मजदूर

-सिम्पी मिश्रा

मजदूरों के देश में देखो

कैसे मजदूर ही बेबस हुए जाते हैं

दो रोटी की आस में देखो कैसे

बीच सड़क मर जाते हैं।

इनकी पीड़ाओं को क्यों कोई ताके…?

इनकी त्रासदी की झांकियों को भी

भला क्यों कोई झांके..

क्यों इनका कोई सोचे कुछ भी

इनकी समस्याएं भी कब रही नई..!

इनकी तो नियति यही है!

ठोकर- दुश्चिन्ता तो इनकी चिर संगिनी है।

खटना, थकना, हारना , गिरना..

निरंतर करते रहना मजदूरी बेहिसाब

तो आज फिर भला इनकी पीड़ा

इनकी मार्मिक करुण पुकार

क्यों बने देश के लिए कुछ खास..?

इनको भला कब, किसने

दिया यह सच्चा विश्वास कि

हां, करेंगे इस दफा इनके लिये भी कुछ खास!

मजदूर हैं ये

हां कि मजदूर हैं ये

इसलिए आज भी मजबूर हैं ये..!

ये गर पटरी पर सोते- सोते मर भी जाये

तो प्रश्न यही बस उठता है

भला मजदूरों के देश में भी  कोई मजदूर

कभी थक कर सो सकता है???

ये तो मजदूर हैं भाई!

भला कोई मजदूर कभी रो सकता है??

मजदूरों के देश में भी

कोई मजदूर भला कब रो सकता है!

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One thought on “मजदूर

  1. Deepak says:

    मजदूरों के दर्द को इस तरह से समझना और बयां करना आपके मन में उनके प्रति उच्च भावों को दर्शाता है। आपने मजदूरों के दर्द को बहुत ही सुंदर रचना के माध्यम से प्रस्तुत किया है। काश इस दर्द को इसी शिद्दत के साथ हमारी सरकार भी महसूस कर पाती तो शायद यह मजदूर आज इतने कष्ट में नहीं होते।

    बहुत अच्छी पंक्तियां। और आपसे आगे भी इस तरह से रचनाओं की अपेक्षा रहेगी।

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