़िला, नदिया, बीरभूम, बांकुरा, दुमका से उन्हें बुलावा आने लगा। उनके पीछे-पीछे भक्तों की टोली दौड़ पड़ती। लोग कहते, ‘चलो-चलो, तरजा गान की महफिल में रजनी ढालि का बेटा आया है।’
लोकप्रियता में अलाउद्दीन अपने पिता से भी आगे निकल गए। ऐसा हो पाया उनकी निस्वार्थ कृष्ण भक्ति और भगवान रामचंद्र के प्रति अनुराग के कारण। वह प्रेम आज भी कायम है। उस प्रेम और भक्ति का एक स्वरूप यह भी है कि जीवन की इस शाम में वह गा रहे हैं,
बार-बार भावना आती है भक्तों का संग पाऊं,
मैं का अभिमान त्याग कर प्रणाम जनाऊं,
कृष्ण भक्तों के चरणों में…
राम ने ऐसा क्यों कहा होगा
तरजा गान के लिए अलाउद्दीन ने देशभर में प्रचलित अलग-अलग विचारों और शैलियों वाली रामायण कंठस्थ कर डालीं। कृतिबासी रामायण, तुलसीदासी रामायण, राम रसायन, अद्भुत रामायण से लेकर योगवशिष्ठ रामायण तक पर उनकी गहरी पकड़ है।
इन्हें पढ़ने के दौरान योगवशिष्ठ के एक अंश ने उनके मन में सवाल खड़ा कर दिया। 14 वर्ष के वनवास पर जाने से पहले माता कौशल्या ने राम के हाथ में एक कटोरी दूध थमाया था। उस दूध को ग्रहण न कर राम अपनी माता से बोले- 14 वर्ष के लिए गृह त्याग कर रहा हूं। आप मुझे बताइए, इस समय सुस्वादु गोमांस मुझे कौन देगा?
अलाउद्दीन को इस बात ने परेशान कर दिया कि राम ने ऐसी बात क्यों कही होगी। इसका अर्थ समझने के लिए वह कई विद्वानों से मिले। इसी क्रम में वह जा पहुंचे कलना के सिधेश्वरी मंदिर के पंडित हाराधन गोस्वामी के पास। अलाउद्दीन ने अनुरोध किया, इस रहस्य को खोल दीजिए कि असल में स्वादिष्ट गोमांस है क्या? पंडित हाराधन ने बताया कि इसकी कई व्याख्याएं हैं। गो शब्द के एक से अधिक अर्थ हैं और जो इस शब्द का अर्थ जिस रूप में लेगा, वह वही अर्थ निकालेगा। उन्होंने अलाउद्दीन से कहा था कि इसके बारे में ज्यादा चिंता मत करो।
ऐसी कई बातें हैं अलाउद्दीन के जीवनधारा की। तत्कालीन रचनाओं में उनके जोड़ की कोई दूसरी नहीं दिखती। प्रतिस्पर्धा के मंच पर विरोधियों को काबू करने में वह प्रभावशाली टिप्पणी करते हैं,
पेड़ पर बेल पके हैं,
डाल पर बैठे कौए सोचते हो क्या,
पपीता नहीं जो चोंच मारकर खा लोगे,
नहीं चलेगी तुम्हारी चतुराई।
एक मेडल और वह भी कोई ले गया
अलाउद्दीन ने सैकड़ों छंद रच डाले। उनके तमाम गीत लोग शीतकालीन नलेन यानी गुड़ की तरह लिए घूमते हैं। और ख़ुद उनका ठिकाना गांव कालना के जीवधरा में टीन के एक छप्पर के नीचे है। सम्मान की बात करें तो वर्ष 1980 में राज्य सरकार की ओर से श्रेष्ठ तरजा गायक के तौर पर चांदी का एक मेडल और मानपत्र मिला था। वह मेडल भी कोई ले गया। वैसे भी फकीर के लिए संपत्ति की क्या ज़रूरत! जो राम और कृष्ण से नेह लगा बैठा हो, उसका हृदय सोना-चांदी तोड़ सकता है भला?
कविगान के ज्यादातर कलाकार मुस्लिम संप्रदाय से हैं। कवि सम्राट सुमानि दामान, अब्दुल जब्बर, गोपाल शेख से लेकर साहेब जान शेख तक, सभी तरजा कलाकार के रूप में जाने जाते हैं। ये सभी कलाकार मनोयोग से रामायण, महाभारत और गीता पाठ कर रहे। वे जानते हैं कि बंगाल के गांवों में रहने वालों के मनोरंजन के लिए ऐसे ही साहित्य पाठ की आवश्यकता है।
एक सवाल उठता है कि मुस्लिम होने पर भी इतनी कृष्ण और राम भक्ति? कहीं कोई समस्या नहीं हुई? अलाउद्दीन का जवाब है, नहीं। बल्कि वह तो भक्तों की ओर से मिला सम्मान आज भी याद करते हैं। एक बार वह कविगान की महफिल में भाग लेने के लिए नदिया के हरिपुर गए थे। तब रमजान का महीना चल रहा था। हिंदुओं ने वहां उनका जो आदर-सत्कार किया, उसे वह आज तक नहीं भूले। जिस तरह नहीं भूल पाए हैं शांतिपुर के न्यू बॉयज क्लब का कार्यक्रम। वहां भी आयोजकों ने उनके रोजे का पूरा ध्यान रखा था।
फिर सवाल उठता है कि संगीत में जीवन समर्पण, काव्य रचना, कृष्ण प्रेम और लोगों के मनोरंजन का मोल क्या दो हज़ार रुपये मासिक होना चाहिए? बता दें कि अलाउद्दीन को सरकारी कलाकार भत्ता के तौर पर एक हज़ार और अतिरिक्त भत्ता के तौर पर एक हज़ार रुपये मिलते हैं। इतने से काम चल सकता है क्या? अलाउद्दीन ढालि शेख साहेब ने ब्रजेंद्रनंदन को स्मरण कर फिर गीत में जवाब दिया,
हे दयानिधान! मैं नहीं चाहता रुपये-पैसे और नहीं चाहता अभिमान,
गूंथता रहूं कृष्ण नाम की माला, देकर मन और प्राण।
बातचीत में दोपहर हो चली है। पश्चिम की ओर से सूर्य की किरणें टीन की दीवार में छेद खोजकर अंदर आ रही हैं। अलाउद्दीन के मुखमंडल पर जीवन तृप्ति की आभा झलक रही है।