Sunday, May 11, 2025
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बेटी को पढ़ाना था, पिता ने स्पेशल बच्चों के लिए खड़ा कर दिया स्कूल

भीलवाड़ा.यह कहानी है प्रेमकुमार जैन की। बेटी सोना दो साल की थी। चलते-चलते लड़खड़ा जाती थी। अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने कह दिया सोना विमंदित है। इलाज संभव नहीं। उसी दिन जैन ने जिद कर ली। वे सोना को चलाएंगे और पढ़ाएंगे। साथ ही उन बच्चों के सम्मान के लिए भी कुछ करेंगे जो सोना की तरह हैं। उन्होंने सोना मनोविकास केंद्र खोल दिया।

1996 में शुरू हुए अपनी तरह के इस स्कूल में अब 76 बच्चे हैं। दस प्रशिक्षित शिक्षक हैं। स्कूल सही चलता रहे इसलिए उन्होंने अपना व्यवसाय कम कर लिया। मूलत: जहाजपुर के रहने वाले जैन बताते हैं, बात वर्ष 1985-86 की है। सोना चलने लगी तो बार-बार गिर जाती थी। कुछ दिन सोचा कि बड़ी होने पर सही चलने लगेगी।

डॉक्टर बोले ठीक नहीं हो सकती बेटी

दो साल की हो गई तब भी वही स्थिति रही। भीलवाड़ा के डॉक्टर बीमारी समझ नहीं पाए तो जयपुर ले गए। वहां डॉक्टर ने बताया कि सोना 70 फीसदी विमंदित है इसलिए कभी ठीक नहीं हो सकती। पूरा परिवार सदमे में आ गया। वे स्थायी रूप से भीलवाड़ा आ गए। विमंदित बच्चों को पढ़ाने का तरीका समझा। छह साल तक ट्रेंड टीचर की तलाश में जयपुर सहित कई विमंदित स्कूलों में गए। 1996 में जयपुर के एक स्कूल से एक टीचर को भीलवाड़ा लाकर सोना मनोविकास केंद्र शुरू किया। विमंदित बच्चों के परिजनों से खुद मिलते और यहां ऐसे बच्चों को भर्ती कराने को प्रेरित करते।

सोना भी इसी केंद्र की छात्रा

सोना जब दो साल की थी तब जैन ने विशेष स्कूल खोलने का प्रण किया था। आठ साल की तब से सोना इसी स्कूल में अन्य बच्चों के साथ है। उसे भी स्पिच थैरेपी, फिजियो थैरेपी दी जाती है। वह अलग-अलग कमरों में विशेष खिलौनों से खेलती है। संगीत की क्लास में भी जाती है। आईक्यू लेवल के अनुसार उसे अलग-अलग बच्चों के साथ रखा जाता है।

सरकारी सहायता नहीं

यह केंद्र 1996 से 2002 तक सरकारी सहायता के बगैर चला। वर्ष 2002 में केंद्र सरकार से कुछ सहायता मिलना शुरू हुई जो 2007 में बंद हो गई। अक्टूबर, 2012 में राज्य सरकार से अनुदान मिला। यह वार्षिक चार लाख रुपए है लेकिन सालाना खर्च करीब 12 लाख रुपए आता है। बाद में स्कूल संचालन समिति भी कुछ सहयोग करने लगी। सोना मनो विकास केंद्र के संस्थापक प्रेम कुमार जैन कहते हैं कि किसी का विमंदित होना गुनाह तो नहीं। क्यों न उसे भी सम्मान का जीवन मिले। कई मूक-बधिर भी संघर्ष करके उच्च पदों पर पहुंचे हैं। तो विमंदित को भी कम नहीं आंका जा सकता।

 

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