मस्तक देकर आज खरीदेंगे हम ज्वाला
मस्तक देकर आज खरीदेंगे हम ज्वाला!
जो ज्वाला नभ में बिजली है,
जिससे रवि-शशि ज्योति जली है,
तारों में बन जाती है,
शीतलतादायक उजियाला!
मस्तक …
फूलों में जिसकी लाली है,
धरती में जो हरियाली है,
जिससे तप-तप कर सागर-जल
बनता श्याम घटाओं वाला!
मस्तक …
कृष्ण जिसे वंशी में गाते,
राम धनुष-टंकार बनाते,
जिसे बुद्ध ने आँखों में भर
बाँटी थी अमृत की हाला!
मस्तक …
जब ज्वाला से प्राण तपेंगे,
तभी मुक्ति के स्वप्न ढलेंगे,
उसको छू कर मृत साँसें भी
होंगी चिनगारी की माला!
मस्तक देकर आज खरीदेंगे हम ज्वाला!
ध्वज गीत: विजयनी तेरी पताका!
विजयनी तेरी पताका!
तू नहीं है वस्त्र तू तो
मातृ भू का ह्रदय ही है,
प्रेममय है नित्य तू
हमको सदा देती अभय है,
कर्म का दिन भी सदा
विश्राम की भी शान्त राका।
विजयनी तेरी पताका!
तू उडे तो रुक नहीं
सकता हमारा विजय रथ है
मुक्ति ही तेरी हमारे
लक्ष्य का आलोक पथ है
आँधियों से मिटा कब
तूने अमिट जो चित्र आँका!
विजयनी तेरी पताका!
छाँह में तेरी मिले शिव
और वह कन्याकुमारी,
निकट आ जाती पुरी के
द्वारिका नगरी हमारी,
पंचनद से मिल रहा है
आज तो बंगाल बाँका!
विजयनी तेरी पताका!
(साभार – हिन्दी कविता)