महिला मूर्तिकार वंदना सिंह चार दशकों से कला के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। कठोर पत्थरों को अपनी कोमल भावनाओं और विचारों से प्रेरित हो कलाकृतियों को जीवंतता प्रदान कर रही हैं। आपका जन्म वाराणसी में सन् 1969 में हुआ। राजस्थानी ब्राह्मण परिवार के संस्कारों से अनुप्राणित वंदना का झुकाव बचपन से ही कला के विभिन्न क्षेत्रों से रहा। नौवीं कक्षा से पांच साल तक नंदलाल बोस के शिष्य मनमथ दासगुप्ता से बनारस में स्केच, ड्राइंग, पेंटिंग और कला की बारिकियों की शिक्षा ग्रहण की।बीएचयू में बीएफ और एम एफ ए के दौरान विख्यात कलाकार रामकिंकर बैज की परंपरा के प्रसिद्ध मूर्तिकार प्रो. बलवीर सिंह कट्ट से कला के क्षेत्र में विभिन्न चित्रों को सीखा और मूर्तिकला में प्रतिभा हासिल की । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान आपने मिट्टी, लकड़ी, धातु, कागज, सोप स्टोन, काले, गुलाबी संगमरमर आदि पर अनेक प्रकार की कला के प्रयोग किए। स्केच, पेंटिंग और कलाकृतियों की प्रदर्शनी भी लगती रही।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कला संकाय से बीएफ ए और एमफ ए की डिग्री हासिल की और उसी दौरान मूर्तिकार मृगेंद्र सिंह (बीएचयू में फाइन आर्ट्स में प्रोफेसर) के साथ विवाह के बंधन में बंधीं। अंतर्जातीय विवाह के कारण परिवार की नाराजगी भी झेलनी पड़ी। अपने संघर्षों से लड़ती हुई राह में आई सभी चुनौतियों का सामना किया।
वंदना ने मूर्ति कला को चुनकर अपने सपनों को उड़ान दी।दो पुत्रों के साथ परिवार को देखते हुए स्त्री के संघर्ष की कहानी को कभी संगमरमर में तो कभी लकड़ी में तो कभी धातु में उकेरतीं रही हैं । स्त्री के दुख, पीड़ा, मानसिक द्वंद, पति-पत्नी के रिश्तों की दरार और तनाव को प्रकृति से जोड़ने का काम करती है वंदना।
मौलिकता हर कलाकृति में झलकती है जो आपकी कला को नई ऊंचाईयां देती है। पत्थरों पर कार्य करने वाली महिलाएं कम संख्या में हैं। घर, परिवार और समाज के विभिन्न क्षेत्रों को अनुभूत करती एक कलाकार स्त्री की दृष्टि अलग ही अभिव्यक्ति प्रदान करती है। रंगों का चुनाव और उसमें आई रेखाएं कलाकार की गंभीरता को दर्शाती है जो निश्चित ही उनके मौलिक और सकारात्मक चिंतन का फल है।”निशब्द” काले संगमरमर पत्थर की बनी मूर्ति है जिसमें दो स्तम्भों के द्वारा भावनाओं को उकेरा है जिसमें नीचे की ओर मानव आकृति है जो धीरे धीरे विलीनता की ओर जा रही है।
विश्व जिस कोरोना महामारी से गुजर रहा है वह मानव जाति के विलीन होने की कहीं शुरुआत तो नहीं? मनुष्य को अपनी “नैसर्गिक प्रकृति को नहीं भुलाना चाहिए” इसी कल्पना के धरातल पर वंदना चुनार मिर्जापुर के जर्गो बांध उत्तर प्रदेश में कला स्टुडियो का निर्माण भी कर रही हैं। इस स्टुडियो में युवा दम्पत्ति शहर की चकाचौंध से दूर प्रकृति के आंगन में अपनी कला को एक नया आकाश देने का प्रयास कर रहे हैं। बच्चों के बड़े होने के बाद अब अपनी मूर्ति कला को पूरा समय दे रही हैं। 2018 से दो वर्षों तक ललित कला अकादमी, लखनऊ द्वारा स्कॉलरशिप पर स्त्री के विभिन्न पहलुओं पर आधारित मूर्तिकला शोध कार्य कर रही हैं।