दबी – दबी ही सही भारतीयों में आस थी कि प्रथम लॉक डाउन खत्म होते ही देश के साथ साथ घर के दरवाजे पर जड़ा लॉक भी खुल जाएगा। ऐसी ‘आस बंधन’ की जद में कोरोना का चाइनीस होना था। हमने सोचा था चाइनीज माल की तरह कोरोना भी चंद दिनों में निपट ही लेगा। लेकिन नहीं ।यह चंद दिनों वाला माल नहीं। यह चांद वाला माल निकला ।
चीनी माल के विषय में जो कहावत है कि ‘चले तो चांद तक, न तो शाम तक’! उसके कारण हमने कोरोना को ‘शाम तक’ समझा, लेकिन यह जुल्मी तो ‘चांद तक’ जाने को ललक रहा! हम भारतीय पहली बार चाइनीज माल के चांद तक जाने से परेशान और दुखी है। सबसे बड़ा दुख और सन्नाटा साहित्य के मंच पर पसरा। कवि, साहित्यकार, बुद्धिजीवियों उर्फ ‘मंच के लाडलो ‘ में लॉक डाउन के कुछ वक्त तक तो निराशा खुड़की, लेकिन जल्द ही वे आशा की अलख जगा उठे। यह अलख – ऑनलाइन लाइव होकर स्वयं के अलाइव होने का प्रमाण देना रहा। यानी लंबे वक्त से मुंह में जमी दही बिलनी शुरू हुई। इसे ग्रामीण परिवेश में ‘थूक बिलोना’ भी कहते हैं। और देखते-देखते लंबे भाषण,गीत, कविता की लंबी चौड़ी दुकानें ज़ूम, फेसबुक लाईव एप पर सजकर जलवे बिखेरने लगे। कविसम्मेलन से अतृप्त आत्माएं महाकविसम्मेलन करवाने लगी। महाकवि सम्मेलन हो और महाकवयित्रियां कैसे न निमंत्रित हों! सो हुई! काव्य पाठ भी हुआ । ऐसे ही एक ऑनलाइन काव्य पाठ के बाद जो कवि के ‘जी’ में हुआ उसे कवि ने बेलौस अपनी कवयित्री के नाम पत्र लिखा जिसका मसौदा कुछ यूं था –
हे नव किस्म के सौंदर्य से युक्त प्राण प्रिय! मेरा प्रेम भरा नमस्कार स्वीकार करो! हालांकि भविष्य में यह प्रेम बरकरार रहेगा इसमें तनिक संदेह है! प्रिय ! आज कितने दिनों बाद तुम्हें देखा था। मैं लैपटॉप के इस पार था और तुम उस पार थी, बावजूद में डर गया था। क्या तुम वही हो जो मंच पर इठलाती,बलखाती हुई साड़ी का पल्लू लहराती मेरी कविता की प्रेरणा हुआ करती थी?.. प्रेरणा तो तुम अब भी रहोगी! लेकिन यह संदेह है कि कहीं मेरी कविता का श्रंगार रस भयानक रस में तब्दील ना हो जाए! सच कहूं! मुझे कभी लगा ही नहीं कि 21वीं सदी में ऐसा कोई वक्त आएगा जब ब्यूटी पार्लर बंद हो जाएंगे और मेरी प्रेरणा का सौंदर्य इस कदर खुलकर बाहर आएगा?
तुम्हारे लाल होठों पर नारंगी लिपस्टिक के सीमांत मुझे राजपूती शान की याद दिला गए। मुझे कहने में गुरेज नहीं कि तुम्हारे अपरलिप्स और राजपूती मूछें एक दूसरे से स्पर्धा करती दिखीं! मुझे मालूम है तुम माथे बड़ी बिंदी लगाती थी। आज भी लगाई थी लेकिन आज तुम्हारी बढ़ी हुई आइब्रो की लंबाई और चौड़ाई बिंदी पर इस कदर हावी थी मानो आकाश में विचरती घमंडी काली घटा सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए ध्रुव तारे को आज ही निपटाकर दम लेगी।।प्रिय! बिना फेशियल तुम्हारे मुख रूपी चंद्रमा पर पड़ी झुर्रियां मुझे चरखा कातती बुढ़िया का सूत नहीं बल्कि रेगिस्तान में चलते किसी विषधर जैसी लग रही थी, जिसकी फुंकार मुझ समेत मेरे लैपटॉप तक ने महसूसी। एक जमाने में तुम्हारी घनेरी अलक समेत पलक की जो कालिमा मेरे जीवन के अंधकार को हरने के लिए थी, आज वह झक्क सफेद होकर सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है मनवाने में तत्पर दिखीं, जो मैं मानना नहीं चाहता। इतना ही नहीं, वैक्सिंग के अभाव में तुम्हारे कपोल पर उग आए काले रोएं मुझे रुलाने के लिए काफी थे।सुनो! खांडव वन को इंद्रप्रस्थ बनते तो सुना था लेकिन यहां तो इंद्रप्रस्थ ही खांडव वन में तब्दील हो रहा है। तुम ही बताओ प्रिय! तुम्हारे सौंदर्य की यह तब्दीली कैसे न मुझे गृहस्थ जीवन से मोहभंग और वानप्रस्थ जीवन से मोह कराए। हे प्रिय! पार्लर अभाव तेरी नारी की दोनों मात्राओं को राहु बनकर ग्रस रहा है। तू धीरे धीरे नर रूप में परिवर्तित हो रही है! तुम्हारे जिस अद्भुत सौंदर्य से मैं अभिभूत था उसका प्रतिरूप भूत बन कर मेरी ढिबरी टाइट कर रहा है! तुमसे गुजारिश है कि तुम मेरा काल बनकर आए इस रूप परिवर्तन को संयमित होने को कहो! अन्यथा प्रिय से अप्रिय होने में मात्र ‘अ’ स्वर भर की दूरी ही है।
तुम्हारा तुमसे ही डरा हुआ कवि!😜